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अध्यात्म विचार
तरह विचर एकल भावना भाव यही मोक्षमार्ग साधनेके लिये हे मुनि यही पुरा दाव है.
HE जीतसंग्रह साधु भणी गहवा सनीरे । छुटी ममता तहै । तोपण गच्छवासी पणोरे । गण गुरुपर छे नेह प्रा० ॥२॥ ... भावार्थ:-हे मुनि संयम लेनेपर घरकी ममतातो तेने सर्व छोडदि तोभी तेरेको हाल गच्छका ममत्व नही छुटा क्योंकि हाल तेरेकोगच्छ समुदाय पर स्नेह रहा हुआ है इसलिये हे मुनि तेने घरवार माया ममता स्त्री पुत्रादिकको छोडके दिक्षा लियातो क्या और नहीं लियातो क्या धोबीके कुत्तेकी तरह नहीं घरके नहिं घाटके रहे तब क्या करना चाहिये वह देखलाते है
- वनमृगनी परेतेहथीरे । छोडी सकल प्रतिबंध ॥ एकाकी अनादिनारे । किण था तुझ प्रतिबंधरे मा० ॥३॥
भावार्थ:-इसलिये हे मुनि अब वन मृगकी तरह सर्व तरहसे गच्छादिकका प्रतिबंध छोडकर अकेला विचर यही श्रेष्ट है क्योंकि तुं अनादिसें चतुर्गतिके विषे अकेलाही विचर रहा है इसलिये हे मुनि तु विचारके देख कि संसारमें तेरा साहेक कौन है और तेरेको किसके साथ प्रतिबन्ध रहा है क्योंकि तु एक एक योनीके विषे अनंती २ वेर जाके आया हुआ है इसलिये संसारमें तेरा कोइभी सगा सम्बन्धि नहीं है तैसेही तुभी किसीका सगा सम्बधि नही है ऐसा समझके हे महा भाग्य अब तुं गच्छादिकका तथा चेला चेलीको प्रतिबंधन छोडके अकेला विचरके अपना कल्याण करकरले ॥३॥
ये पण खटपट थायरे । चुडीनी परेरे । विचरु अकेलो । एम वुझ्या नमी रायरे ॥१॥
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