________________ [समवायाङ्गसूत्र अाठ मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों के सत्तरह हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्तरह भवग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // सप्तदशस्थानक समवाय समाप्त / / अष्टादशस्थानक-समवाय १२५–अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते, तं जहा–ोरालिए कामभोगे व सयं मणेणं सेवइ 1, नोवो अण्णं मणणं सेवावेइ 2, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ 3, ओरालिए कामभोगे व सयं वायाए सेवइ 4, नोवि अण्णु बायाए सेवावेइ 5, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ 6 / ओरालिए कामभोगे णेव सयं कारणं सेवइ 7, णोवि य अण्णं कारणं सेवावेइ 8, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समाजाणाइ 9 / दिव्वे कामभोगे व सयं मणणं सेवइ 10, गोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ 11 मणणं सेवंतं पि अण्णं न समणजाणाइ१२। दिब्वे कामभोगे व सयं वायाए सेवइ 13, णोवि अण्णं वायाए सेवावेइ 14, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ 15 / दिब्वे कामभोगे व सयं काएणं सेवइ 16, णोवि अण्णं काएणं सेवावेइ 17, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ 18 / ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का कहा गया है। जैसे—औदारिक (शरीर वाले मनुष्य-तियंचों के) काम-भोगों को न हो मन से स्वयं सेवन करता है, न ही अन्य को मन से सेवन कराता है और न मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है 3 / औदारिक-कामभोगों को न हो वचन से स्वयं सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न ही सेवन करते हुए अन्य की बचन से अनुमोदना करता है 6 / औदारिक-कामभोगों को न हो स्वयं काय से सेवन करता है, न हो अन्य को काय से सेवन कराता है और न ही काय से सेवन करता है, न ही अन्य की अनुमोदना करता है 9 / दिव्य (देव-देवी सम्बन्धी) काम-भोगों को न ही स्वयं मन से सेवन करता है, न ही अन्य के कराता है और न ही मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है 12 / दिव्य-काम भोगों को न हो स्वयं वचन से सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न ही सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है 15 / दिव्य-कामभोगों को न ही स्वयं काम से सेवन करता है, न ही अन्य को काय से सेवन कराता है और न ही काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है 18 / १२६-अरहतो णं अरिटुनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था / समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिगंथाणं सखुड्डविअत्ताणं प्रद्वारस ठाणा पण्णत्ता / तं जहा वयछक्कं 6 कायछक्कं 12 अकप्पो 13 गिहिभायणं 14 / पलियंक 15 निसिज्जा 16 य सिणाणं 17 सोभवज्जणं 18 // 1 // अरिष्टनेमि अर्हत् की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा अठारह हजार साधुओं की थी। श्रमण भगवान् महावीर ने सक्षुद्रक-व्यक्त-सभी श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अठारह स्थान कहे हैं। जैसव्रतषट्क 6, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org