________________ नवस्थानक समवाय] [23 मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ 4, पणीयरसभोई भवति 5, पाण-भोयणस्स अइमायाए आहारइत्ता भवइ 6, इत्थोणं पुवरयाई पुवकोलियाई समरइत्ता भवइ 7, सद्दाणुवाई रूवाणुवाई गंधाणुवाई रसाणुवाई फासाणुवाई सिलोगाणुवाई भवइ 8, सायासुक्खपडिबद्धे यावि भवइ 9 / ब्रह्मचर्य को नौ अगुप्तियाँ (विनाशिकाएं) कही गई हैं। जैसे-स्त्री, पशु और नपुसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन करना 1, स्त्रियों की कथा त्रों को कहना-स्त्रियों सम्बन्धी बातें करना 2, स्त्रीगणों का उपासक होना 3, स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों और मनोरम अंगों को देखना और उनका चिन्तन करना 4, प्रणीत-रस-बहुल गरिष्ठ भोजन करना 5, अधिक मात्रा में प्राहारपान करना 6, स्त्रियों के साथ की गई पूर्व रति और पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरण करना 7, कामोद्दीपक शब्दों को सुनना, कामोद्दीपक रूपों को देखना, कामोद्दीपक गन्धों को सूचना, कामोद्दीपक रसों का स्वाद लेना, कामोद्दीपक कोमल मृदुशय्यादि का स्पर्श करना 8, और सातावेदनीय के उदय से प्राप्त सुख में प्रतिबद्ध (आसक्त) होना 9 / ___ भावार्थ-इन उपर्युक्त नवों प्रकार के कार्यों के सेवन से ब्रह्मचर्य नष्ट होता है, इसलिए इनको ब्रह्मचर्य की अगुप्ति कहा गया है / ५३-नव बंभचेरा पण्णत्ता तं जहा सत्थपरिण्णा' लोगविजयो२ सीओसणिज्जं सम्मत। आवंति' धुत विमोहा"[यणं] उवहाणसुयं महापरिण्णा // 1 // नो ब्रह्मचर्य अध्ययन कहे गये हैं / जैसे शस्त्रपरिज्ञा 1, लोकविजय 2, शीतोष्णीय 3, सम्यक्त्व 4, आवन्ती 5, धूत 6, विमोह 7, उपधानश्रुत 8, और महापरिज्ञा 9 / / विवेचन-कुशल या प्रशस्त पाचरण करने को भी ब्रह्मचर्य कहते हैं। उसके प्रतिपादक अध्ययन भी ब्रह्मचर्य कहलाते हैं / आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ऐसे कुशल अनुष्ठानों के प्रतिपादक नौ अध्ययनों का उक्त गाथासूत्र में नामोल्लेख किया गया है / तात्पर्य यह है कि आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कध में नो अध्ययन हैं। ५४-पासे णं अरहा पुरिसादाणीए नव रयणीओ उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। पुरुषादानीय पार्श्वनाथ तीर्थकर देव नौ रत्नि (हाथ) ऊँचे थे। ५५-अभीजीनक्खत्ते साइरेगे नव महत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएइ / अभीजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं जहा- अभीजीसवणो जाव भरणी। अभिजित् नक्षत्र कुछ अधिक नौ मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करता है। अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चद्रमा का उत्तर दिशा की ओर से योग करते हैं। वे नौ नक्षत्र अभिजित् से लगाकर भरणी तक जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org