________________ 62] [समवायाङ्गसूत्र मुनिसुव्रत अर्हत् बीस धनुष ऊंचे थे / सभी घनोदधिवातवलय बीस हजार योजन मोटे कहे गये हैं। प्राणत देवराज देवेन्द्र के सामानिक देव बीस हजार कहे गये हैं। नपुसक वेदनीय कर्म की, नवीन कर्म-बन्ध की अपेक्षा [उत्कृष्ट ] स्थिति बीस कोडाकोड़ी सागरोपम कही गई है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गये हैं। उत्सपिणी और अवसर्पिणी मंडल (पार-चक्र) कोड़ी सागरोपम काल परिमित कहा गया है। अभिप्राय यह है कि दस कोडाकोड़ी सागरोपम का उत्सपिणोकाल और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का अवसर्पिणीकाल मिल कर बोस कोडाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र कहलाता है। १४२--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णता / छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं णेरइयाणं वीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / पाणते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं वीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बीस पल्योपम कही गई है। छठी तमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बीस सागरोपम कही गई है / कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बीस पल्योपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बीस पल्योपम कही गई है। प्राणत कल्प में देवों को उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम कही गई है। १४३--प्रारणे कप्पे देवाणं जहण्णणं वीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा सायं विसायं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पलं भित्तिलं, तिगिच्छ दिसासोवत्थियं पलंबं रुइलं पुप्फ सुपुप्फ पुष्फावत्तं पुप्फपभं पुप्फकंतं पुप्फवण्णं पुष्फलेसं पुष्फज्झयं पुसिंगं पुप्फसिद्धं पुष्फत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं बीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नोससंति वा, तेसिं ण देवाणं वीसाए वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे वीसाए भवम्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / पारण कल्प में देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम कही गई है। वहां जो देव सात, विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, भित्तिल, तिगिछ, दिशासौवस्तिक, प्रलम्ब, रुचिर, पुष्प, सुपुष्प, पुष्पावर्त, पुष्पप्रभ पुष्पदकान्त, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्पशृग, पुष्पसिद्ध (पुष्पसृष्ट) और रावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बोस सागरोपम कही गई है। वे देव बीस अर्धमासों (दश मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं / उन देवों को बीस हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परमनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ॥विंशतिस्थानक समवाय समाप्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org