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अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
| परलोक चलने वाले नहीं है तेसे ही तेरा कोई दुःख वाटके लेने वाले भी नहीं हैं इस लिये हे महाभाग्य यह संसारीक विषय भोगविलास सर्व सुख क्षणभंगुर हैं ॥ १२ ॥ परिजन मरतो देखीनेरे । शोग करे जन मूढ ।। अवसरे वारो आपणोरे । सह जननी ए रूढ रे ॥ प्रा० १३ ॥
भावार्थ-अपने कुटंब परिवार में से किसीको मरता देखके अज्ञानी मूढ चिंता करता है और नाना प्रकारसे विलाप करता हैं हा हा भारी जुल्लम हो गया अरे अरे छोटीसी वयमें चला गया ऐसा विचार करके बहुत बहुत दुःख विलाप करते हैं परन्तु दुसरेका मरण देखके ऐसा विचार नहीं करते कि आज इसकी वारी आइ है कल मेरी याने अवसर आनेपर सबका यही हाल होगा ऐसा मृढ मति अज्ञानी नही सोचते परन्तु जो ज्ञानी पुरुष होते है वह तो सर्व परिवारका तथा शरीरादिक पर द्रव्यका ममत्व छोडके सिद्ध समान अपना स्वरूप सइ.के सदा निर्भय होकर विचरते है सुरपति चक्री हरी पलीरे । एकला परभव जाय ॥ तन धन परिजन सहुमेलिरे । कोई सखाइन थायरे ॥ १४ ॥
भावार्थ:-हे चैतन्य सुरपति इन्द्र चक्रवरती वासुदेव और बलदेव आदि लेकर बडेबडे ऋधिवान और बडेबडे बलवान वह भी अपना सर्व वैभव याने सर्व रिद्धि सिद्धिको छोडकर अकेलेही परभव चले गये है लेकिन तन धन और अपने परिवारमेंसे कोईभी अपना सहाएक नही हुए ऐसे अशरण इस जीवको एक धर्मही शरण और साहेक है ईसलिये हे चैतन्य शुद्ध आत्म धर्मसे चलीत होके विषय पुद्गलीक सुखमें फसना ना चाहिये यही श्रिये है ॥१४॥
ज्ञायकरूप हुं एकछरे । ज्ञानादिक गुणवंत ॥ बाहेर जोग सहु अवर छेरे । पाम्यो वार अनंतरे प्रा० ॥१५॥
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