________________ षट्स्थानक समवाय] [15 देवों की उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपम कही गई है / वे देव पांच अर्धमासों (ढाई मास) में उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों को पांच हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक ऐसे जीव हैं जो पांच भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // पंचस्थानक समवाय समाप्त / / पदस्थानक-समवाय ३१-छ लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा। छ जीवनिकाया पण्णत्ता, तं जहा--पुढवीकाए पाऊकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए / छविहे बाहिरे तबोकम्मे पण्णते, तं जहा-अणसणे ऊणोयरिया वित्तीसंखेवो रसपरिच्चाओ कायकिलेसो संलोणया / छविहे भितरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तं जहा-पायच्छित्तं विणओ वेयावच्वं सज्झाओ झाग उस्सग्गो। छह लेश्याएं कही गई हैं / जैसे—कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। विवेचन -तीव्र-मन्द आदि रूप कषायों के उदय से, कृष्ण आदि द्रव्यों के सहकार से प्रात्मा की परिणति को लेश्या कहते हैं / कषायों के अत्यन्त तीव्र उदय होने पर जो अतिसंक्लेश रूप रौद्र परिणाम होते हैं, उन्हें कृष्णलेश्या कहते हैं / इससे उतरते हुए संक्लेशरूप जो रौद्र परिणाम होते हैं, उन्हें नीललेश्या कहते हैं। इससे भी उतरते हुए प्रार्तध्यान रूप परिणामों को कापोतलेश्या कहते हैं। कषायों का मन्द उदय होने पर दान देने और परोपकार प्रादि करने के शूभ परिणामों को तेजोलेश्या कहते हैं / कषायों का और भी मन्द उदय होने पर जो विवेक, प्रशम भाव, संवेग आदि जागृत होते हैं, उन परिणामों को पद्मलेश्या कहते हैं / कषायों का सर्वथा मन्द उदय होने पर जो निर्मलता पाती है, उसे शुक्ललेश्या कहते हैं / मनुष्य और तिथंच जीवों में अन्तर्मुहर्त के भीतर ही भावलेश्याओं का परिवर्तन होता रहता है। किन्त देव और नारक जीवों की लेश्याएं अवस्थित रहती हैं। फिर भी वे अपनी सीमा के भीतर उतार-चढ़ाव रूप होती रहती हैं। शरीर के वर्ण को द्रव्यलेश्या कहते हैं। इसका भावलेश्या से कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है। (संसारी) जीवों के छह निकाय (समुदाय) कहे गये हैं / जैसे—पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। छह प्रकार के बाहिरी तपःकर्म कहे गये हैं / जैसे--अनशन, ऊनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और संलीनता / छह प्रकार के प्राभ्यन्तर तप कहे गये हैं / जैसे—प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग / विवेचन-छह जीवनिकायों में से आदि के पांच निकाय स्थावरकाय और एकेन्द्रिय जीव हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य और देवगति नरकगति के जीव त्रसकाय कहे जाते हैं। जिन तपों से बाह्य शरीर के शोषण-द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है, उन्हें बाह्य तप कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org