Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
000000000880890819090
॥ अथ श्रीअध्यात्मविचारजीत संग्रहः ॥
॥ श्री जिनाय नमः ।।
-लेखक:॥ संवेग पक्षी जीतमुनि ॥
-: प्रकाशक :पन्नीवाईके उपाश्रयकी बाईयांकी तर्फसे भेट.
बीकानेर-(राजपूताना)
00000000
SDEO
विक्रम संवत्सर १९९१
रथी जैन भास्करोदय प्रिन्टिग प्रेसमा छाप्यु---जामनगर..
0@@@@@@@@@@@@@@@@200
in Education
Fer Personel Private Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
in Education
For Personal & Private Use Only
www.n
yong
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्म
॥ अथ श्रीअध्यात्मविचारजीतसंग्रह प्रारभ्यते ॥ विचार J श्लोक-प्रणम्य परमात्मानं । सद्गुरो पादपंकजम् ॥ नेकग्रन्थान् विलोक्यन्ते । क्रियतेऽध्यात्मसंग्रहः ॥१॥
शब्दार्थः-(परमात्मानं ) परमात्माको (प्रणम्य ) नमस्कार करके तथा (सदगुरोः) श्रीसद्गुरु महाराजके (पादपङ्कजम् ) चरणकमलकों नमस्कार करके और (नेकग्रन्थान् ) अनेक ग्रन्थोंका (विलोक्यन्ते) अवलोकन करके (अध्यात्मसंग्रहः) अध्यात्म आत्मविचार नाम ग्रन्थको (क्रियते) मैं करताहूँ. ॥१॥ श्लोक-अध्यात्मशास्त्रसंभूत । संतोषःसुखशालिनः ॥ गणयन्ति न राजानं । न श्रीदं नापि वासवम् ॥२॥
शब्दार्थः-(अध्यात्मशास्त्रसंभूत) जिसपुरुषको अध्यात्मशास्त्रो अर्थात् आत्मज्ञान ध्यानसे (संतोषसुख शालिनः) मनोहर संतोषरूप सुख प्रगट हुवा है जिसको वह पुरुष (गणयंति न राजानं) बडे बडे राजामहाराजाओंको तथा धनकों अर्थात् अष्टसिद्धि नवनिधि चौदहरत्न कामकुंभ और चित्रावेल आदिकों तैसेंही (श्रीदं न वासवम् ) इन्द्रचन्द्र आदिकोंभी (न गणयन्ति ) नही गिणते हैं तब अन्यकीतो कथा ही क्या है. ॥ २॥
दोहा-संतोषी सदा सुखी सदा सुधारस लीन । इन्द्रादिकजिस आगले दीसे दुखीया दीन ॥१॥ उदासीनतामगन हुइ अध्यात्मरसकूप । देखेनहि कछु ओरको तब देखे निजरूप ।२। पुनः अध्यात्मज्ञानकैसा हैं
in Education
For Personal & Private Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Dal
श्लोक-दम्भपर्वतदम्भोलिः । सौहार्दाम्बुद्धिचन्द्रमाः ॥ अध्यात्मशास्त्रमुत्ताल । मोहजालवनानलः ॥ ३ ॥ अध्यात्म-al
जीतसंग्रह विचार
शब्दार्थः-(दंभपर्वतदंभोलिः) कपटरूपी पर्वतको छेदनेकेलिये अध्यात्मशास्त्र एक वज्रके समानही हैं और Dell ( सौहार्दाम्बुजचंद्रमाः) मैत्रीभावरूपी समुद्रकी वृद्धिके लिये चन्द्रके समान ऐसा (अध्यात्मशास्त्रमुत्ताल) अध्यात्म-3E
शास्त्र वृद्धिको प्राप्त हुआ (मोहजालवनानलः) मोहजालरूपी वनको जालनेकेलिये मानु एक दावानलके समानही है ३ श्लोक-वेदान्यशास्त्रवित्क्लेशं । रसमध्यात्मशास्त्रवित् ॥ भाग्यभृद्भोगमाप्नोति । वहते चन्दनं खरः ॥ ४ ॥
शब्दार्थः-वेदशास्त्रके जाननेवाले तथा ( वेदान्यशास्त्रवित्क्लेश) अन्य सब शास्त्रके जाननेवाले अध्यात्मशास्त्रविना केवल क्लेशके भोक्ता है लेकिन (रसमध्यात्मशास्त्रवित् रसके भोक्ता तो एक अध्यात्मशास्त्रके जानही हैं परन्तु (भाग्यभृदभोगमाप्नोति) वह रसतो जो भाग्यवान् पुरुष होता है उनकोंही मिलता हैं अन्यतो (वहते चन्दनं खरः) केवल गधेकी तुल्य श्रुतज्ञानरूपी चंदनके बोजेको उठानेवाले भारका भागी है रसके भोक्ते नही है गाथा-रसभाजनमें रहत द्रव्य नित नहितसरसपहिचान । तिमश्रुतपाठीपंडितकुं प्रवचन कहत अज्ञान ॥१॥
सार लह्या विन भार कह्यो श्रुत खर दृष्टान्त प्रमाण इतिचिदानन्दवचनात् ।। श्लोक-धनिनांपुत्रदारादि। यथासंसारवृद्धये ॥ तथापाण्डित्यहप्तानां । शास्त्रमध्यात्मवर्जितम् ॥ ५॥
शब्दार्थः-(धनिनांपुत्रदारादि) जैसें धनवान पुरुषकों पुत्र स्त्री आदि (यथा संसारवृद्धये) संसारकी वृद्धिकेलिये
اور موت اباالفدا
العمليات النسخة الكالستالی ملاقات کنند
Join Education in
t
o
For Personal & Private Use Only
www.ebay.org
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Com
अध्यात्मविचार
कारणभूत होते हैं (पाण्डित्यहप्तानां) में आत्मज्ञानवर्जित बहिरात्मअभिमानी पंडितकों अर्थात (शास्त्रमध्यात्मवर्जि- जीतसंग्रह तम् ) अध्यात्मशास्त्रसें वजितहोनेपर सर्वशास्त्रका और पंडिताईका अभिमान केवल संसारवृद्धिके लिये ही हैं ॥५॥ श्लोक-अध्येतद्यंतदध्यात्म शास्त्रं भाव्यं पुनः पुनः ॥ अनुष्ठेयस्तदर्थश्च । देयोयोग्यस्यकस्यचित् ॥ ६॥ ___शब्दार्थः-इसलिये हे भव्य (अध्येतव्यंतध्यात्मशास्त्रभाव्यम् ) अध्यात्मशास्त्रका ही पठनपाठन करना or चाहिये और उनकाही (पुनः पुनः) वारंवार विचार करना चाहिये और उनकाही मनन करके अशुद्धप्रणतिसे हटकर शुद्ध आत्म प्रणतिमें रहना चाहिये और (अनुष्ठेयस्तदर्थश्च ) अध्यात्मग्रंथोंके अर्थका विचार पुनः पुनः करना चाहिये और अध्यात्मशास्त्रके योग्य पुरुष होवे ( देयोयोग्यस्यकस्यचित् ) उनकोही सीखाना और उनकोंही अध्यात्मग्रंथ देना चाहिये किन्तु अयोग्यपुरुषको नहीं देना सीखाना और उनकों ही अध्यात्मशास्त्र पढाना क्योंकि सिंहनीका दूध कांसेके पात्रमें नहीं ठहर सक्ता ॥६॥ शिष्य प्रश्न-भगवन् किं तदध्यात्मं । यदित्थमुपवर्ण्यते॥श्रृणु वत्स यथाशास्त्रं । वर्णयामि पुरस्तव ॥७॥
शब्दार्थः-(भगवन् ) हे भगवान् (किंतदध्यात्म ) अध्यात्म इसलिये क्या (यदित्यमुपवर्ण्यते) जिसका | आपने इतना वर्णन किया (शृणुवत्सयथाशास्त्रं ) हे वत्स तूं एकाग्रचित्तसें श्रवणकर मैं तेरेको शास्त्र अनुसारे t (वर्णयामि) कहता हु ॥ ७॥ श्लोक-गतमोहाधिकाराणां । मात्मानमधिकृत्य या ॥ प्रवर्त्तते क्रिया शुद्धा । तदभ्यात्म जगुर्जिनाः ॥८॥
