________________ [समवायाङ्गसूत्र यावज्जीवन या नियतकाल के लिए चारों प्रकार के प्राहार का त्याग करना अनशन तप है। भूख से कम खाना ऊनोदर्य तप है। गोचरी के नियम करना और विविध प्रकार के अभिग्रह स्वीकार करना वत्तिसंक्षेप तप है। छह प्रकार के रसों का या एक, दो आदि रसों का त्याग करना रस-परित्याग तप है / शीत, उष्णता की बाधा सहना, नाना प्रकार के आसनों से अवस्थित रह कर शरीर को कृश करना कायक्लेश तप है / एकान्त स्थान में निवास कर अपनी इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकना संलीनता तप है। भीतरी मनोवृत्ति के निरोध द्वारा जो कर्मों की निर्जरा का साधन बनता है, उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं / अज्ञान, प्रमाद या कषायवेश में किये हुए, अपराधों के लिए पश्चात्ताप या यथायोग्य तपश्चर्या आदि करना प्रायश्चित्त तप है। अहंकार और अभिमान का त्याग कर विनम्र भाव रखना विनय तप है। गुरुजनों की भक्ति करना, रुग्ण होने पर सेवा-टहल करना और उनके द करना वैयावृत्त्य तप है। शास्त्रों का वाँचना, पढ़ना, सुनना, उसका चिन्तन करना और धर्मोपदेश करना स्वाध्याय तप है / आर्त और रौद्र विचारों को छोड़कर धर्म-अध्यात्म में मन की एकाग्रता करने को ध्यान कहते हैं। बाहिरी शरीरादि के और भीतरी रागादि भावों के परित्याग को व्युत्सर्गतप कहते हैं / बाह्य तप अन्तरंग तपों की वृद्धि के लिए किए जाते हैं और बाह्य तपों की अपेक्षा अन्तरंग तप असंख्यात गुणी कर्म-निर्जरा के कारण होते हैं। ३२--छ छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा—वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्धाए मारणंतिअसमुग्घाए वेउव्वियसमुग्धाए तेयसमुग्घाए आहारसमुग्धाए। छह छाअस्थिक समुद्घात कहे गये हैं—जैसे वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तैजस समुद्घात और पाहारक-समुद्धात / विवेचन-केवलज्ञान होने के पूर्व तक सब जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। छद्मस्थों के समुद्घात को छानस्थिक समुद्धात कहा गया है। किसी निमित्त से जीव के कुछ प्रदेशों के बाहिर निकलने को समुदघात कहते हैं। समुदघात के सात भेद पागम में बताये गये हैं। उनमें केवलि-समुदघात को छोड़कर शेष छह समुद्धात छमस्थ जीवों के होते हैं। वेदना से पीड़ित होने पर जीव के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना-समुद्घात है। क्रोधादि कषाय की तीव्रता के समय कुछ जीव-प्रदेशों का बाहर निकलना कषायसमुद्घात है। मरण होने से पूर्व कुछ जीवप्रदेशों का बाहर निकलना मारणान्तिकसमुद्घात है / देवादि के द्वारा उत्तर शरीर के निर्माण के समय या अणिमा-महिमादि विक्रिया के समय जीव प्रदेशों का फैलना वैक्रिय-समुद्घात है। तेजोलब्धि का प्रयोग करते हुए जीवप्रदेशों का बाहर निकालना तेजससमुद्धात है / चतुर्दश पूर्वधर महामुनि के मन में किसी गहन तन्व के विषय में शंका होने पर और उस क्षेत्र में केवली का अभाव होने पर केवली भगवान के समीप जाने के लिए मस्तक से जो एक हाथ का पूतला निकलता है, उसे आहारक-समुदघात कहते हैं। वह पुतला केवली र उन मुनि के शरीर में वापिस प्रविष्ट हो जाता है और उनकी शंका का समाधान हो जाता है। उक्त सभी समुद्घातों का उत्कृष्ट काल एक अन्तर्मुहूर्त ही है और उक्त समुद्घातों के समय बाहर निकले हुए प्रदेशों का मूल शरीर से बराबर सम्बन्ध बना रहता है। ३३.--छविहे अत्थुग्गहे पण्णते, तं जहा-सोइंदियअत्थुम्गहे चक्खुइंदियअत्थुग्गहे घाणिदियअत्थग्गहे जिभिदियप्रत्थुग्गहे फासिदियअत्थुग्गहे नोइंदियअत्युग्गहे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org