________________ 124] [समवायाङ्गसूत्र ३२३--निसढे णं पचए तेट्ठि सूरोदया पण्णत्ता / एवं नीलवंते वि। निषध पर्वत पर तिरेसठ सूर्योदय कहे गये हैं। इसी प्रकार नीलवन्त पर्वत पर भी तिरेसठ सूर्योदय कहे गये हैं। विवेचन-सूर्य जब उत्तरायण होता है, तब उसका उदय तिरेसठ वार निषधपर्वत के ऊपर से होता है और भरत क्षेत्र में दिन होता है। पुनः दक्षिणायन होते हुए जम्बूद्वीप की वेदिका के ऊपर से उदय होता है। तत्पश्चात् उसका उदय लवण समुद्र के ऊपर से होता है। इसी प्रकार परिभ्रमण करते हुए जब वह नीलवन्त पर्वत पर से उदित होता है, तब ऐरवत क्षेत्र में दिन होता है। वहाँ भी तिरेसठ वार नीलवन्त पर्वत के ऊपर से उदय होता है, पुन: जम्बूद्वीप की वेदिका के ऊपर से उदय होता है और अन्त में लवण समुद्र के ऊपर से उदय होता है / यतः एक सूर्य दो दिन में मेरु की एक प्रदक्षिणा करता है, अतः तिरेसठ वार निषधपर्वत से उदय होकर भरत क्षेत्र को प्रकाशित करता है। और इसी प्रकार नीलवन्त पर्वत से तिरेसठ वार उदय होकर ऐरवत क्षेत्र को प्रकाशित करता है। ॥त्रिषष्टिस्थानक समवाय समाप्त // चतुःषष्टिस्थानक-समवाय __ 324 --अहमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहि दोहि य अट्ठासीएहि भिक्खासएहिप्रहासुत्तं जाव [अहाकप्पं प्रहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारण फासित्ता पालित्ता सोहित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालित्ता] भवइ। अष्टाष्टमिका भिक्षुप्रतिमा चौसठ रात-दिनों में, दो सौ अठासी भिक्षाओं से सूत्रानुसार, यथातथ्य, सम्यक प्रकार काय से स्पर्श कर, पाल कर, शोधन कर, पार कर, कीर्तन कर, आज्ञा के अनुसार अनुपालन कर पाराधित होती है। विवेचन-जिस अभिग्रह-विशेष की प्राराधना में आठ आठ दिन के आठ दिनाष्टक लगते हैं, उसे अष्टाष्टमिका भिक्षुप्रतिमा कहते हैं / इसकी आराधना करते हुए प्रथम के आठ दिनों में एक-एक भिक्षा ग्रहण की जाती है / पुनः दूसरे आठ दिनों में दो-दो भिक्षाएं ग्रहण की जाती हैं। इसी प्रकार तीसरे आदि आठ-आठ दिनों में एक-एक भिक्षा बढ़ाते हुए अन्तिम आठ दिनों में प्रतिदिन आठ-आठ क्षाएं ग्रहण की जाती हैं। इस प्रकार चौसठ दिनों में सर्व भिक्षाएं दो सौ अठासी (8+16+24 +32+40+48+56+ 64 = 288) हो जाती हैं। ३२५–चउट्टि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। चमरस्स णं रन्नो चउसद्धि सामाणियसाहस्सोओ पण्णत्ताओ। असुरकुमार देवों के चौसठ लाख प्रावास (भवन) कहे गये हैं। चमरराज के चौसठ हजार सामानिक देव कहे गये हैं। ३२६.--सव्वे वि दधिमुहा पच्क्या पल्लासंठाणसंठिया सव्वत्थ समा विक्खंभमुस्सेहेणं चउट्टि जोयणसहस्साई पण्णत्ता। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only