JainEducation
al
For Personal & Private Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥२॥
शब्दार्थ:-हे महाभाग्य (गतमोहाधिकाराणां ) जिस मुनिराजका मोहका अधिकार नष्ट हुए हैं संसारीक
जीतसंग्रह पुद्गलिक सुखोंसे ( अध्यात्मानमधिकृत्यया) और अंतरात्मा शुद्ध उपयोग सहित अर्थात् आत्माके आश्रित रहकर
JUL॥२॥ (प्रवर्तते क्रियाशुद्धा) जो शुद्धक्रियामें प्रवर्तता है (तध्यात्म जगुर्जिनाः) उसका नामही परमात्मानें अध्यात्म कहा है ८ मू०-ऐन्द्रं तत्परमं ज्योति। रुपाधिरहितं स्तुमः ॥ उदितेस्युर्यदंशेऽपि । सन्निधौ निधयोनव ॥९॥
शब्दार्थ:-(ऐन्द्र) इन्द्रादिक देवोसें पूजित (तत्) वह (परमं ज्योतिः) परम उत्कृष्ट एक आत्मज्योति है वह ( उपाधिरहितं ) उपाधिसे रहित हैं ऐसें परमज्योतिमय शुद्ध आत्मज्योतिको ( स्तुमः) हमस्तुति करते हैं | ( वदंशः) जिसज्योतिके अंशमात्रके ( उदिते) उदय होनेसे (अपि सन्निधौ ) उसके सामने अर्थात् उसके आगे | (नवनिधयः) नवनिधि आपसें आप प्रगट हो जाती है ॥ ९॥ भावार्थः-इन्द्र चद्र सुर असुर और गणधरादिक महापुरुषोंसे पूजित वह परम उत्कृट आत्मज्योति है फिर सर्वप्रकारकी उपाधियोसे रहितस्वरूप है जिस परम प्रकाशमय आत्मज्योतिकेसमान तीन लोकमें कोईभी पदार्थ प्रकाशवान नहीं हैं ऐसी परम ज्योतिमय शुद्ध आत्मज्योतिकी हम स्तुति उपासना करते हैं क्योंकि जिस आत्मज्योतिके अंशमात्रके उदे होनेपर अर्थात् एकअंशमात्रके प्रकाशहोनेपर नवनिधि अष्टसिद्धि और नानाप्रकारकी लब्धियों आपसे आपही सनत्कुमारचक्रीकी तरह प्रगट होजाती हैं ।। म०-प्रभाचंद्रार्कभादीनां । मित्रक्षेत्रप्रकाशिका | आत्मनस्तुपरंज्योति-र्लोकालोकप्रकाशकम् ॥१०॥
शब्दार्थः-(चंद्रार्कभादीनाम् ) जो चंद्रसूर्यादिकग्रहोंकी (प्रभा) कान्ति याने प्रकाश है वहतो (मितक्षेत्र
For Personal & Preise Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
प्रकाशिका) थोड़ेही क्षेत्रोंके विषे प्रकाशित है (परं) परंतु (आत्मनः ज्योतिः) जो आत्मज्योतिका प्रकाश अध्यात्मविचार
है वहतो (लोकालोकप्रकाशक) लोकालोकके विषे प्रकाशित है अर्थात् आत्मज्योतिका जो प्रकाश है वह तो लोकालोककेविषे है ॥१०॥ भावार्थः-चंद्रसूर्यादिकोंकी ज्योतिका जो प्रकाश है वह तो केवल थोडेही क्षेत्रोके विसे प्रकाशित हैं परंतु जो आत्मज्योतिका प्रकाश हैं वहतो लोकालोकके विषे प्रकाशित हैं अर्थात् जो आत्मज्योतिका प्रकाश हैं वहतो लोकालोकमयी हैं ॥ १० ॥ पुनः आत्मज्योतिका स्वरुप कैसा है सो कहते हैं यथामू०-निरालम्बं निराकारं । निर्विकल्पं निरामयम् ॥ आत्मनः परमं ज्योति-निरुपाधिनिरञ्जनम् ॥११॥
शब्दार्थः-(निरालंब) निरालंब अर्थात् आलंबनसे रहित स्वरूप हैं जीस आत्मज्योतिका पुनः(निराकार) आकारसें | रहित हैं याने वहां पर कोइभी तरहका आकार आकृति नहीं हैं तैसेंही आत्मज्योतिके विषे कोईतरहका रूप रस गंध और | स्पर्श नहीं हैं पुनः आत्मज्योतिका स्वरूप कैसा हैं (निर्विकल्प) निर्विकल्प आत्मज्योतिकेविषे कोइभी तरहका विकल्प JE अर्थात् मनादि योग संबंधी विकल्पवर्जित निर्विकल्पसमाधिमय स्वरूप हैं, जिस आत्मज्योतिका पुनः (निरामयं) रोगा
दिक उपद्रवोंसे रहित हैं (निरूपाधिः) वहां कोइभी तरहकी उपधी नहीं हैं फिर (निरञ्जनम) निरंजन निराकार स्वरूप हैं जिस (आत्मज्योतिका)११ भावार्थ:-पुनः आत्मज्योतिका स्वरूप कैसा है निरालंब याने आलंबसेरहित इति भावार्थः
-दीपादिपुदगलापेक्षं। समलंज्योतिरक्षजम् ॥ निर्मलं केवलंज्योति-निरपेक्षमतीन्द्रियम् ॥१२॥
sani
म.
Jain Education n
ational
For Personal & Private Use Only
I
l
anelibrary.org
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दार्थः-(दीपादिपुद्गलापेक्ष) दीपकआदि पुद्गलीक धूम्रमय अल्पज्योति जैसा स्वरूपनही है तेज प्रकाश जिस अध्यात्म
Ind जीतसंग्रह विचार आत्मज्योतिका (समलं ) लेकिन सब जगतको प्रकाश करने के लिये आत्मज्योतिका प्रकाश परिपूर्ण लोकालोकके
३ ॥३॥ ॥३॥
विषे प्रकाशित हैं क्योंकि जो आत्मज्योतिका स्वरुप हैं वह स्वप्रकाशमय हैं लेकिन जिसका [अक्षणं] इंद्रियो जनित नहीं है किन्तु (निर्मलं ) महानिर्मल मलरहित स्वच्छ और (केवलंज्योतिः) केवलआत्मज्योतिमय स्वरुप हैं जिसका फिर (निरपेक्ष) पक्षपातसें वर्जित और [ अतीन्द्रियं ] इंन्द्रियोंसेभी जिसकास्वरूप अगोचर हैं अर्थात् | इन्द्रियोदारा नहीं जाना जावे जिसका स्वरुप ऐसी आत्मपरमज्योति हैं भावार्थः-दीपक आदि पुद्गली अल्प Me तेज ज्योतिके प्रकाश समान नहीं प्रकाश हैं जिस आत्मज्योतिका लेकिन वहतो सर्व जगतको प्रकाशमय करनेकेलिये
आत्मज्योतिका तेज प्रकाश परिपूर्ण हैं अर्थात् लोकालोकविषे प्रकाशित हैं क्योंकि आत्म परमज्योतिका प्रकाश स्वभाविक है लेकिन दीपक ज्योतिकी तरह कृत्रिमीक नही है तैसेंही जिस आत्मज्योतिका तेज प्रकाश इन्द्रियों जनीत नहीं है इन्द्रियोंसे अगोचर हैं महानिर्मल स्फटिक रत्नकी तरह स्वच्छ केवल परमज्योतिमय स्वरूप हैं जिस आत्मज्योतिका फेर पक्षपातसेंभी रहित है स्वरूप जिसका १२ | मू०-कर्मनो कर्मभावेषु । जागरूकेश्वपिप्रभुः ॥ तमसानावृतःसाक्षी । स्फुरति ज्योतिषास्वयम् ॥१३॥ __शब्दार्थः-(कर्मनो कर्मभावेषु) द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म नोकर्म इसलिये उदारिक वैक्रीय आहारिक तैजस और कार्मण ऐसें पञ्चशरीर तथा भावकर्म वेरागद्वेष इन सबसे रहित स्वरूप है जिस आत्मज्योतिका वह
