________________ भाष्य का निर्माण ही किया गया, और न चणियां ही रची गई। सर्वप्रथम नवाङी-टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने इस पर वत्ति का निर्माण किया। यह वत्ति न अतिसंक्षिप्त है और न अतिविस्तृत ही। वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्य ने श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार किया है, क्योंकि प्रस्तुत आगम के अर्थ-प्ररूपक भगवान महावीर हैं। आचार्य अभयदेव ने विज्ञों से यह अभ्यर्थना की है कि मेरे सामने आगम के गुरुगंभीर रहस्यों को उद्घाटित करने वाली अर्थपरम्परा का अभाव है, अत: कहीं पर विपरीत अर्थप्ररूपणा हो गई हो तो विज्ञगण परिष्कृत करने का अनुग्रह७५६ करें। वृत्ति में आचार्य ने समवाय शब्द की व्याख्या भी की है। व्याख्या करते हुए अनेक स्थलों पर पाठान्तरों के उल्लेख भी किये हैं। 760 प्रज्ञापना सूत्र तथा गन्धहस्ती के भाष्य का भी उल्लेख है। यह वृत्ति वि. सं. 1120 में अणहिल पाटण में लिखी गयी है। इस का ग्रन्थमान 3575 श्लोक-प्रमाण है। इस अागम पर दूसरी संस्कृत टीका करने वाले पूज्य श्री घासीलालजी म. हैं।७६१ उन्होंने प्राचार्य अभयदेव का अनुसरण करते हये टीका का निर्माण किया है। यह टीका अपने ढंग की है। कहीं-कहीं पर टीकाकार ने अपनी दृष्टि से अर्थ की संगति के लिये पाठ में भी परिवर्तन कर दिया है। जैसे आगामी काल के उत्सर्पिणी में होने वाले तीर्थंकरों के नामों में परिवर्तन हुआ है।०६२ हमारी दृष्टि से, टीका या विवेचन में लेखक अपने स्वतन्त्र विचार दें, इस में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, किन्तु मूल पाठों में परिवर्तन करने से उनकी प्रामाणिकता लुप्त हो जाती है। अत: पाठों को परिवर्तित करना उचित नहीं। समवायांगसूत्र पर सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद करने वाले आचार्य अमोलक ऋषि जी म. हये हैं। उन्होंने बत्तीस आगमों का हिन्दी में अनुवाद कर महान श्रुतसेवा की है। 763 गुजराती भाषा में पण्डितप्रवर दलसुखभाई मालवणिया७६४ ने महत्त्वपूर्ण अनुवाद किया है। यह अनुवाद अनुवाद न होकर एक विशिष्ट रचना हो गई है। सर्वत्र मालवणियाजी का पाण्डित्य छलकता है। उन्होंने अनुवाद के साथ जो टिप्पण दिये हैं वे उनके गम्भीर अध्ययन के द्योतक हैं। अनुसन्धानकर्ताओं के लिये यह संस्करण अत्यन्त उपयोगी है। पण्डितप्रवर मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने हिन्दी अनुवाद के साथ समवायांग का प्रकाशन किया है। ग्रन्थ का परिशिष्ट विभाग महत्त्वपूर्ण है। यह संस्करण जिज्ञासुओं के लिए श्रेयस्कर है।७६५ 759. समवायांग वृत्ति 1-2 760. "जंबुद्दीवे दीवे एग जोयणसयसहस्सं पायायविक्खंभेणं" के स्थान पर "जंबुद्दीवे देवे एग जोयणसयसहस्स चक्कवालविखंभेण" आदि पाठ मिलता है 'नवरं जंबुद्दीवे इह सूत्रे' 'आयायविक्खंभेणं' ति क्वचित पाठो दृश्यते क्वचित्तु "चक्कवालविक्भेणं ति......" --समवायांग वृत्ति--अहमदाबाद संस्करण, पृ. 5 761. जैनशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट सन् 1962 762. श्रीकृष्ण के आगामी भव—एक अनुचिन्तन / लेखक-देवेन्द्र मुनि शास्त्री लाला सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जी, हैदराबाद वी. सं. 2446 764. गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद सन् 1955 765. आगम अनुयोग प्रकाशन, पोस्ट बॉक्स नं. 1141, दिल्ली 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org