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अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
अमृतमय वचन श्रवण करनेसे और इसका ध्यान पूर्वक मनन करनेसे आत्माको कल्याण कर शकते है और आस्माको कल्याण हुवा जब संसारका परिभ्रमण करनेका बख्त नहिं रहेता, इसलीये अध्यात्मदृष्टिवाले महायोगीका | बचन सुणना, यह संसार अनेक पौद्गलिक वस्तुसे भरा है इसमेंसे पार उतरना मुश्कील है तोभी अध्यात्मीका | संग हुवा जब मार्ग सुगम है इसलीये भव्यात्माको अध्यात्ममें रटन करना,
भावार्थ:-शरीरआश्रये ज्ञानावरणादि अष्टकर्म और आदिशब्दसे धन धान्य स्त्री पुत्रादि सर्वपुद्भलीक पर्यापहै तैसेंही मिथ्यात्व धर्मव्यवहारस कहाजाताहै लेकिन निश्चयदृष्टिसें देखाजावे तो वह सर्व पुद्गलीक पर्यायहै तैसेंही मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानक और एकेंद्रियादि सर्वजीवोंके स्थानक पुद्गलके संयागसें कहलाते है परन्तु ज्ञानदृष्टिसें देखाजावेतो वह सब आत्मस्व स्वरूपसे सदैव भिन्नही हैं क्योंकि उपाधि रहित शुद्धआत्माको कोइभीकार्य सिद्ध करना बाकी नहि रहता आत्माका सिद्वकार्य आत्मा ही होताहै दूसरेतो कारगमात्रहैं ऐसा अपूर्व रहस्य ज्ञानी बिना कौन जानशके अर्थात् ज्ञानी बिना परिपूर्ण आत्मद्रव्यका शुद्धस्वरूप कौन कहनेवालाहैं आत्मद्रव्यके विषे कोईभी प्रमाणनय निक्षेप युक्ति लगे ऐसा नहीहै कि आत्मा ऐसा है वहतो अनुभव गम्यहैं | गाथा-अलखअगोचरअनुपमअर्थनो । कुणकहीजानेरेभेद ।। सहजविशुद्धारेरेअनुभवविणजे। शास्त्रतेसघलारेखेद | ॥१॥ कहनेका तात्पर्य यहहै कि आत्माका स्वरूप अति सूक्ष्म और वचनातीत है अर्थात् वचनातीतहोनेपर आत्माका स्वरूप वाणीसें कैसें कहाजावै क्योंकि जो शब्द है वहतो जडरूप है इसलिये जडरूपीशब्दसें आत्मस्वरूपका कथन
هه وال لاي لالالالالالا
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