Jan Education
For Personal & Private Use Only
GEMriainelibrary.org
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
(जागरूकेषु) ज्ञानी बडे २ महापुरुषों केभी (प्रतुः) इसलिये मालिक स्वामि है पुनः (तमसानावृत्तः) तमोगुणादिक जीतसंग्रह अध्यात्म
अंधकारसें नहिछादित होनेवाली ऐसा ज्ञानमय स्वरूप हैं जिस आत्मज्योतिका वह सर्वपदार्थों के प्रकाशित और विचार
साक्षीभूत और सर्वके अंतर्यामी हैं पुनः (स्वयं) अपने तेज प्रकाशसेंही (स्फुरति) अर्थात् अपने ज्ञानसेंही चमकरही हैं ॥१३॥ भावार्थः-आत्मज्योतिका स्वरूप कैसा है मानुकि द्रव्यकर्मो ज्ञानवरणी दर्शनावरणी आदि अष्टको नोकर्म इसलिये चक्रीय आहारिक तैजस और कार्मण ऐसें पांच शरीर तथा भावकर्म वे रागद्वेष उपरोक्त सर्वकर्मों के पर्यायोसे रहित हैं आत्मज्योतिका स्वरूप गणशविज्ञानियोंकेभी प्रनु है और तमोगुणादिक अर्थात् अज्ञानरुपी अंधकारसें नहिछादित होनेवाली ऐसी महानिर्मल आत्मपरमज्योति है और सर्वज्ञपदार्थों के प्रकाश करनेवाली सबके
साक्षीभूत दृष्टा और (त्रैलोक्यपूजित) सबके स्वामी अपने तेज प्रकाश याने ज्ञानज्योतिर्मय लोकालोकके विषे ool चमकरही हैं. ॥१३॥
मू०-परमज्योतिषःस्पर्शात । दपरंज्योतिरेधते ॥ यथासूर्यकरस्पर्शात। सूर्यकान्तस्थितोनलः ॥१४॥ ___ शब्दार्थः-पुनः आल्नज्योतिका तेज प्रभाव कैसा है मानुकी (परमज्योतिषःस्पर्शात) परमआत्मज्योकि एक लेशमात्रस्प होनेसें (अपरं) और (ज्योतिः) आत्मज्योतिका तेज प्रकाश (एधते) दिनदिन वृद्धिको प्रास होता है याने आत्म- | JE ज्ञान दिनदिन वृद्धिको प्राप्त होता हैं, कैसें वृद्धिकों पास होता है (धथा) जैसें (शर्यकर पीत) सूर्यके एक लेशमात्र किरणका स्पर्श होने से (सूर्यकान्त स्थितोनलः) सूर्यकान्तमणिके विसे रहाहुआ अग्निका तेज दिन २ वृद्धिको प्राप्त होता है
C
in Education in
For Personal & Private Use Only
www.janeiro
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
जीतसंग्रह ॥ ४ ॥
॥४॥
॥१४॥ भावार्थ:-इसतरहसें आत्मज्ञान तथा आत्मज्योतिके लेशमात्र स्पर्श याने लेशमात्र प्रकाश होनेपर आत्माका | तेज दिन २ वृद्धिको प्राप्त होता है जैसे सूर्यकांतमणिके विसे रहा हुआ अग्निका तेज वृद्धिको प्राप्त होता है ॥१४॥ मु०-पश्चन्नपरमंज्योति-विवेकानेः पतत्यधः ॥ परमंज्योतिरन्धिच्छन् । न विवेके निमजति ॥ १५ ॥
शब्दार्थः-(पश्यन्नपरम ज्योतिः) परन्तु परमआत्मज्योतिके स्वरुपकों नहीं जाननेवाले मुग्धपुरुष (विवेकाद्रेः पतत्यधः) विवेक रहित आत्मज्ञान और आत्मज्योतिसें अवश्यही अंधपुरुषकी तरह अधोगतिमें पतित होते हैं अर्थात् विवेकहीन अज्ञानी पुरुष आत्मज्योति आत्मज्ञानसें नीचा गिरके दूरगतियोमें गमन करते हैं (परमज्योतिः) केवल अविवेकपनेसें परम आत्मज्योतिके स्वरुपकों नही जाननेसें अर्थात् (अविवेके) केवल अविवेकपनेसें आत्मज्ञा|नसे रहितहुए सर्वजीव (निमज्जति) इसभवसागरमे आत्मज्ञानबिना डूब रहे है १५ दोहा-ज्ञानी ज्ञान मगनरहै, रागादिकमलखोय; चित्तनुदास करनीकरे कर्मबंध नवि होय. भावार्थ:-ऐसे विवेकहिन परमआत्मज्योतिके स्वरुपको नही जाननेवाले मुग्धपुरुष विवेकहीन अज्ञानी पुरुष आत्मज्योतिसें नीचे गीरके अधोगतिमें गमन करते हैं तथा विवेकहीन आत्मस्वरुपसें अंधपुरुषकी तरह संसाररुपीकूपमे पतित होते है क्योंकि परमआत्मज्योतिकेस्वरुपकों नहि जाननेपर अविवेकपनेसें आत्मज्ञानरहितजीवों इसभवसागररुपी कूपमें कालीधर डूब रहे है ॥१५॥ मु०-तस्मविश्वप्रकाशाय । परमज्योतिषेनमः ॥ केवलं नैव तमस । प्रकाशादपियत्परम् ॥१६ ।।
لالالالالالالالالالالا لان لعل
عون الرجل مع و
Jan Education International
For Personal & Private Use Only
ujainelibrary.org
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
| (तस्मै) भवसागरमें भव्यप्राणियोंके उद्धार होनेके लिये केवल एक परम आत्मज्योति है वहआत्मज्योति कैसी हैं | अध्यात्मविचार 18 मानुकि (विश्वप्रकाशाय) सर्वविश्वकों प्रकाशमय और सर्वका उद्धार करनेवाली है एसी (परमज्योतिषेनमः) परम
| आत्मज्योतिकों मेरा नमस्कार हो लेकिन (केवलं) केवल (तमसेनैव) अज्ञानरूपी तिमिरकों नहीं हैं और (प्रकाशादपि) | वह सर्वतरहके याने चंद्रसूर्यग्रह नक्षत्र और तारोंकी ज्योतिके तेज प्रकाशोसेंभी (यत ) जो आत्मज्योतिका प्रकाश है वहतो (परं) सबसे परे और सबसे उत्कृष्ट प्रकाशमय है पुनः अज्ञानरूपी तीमिरको दूर करनेके लिये मोक्षरूपी अक्षय सुखकों देनेवाली तोएक आत्मज्योतिही है आत्मज्योतिके प्रकाशविन सब अन्धेराही है अर्थात् आत्मज्ञान बिना हजारोंही ग्रंथ पढनेपरभी अंधेराही है १६ सवैया-वेदपढोज्यं किताबपढो अरुदेखो जिनागमकों सबजोइ, दानकरो अरु स्नानकरो भावैमौनधरो वनवासीज्यूहोई, जापजपो अरूत्तापतपोकेई कानफरायफिरोपुनिदोइ. आत्मध्यान अध्यात्मज्ञानसमो शिवसाधन और न कोई. ॥१॥ पुनः आत्मज्योतिका स्वरूप कैसा है मानुकि अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतचारित्र और सम्यक् सुख अनंतवीर्यमयी उत्पन्ना हुआ है स्वरूप जिस आत्मज्योतिका इसलिये सर्वतरहकी उत्तम कलाओसें संयुक्त ऐसी परमआत्मज्योतिका प्रकाश मेरे घटविसें प्रकाशित होउं. मु०-ज्ञानदर्शनसम्यक्त्व । चारित्रसुखवीर्यभूः ॥ परमात्मप्रकाशोमे । सर्वोत्तमकलामयः ॥१७॥
शब्दार्थः-(ज्ञानदर्शन सम्यक्तवचारित्रसुखवीर्यभूः) अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतचारित्र सम्यक्सुख और अनंतवीर्यमयी उत्पन्ना हुआ है स्वरुप जिस आत्मज्योतिका इसलिये (सर्वोत्तमकलामयः) सर्वतरहकी उत्तमकलाओसे
wwwwwwwwww
For Personal Private
Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
॥५॥
Jain Education 1
उत्तम और सर्वकलाओ संयुक्त (परमात्मप्रकाशः) ऐसा परमज्योतिर्मय प्रकाश मेरे घटविषे प्रकाशित होउं. मृ०-यांविनानिष्फलाः सर्वाः । कलागुणबलाधिकाः ॥ आत्मधामकलामेकां । तांवयंसमुपास्महे ॥१८॥
शब्दार्थः– (यांविना ) इस आत्मकलाविना अर्थात् आत्मज्ञान और आत्मज्योतिके प्रकाशहुयेविना (गुणबलाधिकाः कलाः ) नानाप्रकारके वीर्यबलादिक जिसमें अधिकहो (हो) ऐसी पुरुषकी बहोतर कला और स्त्रीकी चौसठ कला वह (सर्वाः) सब कलाओं (निष्फलाः ) निष्फलही है इसवास्ते हे भव्य ! अर्थात् आत्मज्ञान ध्यानविना सर्वतरहकी कलाओं फलरहित निष्फलही है इसलिये हे भव्य ! (एकांतां) एक ( आत्मधामकलां ) आत्मज्ञानरूपीकलाकी ( वयं ) हम ( समुपास्महे ) उपासना करते हैं क्योंकि आत्मज्ञानकलाविना नानाप्रकारके गुण और नाना प्रकारकेवीर्य याने बलादिक जिसमें अधिकहो ऐसी पुरुषकी बहोत्तरकला और स्त्रीकी चौसठ कलाओं वह सर्वेपि याने वह सर्व कलाओं निष्फल हैं अर्थात् आत्मज्ञानकलाविना सर्वतरहकी कलाओं और सर्वतरहकी विद्याओं फलरहित निष्फलही हैं कहा भी है कि गाथा — कलाबहुभर जे भण्या, पण्डित नाम घराय, आत्मकला आवी नही, तेतो मूर्खना राय ॥ १ ॥ अवर सर्वे विकल कला, आत्मकलासिरदार, आत्मकलाविन मानवी पशुतणेअवतार ॥ २ ॥ आत्मखरूप जाण्यो नही, जाण्यो नही सुखवास, पशुहुवा ते बापडा, पडिया खावे घास || ३ || इसलिये हे भव्य ! हम सर्वतरके विकल्पोंको छोडकर एक आत्मज्ञानरूपी कलाकी उपासना करते हैं क्योंकि आत्मज्ञानकलाविना जितनींकलाओं हैं वहसब निष्फल हैं जनताकों ठगनेकेलियेही हैं १८
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ॥ ५॥
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
ونحن
जीतसंग्रह
पुनः आत्मज्योतिका तेज प्रकाश कैसा है मानुकिअध्यात्मविचार Ind| मु०-निधिभिनवभीरत्ने । श्चतुर्दशभिरप्पहो ॥ ने तेजश्चक्रियायत्स्या । तदात्माधीन मे वनः ॥ १९ ॥
शब्दार्थ:-( नवभिनिधिभिः) नवनिधि और (चतुर्दशभिः रत्नैः) चौदहरत्नोंमे ( अपि) औरभी (अहो) अहों इति आश्चर्ये ( यत्तेजः) इतनातेज प्रकाश नहीं हैं अर्थात् [ नक्रिया ] इतना तेज प्रकाश नहीं करशक्ते [ तत् ] क्योंकि वह (नः ) हमारी [ आत्माधीनं] आत्मज्योतिके तेज प्रकाशसें [अधिकंन ] अधिक नहीं हैं ॥ १९ ।। भावार्थः-नवनिधि और चौदहरत्नोमें इतना तेज प्रकाश नही हैं हमारी आत्मज्योतिके
तेज प्रकाशसें अधिक ॥ १९ ॥ 5 मु०-दंभपर्वतदंभोलि । निध्यानधनाः सदा ॥ मुनयो वासवेभ्योपि । विशिष्टं धाम बिभ्रति ॥ २० ॥
__ शब्दार्थः-(दंभपर्वतदंभोलिः) दंभ याने कपटरूपी पर्वतके छेदनेकेलिये अध्यात्मज्ञानके समान दूसरा कोईभी शस्त्र नहीं है तैसेंही मोहरायकों गिरानेकेलिये दूसरा कोईभी शस्त्र नहीं है इसलिये (सदा ) सदैव [ ज्ञानध्यानधनाः] ज्ञानध्यानरूपी धनवाले [ मुनयः ] मुनियोंकों ( वासवेभ्योपि) इन्द्रसे भी अधिक [ विशिष्टं | | धाम ] अर्थात् इन्द्रसें विशेषधामकी याने स्थानसुखकी [विभ्रति ] प्राप्तिहोती हैं आत्मज्ञानध्यानकेविसे गाथा-इंद्रतणां सुख भोगतां, जे तृप्ति नहि थाय, ते सुख सुण इक पलकमें, मिले ध्यानमें आय ॥१॥ जे सुख
ا ليونان تور وارنا ونحن سواری
بالتعاون
in Education
For Personal & Private Use Only
witbhojainelibrary.org
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
नहीं सुररायने, नहिरायां नहिराय, ते सुख एक पलकमें, निले ध्यानमें आय ॥२॥ भावार्थ-पुनः आत्मपरम ज्योति अध्यात्म-DE विचार
JE प्रभाव कैसा है मानु कि दंभ याने कपटरूपीपर्वतको छेदनेकेलिये मानु एक वज्रके समानही हैं अर्थात् दंभ
रूपी कपटको छेदनेकेलिये अध्यात्मज्ञानके समाम दुसरा कोइभी शस्त्र नहीं हैं तैसेंही मोहरायकों मारनेके लिये आत्मज्ञानके समान दूसरा कोइभी शस्त्र या औषधि नहीं हैं इसलिये सदैव आत्मज्ञानरूपी धनवाले
मुनियोंको इंद्रसेभी अधिक सुख और स्थानकी प्राप्ति होती है कहाभी है ॥२०॥ JE] मु०-श्रामण्ये वर्षपर्यायात् । प्राति परम शुक्लताम् ॥ सवार्थसिद्धदेवेभ्यो । प्यधिकंज्योतिरुल्लसेत २१
शब्दार्थ:-[श्रामण्येवर्षपर्यायात् ] मुनिपर्यायमें एकवर्षरहनेपर (प्राप्तेपरमशुक्लतां) परन उत्कृष्टशुक्लज्ञानकी प्राप्ती होती है अर्थात् जिससुखकीप्राति साधुमुनिराजको होती हैं ऐसे सुखकी प्राप्ति (सर्वार्थसिद्धदेवेभ्यः) सर्वार्थसिद्धवासी देवोंकोंभी नहीहोती क्योंकि [ज्योतिः] आत्मअनुभवज्योतिकेबिसे जोसुख हैं वहसुख सर्वार्थसिद्धवासी देवोंसेंभी [अधिकं] अधिक (उल्लसेत् ) उल्लासकों प्राप्त होता है २१ भा०-कि मुनिपर्यायमें एकवर्ष में जो सुखकी प्राप्तिहोती हैं वह सुखकी प्राप्ति सर्वार्थसिद्धवासी देवोंकोभी नहीं होशकती क्योंकि आत्मअनुभाव समाधिका सुख अधिक है २१ म०–विस्तारिपरमज्योति । द्योंतिताभ्यंतराशयाः ॥ जीवनमुक्तामहात्मानो । जायन्ते विगतस्पृहाः ॥२२ | शब्दार्थः-ऐसें [ विस्तारि ] विस्तारको प्राप्तहुइ [ परमज्योतिः] परमआत्म ज्योतिके प्रभावसे (द्योति ताऽभ्यंन्तराशयाः) महानिर्मलहुआ है अंतःकरण जिस महात्माका वही [ जीवन्मुक्ताः) जीवनमुक्त हैं अर्थात्
DDCDDROIDचालन
SupendepenDGBDDLODGUADOD
For Personal Price
Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
IJAL
अध्यात्म-
विचार
مقالات بارداری
वह महापुरुष जिंदाही मुक्त है वह (महात्मानः) महात्मा (विगतस्पृहाः) सर्वतरहकी इच्छाओसें मुक्त (जायन्ते) होकर |
Bीतसंग्रह आत्मअनुभवरूपी अमृतका पान करता है. ॥ २२॥ भावार्थ:-विस्तारको प्राप्तहई परमआत्मज्योतिके प्रभावसे | महानिर्मलहआ हैं अंतःकरण जिसमहात्माका वही महापुरुष जीवन्मुक्त अर्थात् जींदाही मुक्तरूप है वही महापुरुष कर्मोसे मुक्त होकर मोक्षसुखको प्राप्त कर शक्ता है मेरे जैसे (पुद्गलानंदियों विचारे क्या करेगे वह महानुभाव सर्वतरहकी इच्छाओसे मुक्त होकर अखीरमें निर्वाणपदकों प्राप्त करलेता है ॥ २२॥
मु०-जागत्यात्मनितेनित्यं । बहिर्भावेषुशेरते ॥ उदासतेपरद्रव्ये । लिंगंतेस्वगुणामृते ॥२३॥ | शब्दार्थः-(ते) वह महापुरुष (नित्यं ) सदैव (आत्मनि) आत्मस्वरूपमेंही (जाग्रति) जाग्रत रहता है और जो संसारिक पुद्गलानंदियो हैं (बहिर्भावेषु) अर्थात् बहिरात्म पुद्गलीक सुखोमेंही (शेरते) सोतेहुये हैं, परद्रव्यके विषे परंतु जो महात्मा होते है वहतो [परद्रव्ये परद्रव्य परधनके विसे [उदासते] उदासवृत्तिमें रहकर [स्वगुणामृते] अपनें स्वआत्मरूपी अमृतके विसेही [लिंगंते आलिंगन करतेहुये सदैव सुखमेंही मग्न रहते है २३ भावार्थः-वह महा| पुरुष सदैव आत्मस्वरूपके विसेही जाग्रत रहते है लेकिन संसारीजीवों बहिरात्मभावमं अर्थात् पुद्गलानंदियो पुगलीक सुखोमें सोतेहुए कालक्षेप करते है परपुद्गलके विषे परंतु जो योगीराज हैं वहतो परद्रव्य परधन में उदास वृत्तिमें रहकर अपने स्वआत्मगुणरूपी अर्थात् आत्मज्ञानरूपी अमृतकाही पान करतेहुए निरभे विचरते है.॥२३॥
Jain Elucio
For Personal & Private Use Only
ज
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
जीतसंग्रह
विचार
मु०-प्रच्छन्नं परमज्योति-रात्मनोज्ञानभस्मना ॥ क्षणादाविर्भवत्युग्र । ध्यानवात प्रचारतः ॥२४॥
शब्दार्थः-(प्रच्छन्नं परमज्योतिः) कर्मोसें छादितहुए परमज्योतिमय आत्माका प्रकाश उनकों दूर करनेकेलिये (उग्रध्यानवात प्रचारतः) एकउग्र इसलिये अतिकठिन आत्मध्यानरूपी वायुही हैं अर्थात् ज्ञानध्यानरूपी वायुके जोरमें [क्षणात् ] एकक्षणभरमें कर्मरूपी काष्ठ याने ध्यानरूपी अग्निके प्रचारमें कर्मरूपी काष्टको भस्मीभूत करके योगीराज उडाके [आविर्भवति अपने आत्माको प्रकाशमय करदेता है. ॥ २४॥ भावार्थ:-नाना प्रकारके कर्मोंसे आच्छादितहुआ आत्माका प्रकाश ढकाहुआ उनकों दूरकरनेके लिये अर्थात् कर्मरूपी शत्रुकों नाशकरनेकेलिये एक आत्मध्यानरूपी अग्नि वायुके समान हैं. योगी ध्यानरूपी अग्निसें कर्मोकों जलाकर अर्थात आवर्णको दर करके अपने आत्माको स्वच्छ निर्मल करदेता है. कैसे निर्मलकर देता है. गाथा-ज्यूंदारुकेगंजको नरनहिशकउठाय, तनकआगसंयोगते छनएकमेंउडजाय. ॥१॥ तैसें योगीराज कर्मोके गंजको छनभरमें भस्मीभूत करके उडादेते हैं ॥२४॥ मु०-यथैवाऽभ्युदितःसूयों। विदधातिमहान्तरम् ॥ चारित्रपरमज्योति-द्योंतितात्मातथामुनिः ॥२५॥
शब्दार्थ:-यथैव अथवा जैसे (अभ्युदितः सूयः) उदितहुआ सूर्य [महान्तरं] तिमिरकों याने अंधकारको [विदधाति] दूरकरता है (तथा) जैसे (चारित्रपरमज्योतिर्योतितात्मा) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको प्राप्तहुवा आत्मज्ञानसे प्रकाशित आत्म अध्यात्म ज्ञानवाला (मुनिः) मुनिराज अज्ञानरूपी तिमिरकों अवश्यही दरकरके सिद्धपदको प्राप्त
in Education international
For Personal & Private Use Only
www.ebay.org
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म- Mall करलेता हैं महाभाग्य. ॥ २५ ॥ भावार्थ:-जैसे उदयहुआ सूर्य तिभिर रूपी अंधकारकों अर्थात् अंधकारके पडलको करता हमहामाग्य. ।। ५.
JE जीतसंग्रह विचार
| दूर करदेता है तैसे सम्यग्दर्शन चारित्रको प्राप्त हुआ अर्थात् आत्मज्योतिके प्रकाशसें प्रकाशितवाला योगीराज अज्ञानरूपी तिमिरको एक समयमात्रमें दरकरके सिद्धपदकों प्राप्त करलेता है. गाथा-मोहप्रसंगेचेतन, चाऊंगतिमेंभटके, मोहतजी शीवजातां, समयमात्रनविअटके. ॥१॥ मु०-परकीयप्रवृतो ये । मृकान्धवधिरोपमाः ॥ स्वगुणाऽर्जनसज्जास्तैः । परमज्योतिराप्यते ॥ २६ ॥ |
शब्दार्थ:-जब आत्मज्ञानध्यानसे योगीराजके हृदयकमलमें यथार्थ प्रकाश होजाता है तब उसकी वृत्ति एसी होजाती है कि मृकांधयधिरोपमाः गंगा अंध और बधिर आदि पुरुषकी ओपमाकों प्रास होजाता है अर्थात् आत्मज्योतिका प्रकाश होनेपर उस महापुरुषकी वृत्तिपर दोष देखनेकेलिये अंधे बधिर और मुककी तरह होजाती हैं (ये च ) तब यही आत्मा (स्वगुणार्जनसन्जा) अपने स्वगुगोंको उपार्जन करके निजगुणोंका भागी बनशक्ता है और तैः] तरही वह महापुरुष (परमम्योति आप्पते) परमआत्मज्योतिके प्रकाशकों प्राप्त करशका है. ॥ २६ ॥ भावार्थ:-जय आत्मज्ञानध्यानसे योगीराजके हृदयकमलके विसे परिपूर्ण प्रकाश होजाताहै तब उसयोगीराजकीवृत्ति | एसी होजाती है कि-परगुण परदोष देखनेकेलिये गूंगे अंधे और बधिर आदि पुरुषकी ओपमाको प्राप्त होजाता है | अर्थात आत्मज्ञानका प्रकाश होनेपर उन महापुरूषको दृष्टि परगुण और ओगण देखने के लिये अंधे बधिर और
Jan Education n
ational
For Personal & Private Use Only
Gaindiainelibrary.org
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
TOD
जीतसंग्रह ॥८ ॥
मूककी समान होजाती है ऐसी दशा प्रगट होनेपर यही आत्मा अपने स्वगुणका भोगी आपसेही होजाता है.निजअध्यात्म-11 विचार
J गुण भोका परगुग लोप्सा आत्मशक्ति जगाईरे परम जगनांतारो मोएतारोनी कृपानिधस्वामी वही योगीराज परम॥८॥
आत्मज्योतिको प्रगट करके निर्वाण पदकों प्राप्त करता है लेकिन पालपोल की भक्तिसे आत्मज्योतिका प्रकाश कभी नही होसक्ता चाहे जितने ऊंचे २ हाथ करके चिल्लाओ. ॥२६॥ मृ०-परेषांगुणदोषेषु । दृष्टिस्तेविषदायिना ॥ स्वगुणानुभवालोकाद-दृष्टिःपीयूषवर्षिणी ॥ २७ ॥
शब्दार्थः-जब योगीराजके धटविसे स्वात्मज्योतिका प्रकाश होजाता है तब (परेषांगुणदोषेषु) दूसरोंके गुण और ओगुणमें जो दृष्टि देनी है याने परगुण और परओगुणमें जो दृष्टिदेना (ते) वहतो आपसें आप (विषदायिनी) जहरके समान होजाती है और (स्वगुणानुभवा लोकदृष्टिः) स्वआत्मगुण अनुभव कर्के दृष्टि देनेंपर (पीयूषवर्षिणी) अमृतधाराके समान वर्षनेवाली यही दृष्टि होजाती है. ॥२८॥ भवार्थ:-जय योगीराजकी दृष्टि आत्मज्ञानरुपी अमृतके विषे लीन होजाती तबही योगीराज अपने स्वसरूपको देख शक्ता हैं वही महापुरुष प्रशंसाके योग्य हैं ॥२७॥ | मु०-स्वरूपदर्शनंश्लाध्यं । पररूपेक्षणंवृथा ॥ एतावदेवविज्ञानं । परंज्योतिप्रकाशकम् ॥ २८ ॥
शब्दार्थः-पुनः वही महापुरुष [स्वरुपदर्शनंश्लाध्यं] अपने स्वसरूपको देख शक्ता हैं [पररूपेक्षणंवृथा] तबजो पररूप देखना है वहतो आपसेंआप वृथा होजाता हैं (एतावदेवविज्ञानम्) बस ज्ञानी महापुरुषके लिये
انا في الثاني لانتقال للثالث الافلام
DDDDDDDD
Jan
21
For Personal & Private Use Only
Raw.jainelibrary.org
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
इतनाही ज्ञान काफी हैं, बाकी तो सब आडम्बर हैं लोकरंजनके लिये क्योंकी (परंज्योति प्रकाशकः) जो परमआत्मज्योतिका प्रकाश होना हैं वही उनमसे उत्तम ज्ञान हैं बाकीतो पोथोंके बेगन है २८ भावार्थ:-आत्मज्ञानका
3जीतसंग्रह यथार्थ प्रकाश होनेपर स्वआत्मरूपमेंही रहना और आश्रवकों रोकनाहै वही उत्तमसे उत्तम ज्ञान हैं बाकीतो कालक्षेपकके लिये ठीक हैं, आश्रवो भव हेतुः सम्बरोमोक्ष कारणम् । एतेहमारमुष्टिज्ञानं अवरसर्वप्रपंच १ शुद्धात्मअनुभव विना, बंधहेतुशुभचाल, आत्मपरिणामेजेरम्या, यहीजआश्रवपाल २ सूक्ष्मयोधविनभव्यजन-जहोवेतत्वपरतीत, तत्वावलंबनज्ञान बिना नटलेभवभयभीत ३ तत्वतेंआत्मस्वरूपहे, शुद्धधर्मविण एह परभावागतचेतना कर्मग्रहछेतेह ४ मु०-स्तोकमप्यात्मनोज्योतिः पश्यतोदीपवद्धितम् । अंधस्यदीपशतवत परज्योतिनवह्यपि ॥२९॥ | श०-क्योंकि (आत्मनः) आत्मज्ञानका (स्तोकमपिज्योतिः) थोडाभी प्रकाश (दीपवद्वितं) दीपकज्योतिकी तरह वृद्धिको प्राप्तहुआ (पश्यतः) चक्षुवान् पुरुषके लियेतो बहुत है लेकिन (अन्धस्य) अंधे पुरुषके लियेतो (दीपशतवत्) सोदीपककी ज्योतिके प्रकाश होनेपरभी अन्धेराही रहता है क्योंकि वह अंधापुरुषहोनेपर (वद्यपि) नानाप्रकारकी वस्तुओंको नहीं देख शक्ता तैसें (परंज्योतिः) परम आत्मज्योतिके प्रकाशकों अज्ञानी पुरुष नहीं देख शक्ता | अर्थात् आत्मज्ञानसें वर्जित अज्ञानी पुरुष कभी हजारोंही ग्रन्थोंको पढलेवेतोभी आत्मज्ञान विना प्रकाश कभी नही | होता २९ भावार्थ:-क्यों कि आत्मज्ञानका थोडाभी प्रकाश दीपज्योतिकी तरह वृद्धिको प्राप्तहुवा चक्षुवान पुरुषके | लिये बहुतहै लेकिन अंधपुरुषके लियेतो कभी सो दीपककी ज्योतिका प्रकाश क्युनही होजावे तोभी अंधेराही
For Personal & Private Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥९॥
रहतेहै क्योंकि वह चक्षुही न होनेपर नही देख शकता तैसें परम आत्मज्योतिके प्रकाशकों अज्ञानी पुरुष कभी हजारोंही ग्रंथ पढलेवे और औरोंको उपदेश देवेतो भी कुछ नही मिलता-बैठसभामेंबहुउपदेशे आपभयापरबीना
जीतसंग्रह ममतादोरी तोरीनही उत्तमतेभयेहीना १ बडीवडी सभामेंबैठके वैश्याकी नाई खुसकरलेतेहै लेकिन आत्मज्ञान विना अंधाहीहै. दोहा-पण्डितऔरमसालची दोनोसमझतनाहि, दूजांको करैप्रकाश आपअंधेरामांहि १ गईवस्तुशोचेनहीं आयांहपनहोय शत्रुमित्रसमगिणे पंडित कहियेसोय २ कहनेका तात्पर्य यहीहै कि आत्मअनुभवज्ञानविना सब थोथेही है कि-पूर्वलेखलिखेलेई मसीकागलनेकांठो अपूर्वभावकहतहेपंडित बहुबोलेनोवांठो ३ इतिउपाध्यायजीयचनात् मु०-समतामृतमन्नानां । समाधिधूतपाप्मनाम् ॥ रत्नत्रयमयंशुई । परज्योतिप्रकाशतः ॥३०॥
शः-(समतामृतमग्नानां) समतारूपी अमृतकेविसें मग्नहुए योगीराज (समाधिधूतपाप्मनां) और समाधि ध्यानकर्के पापसे मुक्तहुआहै अंतःकरण जिसका और (रत्नत्रयमय) ज्ञान दर्शन और चारित्रमय (शुद्ध) शुद्धहुआ ऐसा महा पुरुषही ( परज्योतिः) परमउत्कृष्ट आत्मज्योतिको (प्रकाशतः) प्रकाशित करशक्तेहै, अन्यमेरे जैसे पुदलानंदीयो विचारे क्या करसकेगें ३१ भावार्थः-समतारूपी अमृत के विसे मगनहुआ योगीराज आत्मसमाधियोगसे अवश्यही पापसे मुक्त होकर रत्नत्रयमें लीनहुआ ऐसा महापुरुष अवश्यही परम उत्कृष्ट आत्मज्योतिको प्रकट करके Of निर्वाणपदको प्राप्तकरलेताहै ३०. मु०-तीर्थकरागणधरा । लब्धिसिद्धाश्चसाधवः ॥ संजातास्त्रिजगद्वन्द्याः । पर ज्योतिप्रकाशतः ॥३१॥
JainEducaticle
For Personal & Private Use Only
inneby.org
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचार
श-तीर्थकरागणधरा तीर्थकरो गणधरो[च और (लब्धिसिद्धाः साधवः) नानाप्रकारकी लब्धियोंसे सिद्ध अध्यात्मसाधुमहात्माओ आदि [परंज्योतिः प्रकाशतः] सर्वेपी परमआत्मज्योतिके प्रकाशहोनेपरभी हुये है इतनाही नहीं
Jeजीतसंग्रह ३|| लेकिन वह महापुरुषों (त्रिजगद्वन्याः संजाताः) तीनही लोकके विसे महापूजनीक वन्दनीक होगये है वह केवल |
आत्मज्योतिके प्रकाश होनेपरही हये है ३१ भावार्थ-तीर्थकरो व गणधरो नानाप्रकारकी लब्धियोंसे सिद्ध हुए है साधु महात्माओ तथा भरतादिक वह सर्व परम आत्मज्योतिके प्रकाश होनेपरही सिद्धहुए है इतनाही नही लेकिन वह महापुरुषों तीनलोकके विषे वन्दनीक प्रातःस्मरणीय होगये है सो आत्मज्योतिके प्रकाश होनेपर हुये है ॥३१॥ मू०-नरागंनापिचद्वेषं । विषमेषुयदानजेत ॥ औदासीन्यनिमग्नात्मा। तदाप्नोतिपरंमहः ॥३२॥
शब्दार्थ:-ऐसे सिद्धहए महापुरुषोंको (नरागं) नहीतों किसी रागहैं (नद्वेष) नहीकिसी द्वेषहै इसलिये [विषमेषु] अतिविषम घोरपरीषह आनेपरभी (व्रजेत्) दुःखकों नहीं लाकर समभावमें अपने आनंदसमाधिमें रहकर सहन करतेथे और औदासीन्यनिमग्नात्मा] सदैव उदासवृत्तिमें मगनरहते है [नदा तयही परंमहः] परमात्मपदकी (आप्नोति) प्राप्ति होतीथी ॥३३॥ भावार्थ:-ऐसे सिद्धहए महापुरुषोंको नहीतो किसी रागरहताहै
नही किसी द्वेष रहताहै इसलिये अतिअघोर परीषह आनेपरभी समचितसं अपने आनंद समाधिमेंही रहतेथे st सदा उदासवृत्तिमें आत्मध्यानके विसे मग्न रहतेथे तवही परमात्मपदकी प्राप्तिहोतीथी आजकल कलीकालके विसे |
मेरे जैसे (पुद्गलानंदीयो मोजमजा और नानाप्रकारमें मालताल उडानेमें और बनियोंको पत्थरोंसे शिरफाडानेमें
in Education
For Personal & Private Use Only
dainelibrary.org
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह ॥ १०॥
हुँसीयार होने परभी मोक्षकी इच्छा रखतेहै वह एक अच्छेराभूतही हैं कितनेक विचारे आत्मभाइयों मनकल्पित पंथ निकालके मानबडाई पूजा प्रतिष्ठामें गुलतान रहतेहै नहींतो कोई गुरुकी खबरहै नही कोई चेलाकी खबरहै अपने आपही पत्थरविजय लकडविजय गुलाबसुन्दर ज्ञानसुन्दर आदि कल्पितनाम अपने मनसें रखके मेरे जैसे धूतारे भोलीजनताको ठगतेहुये फिरतेहै बनियोंको तीनकोडीकाभी ज्ञान नही होता दृष्टिरागी बनिये कुछनहिदेखशते | मु०-विज्ञायपरमंज्योति-र्माहात्म्य मिदमुत्तमम् ॥ यःस्थैर्ययातिलभते । सयशोविजयश्रियम् ॥३३॥ (इदंपरमज्योतिर्माहात्म्यं) यही उत्तमसेंउत्तम और उत्कृष्ट आत्मज्योतिके माहात्म्यकों (विज्ञाय) जाननेवाला [यः] जोपुरुष [स्थैर्ययाति आत्मस्वरूपके विसे स्थिरीभूत रहते है महापुरुष (सः) वही [यशः] जस और (विजयश्रियं) विजयरूपी लक्ष्मीकों [लभते प्राप्त होते हैं ॥३३॥ दोहा-बाहेरभटकेजीवडा करेनघटमेंखोज । रत्नत्रयपामेनही लहै न आत्ममोज ॥१॥ अलखअरूपीआत्मा झलकेघटमेंजोत । अज्ञानी जाणे नही केसेंहोवेउद्योत ॥२॥
श्लोक-कुमारीनयथावेति पनिसंभोगसुखम् । न जानाति तथालोको योगिनांयोगजंसुखम् ॥३॥ अर्थात् जैसे कुमारिका अपने पतिके सुखकों नहीं जान शकती तैसें अज्ञानी जीवों योगीराजके समाधिरूपी आंतरीक सुखकों नही जान शकते दोहा-जडमेंआत्मधर्मनही जो मानसोमूढ । जडवस्तुमेंजडपणो यहपरमार्थगुढ ॥१॥ आत्मधर्म अरूपहै नयनहीलागेकोय । चरमनेणकरजोदेखिये सोसहुपुद्गलहोय ॥२॥ जडक्रियानीगहलमें आतमधर्मनहिलेश । | जपतपक्रियाकांडसे छुटैनहीकलेश ॥३॥ गाथा-क्रियामूहमतिजों अज्ञानी चालतचाल अपूठी । जैनदशाउनमेंनही
اجالانلامالند
Jnin Eitacationailnal
For Personal & Private Use Only
Ww.janeira
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
J
कहेसो सवही झूठी ॥४॥ परपरिणतिअपनी करमाने क्रियागर्वे गहलो उनकों जैनी क्यूं कहिये सोमूर्खमांहि पहलो | ॥५॥ ज्ञानसकलनय साधनसाधो क्रियाज्ञानकी दासी,क्रियाकरत धरत है ममता,आईगलेमें फासी ॥६॥ ज्ञानपछे किरीयाकही, दशवैकालिकवाणी ज्ञानगुणेकरी मुनिकह्यो, उत्तराध्ययन प्रमाण ॥७॥ अधिकोसर्वपातकथकी,अज्ञानी न जाणे चोज आत्मस्वरूपसमझ्याविना, जेमफिरेजंगलनारोझ ॥८॥ क्रियानयजेवालछै ज्ञाननयउजमाल मुनीनेसेववायोग्यते बोलेउपदेशमाल ॥२॥ देहनामहेलनीसारिखो मुझविणक्रियाधंध तीक्ष्णताजेज्ञाननी तेहजचरणअबंध ॥१०॥ अध्यात्मविनुजे क्रिया तेतनुमलतोले ममकारादियोगथी ज्ञानीएमयोले ॥११॥ इतियशोविजयजीउपाध्यायवचनात्
दोहा-बाहिरक्रिया कर्म है। अंतरक्रिया धर्म ॥ सुद्धजाणोसो आदरो। यही धर्मका मर्म ॥१॥ परस्वभावे बंध है। निजस्वभावे मोक्ष ॥यहीजआत्म धर्म है। जाणेकोइक दक्ष ॥२।। जडक्रियासे अतीत है । आत्मधर्मस्वरूप ।।। क्रियाकांडमें पचमरे। लहनआत्मस्वरूप ॥३॥ देहादिकतेंभिन्न है। चैतन्यरूपअरूप ।। अनुभवविनजाणेनही । | लाखकथेकोइस्वरूप । ४॥ योगक्रियाहै जडतणी । चैतन्यजडत्तात्तीत्त । मूरखनरसमुझे नही कैसेंसुखलहै मीत्त ॥५॥ सिद्धस्वरूपीआतमा । जाने ध्यानी राय ॥ यहीज मुक्तिमार्ग है। सदगुरूदियो बताय ॥६॥ मिटे उपाधी मोहकी। प्रगटे आत्म भान ॥ ज्ञानसहित क्रिया कही। चिदानंद भगवान ॥७॥ शुद्ध आलंबन लही। तजे अशुद्धता जेह ॥ आत्मअनुभवते लहैं । करी अज्ञानको छेह ॥८॥ अंतरदृष्टीज्ञानसे देखो आत्मराम ॥ जड पुद्गलसें भिन्न हैं। यहीज साचो नाम ॥९॥ विरला जाने तत्वकों। विरला तत्त्व सुनंत ॥ विरना जाणे आत्मा । विरला संत महंत ॥१०॥
in Ede
For Personal & Private Use Only
www.janelibrary.org
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्मविचार
शुद्धक्रिया बिन जीवडा । लहे न भवनो छेह ।। अशुद्ध क्रिया कर बापडा। डुवे भवजल तेह ॥१२॥
गाथा-नाणगुणेहिविहीणा । क्रियासंसार बहिणीभणिया ॥ धम्मरुएहवम्मिता नाणसमेंयादुजा ॥१॥ भावार्थजबतक आत्मज्ञानकी प्राप्ति नहीं होवे तबतक सर्वतरहकी क्रियाकाण्ड संसारकी वृद्धिके लियेहीहै क्योंकि शुद्धात्म स्वरूपको पहिचान बिना कर्म नाश नहि होते इसलिये सदैव निश्चय दृष्टि हृदयमें रखके शुद्धव्यवहारका पालन करना चाहिये ॥१॥ गाथा-निश्चयदृष्ठि हृदय धरीजी । जे पालैव्यवहार ॥ पुण्यवत ते पामसेजी । भवसागरनो पार ॥२॥ नित्थयमग्गो मुख्खो । व्यवहारो पुण्यकारणोवुत्तो ।। पढमोसम्बररुवो। आसवहेउतओबीयो ॥२॥ भावार्थ-शुद्ध निश्चय नयसें स्वस्वभावमें रहनेपरही मोक्ष है और जो व्यवहार है वह पुण्यका कारण है तैसेंही स्वआत्मस्वरूपमें रहनेपर संवर है और परस्वभावे वंह है गाथा-स्वपरविकल्पवासना होतअविद्यारूप तातेबहुरिबिकल्पमय भरमा जालअन्धकूप ॥१॥ वस्तुतत्त्वेरम्याते निग्रंथ तत्वअभ्यास तेहां साधुपन्थ तेणे गीतार्थचरणे रहिजे सुद्धसिद्धान्तरस्तोलहीजे ॥२॥ दोहा-स्यादवादगुण जे रम्या । रमतां निजगुणसंग ॥ साधुशुद्धते आत्मा । बीजा सहु द्रव्यलिंग ॥१॥ ढाल-मुनिवरतपसीअणगार । साधेपश्चमगतिदयाल ॥ विरमीसकल उपाधी भविय-णवन्दोरे मुनिपदजगजयकार ॥१॥ दोहा-नवविध भावलोचजबहोवे । तबदशमोकेशलोचजोवे ॥ यहीजिननी आज्ञा है। कोईकपालैमुनितेह ॥१॥ ज्ञानविनाछूटैनही । भवजलभयनीभीत ॥अज्ञानीजानै नही । कैसेंलहेसुखमीत॥२॥ मिटै मिथ्यावासना । तब लहैसमकितसुद्ध अज्ञानीजानै नही कैसेंलहैसुखबुद्ध ॥३॥ ढाल-दर्शनविन क्रिया नही लेखे । विन्दविणजेम
in Education
For Personal & Private Use Only
K
riainelibrary.org
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
संसारे सोइ ॥६॥ गाया-
विचार
ज्ञान अज्ञानी जीवांकाला होनेपर कुछ दुक्कर नहीं रूपही
अंकरें । दशमे नव अभेदछ । यह युक्तिजाणे कोई सन्तरे ॥४॥दोहा-रतनत्रयविनसाधना। निष्फल कहीसदीव ॥ भावचरणनिधानकों विरला जाणे जीव ॥६॥ गुणस्थानकफरस्या विना । समकिनलहेन कोइ ।। समकित विन
26 जीतसंग्रह जगजीवडा । रूलेसंसारे सोइ ॥६॥ गाथा-आत्गगुणरक्षणाते धर्म । स्वगुणविध्वंसना ते अधर्म ॥
आत्मा पूज्यहैं कि शरीर पूज्य हैं एसा भेद ज्ञान अज्ञानी जीवोंको नही होते आत्मका और शरीरका भेद ज्ञान होना अति दुक्कर है तोभी गुरुकृपा होनेपर और तत्वस्वरूपकी पूर्ण श्रद्धा होनेपर कुछ दुक्कर नही है आत्मज्ञानियों महापुरुषों इस शरीर संबंधी क्रियामें धर्म नही मानते हैं किंतु मनवचकाया योगसे भिन्न आत्मस्वरूपमेंही धर्म मानते है अर्थात् ज्ञानध्यानसें कर्मरूपी काष्ठको जलाके सिद्धपदकों प्राप्त करके परमानंद सुखके भोगी होना वही आत्मिक शुद्ध धर्म हैं लेकिन अज्ञानी बालजीवो क्या जाने आत्माको धर्म क्या है अर्थात् आत्मा चीजही क्याहै शरीर है वही आत्मा है आत्मा है वही शरीर है परन्तु आत्मा भिन्न हैं और शरीर भिन्न है ऐसा जिसको भेदज्ञान नहींहै लेकिन योगीमहापुरुषों इस शरीररूपी जडसें सदैव भिन्न मानके सुद्धात्मस्वरूपमें रहकर परमानंद सुख भोगते है सहज समाधिरूपी दरियावकी लहरीमें ऐसे योगीराजके समाधिरूपी सुखका वर्णन एकमुखस कैसें कहाजावै गाथा-जिनहीपाया तिनहीछुपाया न कहेकाफूके कानमें ताली लगी जब ध्यानकी तब जाने | JE कहु शानमें क्योंकि । वह समाधिरूपी सुख योगीराजका बचनात्तीत होनेपर अलौकिकहै योगीराजके समाधीरूप सुखके आगे इन्द्रादिक देवोंके सुख एकविन्दुमात्रभी नहीहै ऐसा आत्मिक सत्यसुखका भोगी योगीराज इन्द्रादिकके
in Education
For Personal & Private Use Only
1-JErainelibrary.org
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
॥ १२ ॥
Jain Education
पुलीक सुखकी कभी इच्छाकरे सही नही नही प्रत्यक्षतो क्या लेकिन स्वप्नमेंभी नही करे क्योंकि योगीराजके ध्यानरूपी समाधिसुखके आगे वह पुद्गलीक सुख चीजही क्या है योगीराजको समाधिरूपी सुखके आगे वार तिथी मासका भी ख्याल नही रहते कि अमुक मास वार तिथी जारही है क्योंकि समाधिरूपी सुखके आगे कुछ | ख्यालही नहि रहता जब योगीराजको अपने शरीरकाभी ख्याल नही है तब बार तिथी मास आदिका ख्याल कैसें रहै कभी प्रारब्धयोगसे कोई उपाधी आ जाये तोभी शुद्ध अंतर दृष्टिसें आत्मभावनाकी उच्च कोटिका त्याग करके पुलीक विषयसुखमें लिप्त नही होते (गाथा) लाभालाभे सुखेदुःखे जीवितेमरणे तथा स्तुतिनिंदाविधाने च साधवः समचेतसः ॥ १॥ भावार्थ - लाभमें अलाभमें सुखमें और दुःखमें तैसेही जीने और मरणमें तथा स्तुति और निंदामे जिस महापुरुषका सम चित्तपनाहै वही ज्ञानी महापुरुष है ॥ १॥ अथध्यानसमाधिपद || मेरी सुरती अन्तरमें लागीरे तेहांतो झगमग ज्योति जागीरे मेरी एटेक झिरमर झिरमर मेहला वर्षे चेहु दिश दामनी चमकेरे मेरी ॥१॥ धान न भावे निंद न आवे सुखनी सुमारी नेत्रे छाइरे मेरी ॥२॥ जेहांतेहां देखें एकज भाषे बीजो नजर न आवेरे मेरी | ३ | आत्म अनुभवनी छायामांही हुंतो भूले गयो काया मायारे मेरी ॥ ४ ॥ सुमति प्रियापासे जो खेले कुमति कुबजा भागीरे मेरी ||५|| सोहंसोहं रटमा लागी तेहांतो अनहद मुरली वाजीरे मेरी ||६|| आनंद घन कहै विरला योगी ध्यान समाधि काई देख्यारे मेरी ॥७॥ शुद्ध आत्मदृष्टिवाले महायोगी पुरुष शुद्धात्मस्वरूपमें प्रवेश करके अन्तर समाधिसुखरूपी आनंदसें वाणीद्वारा कभीकभी मधुर गायनभी करते है योगीराज के मुखद्वारसें निकले हुये
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ॥ १२ ॥
www.janelibrary.org
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
होशके क्योंकि शब्दरूपी पदों शब्दमें बनेहुयेहै लेकिन आत्मस्वरूपतो पदातीत है और अनुभवगम्य है फेर E| अकथ है विशेष देखनेकी जिसको इच्छाहुवेतो श्रीआचारांगजीसूत्रके पाचवे अध्ययन के छठे उद्देशेसें देखो आत्मा- ||JE|जीतसंग्रह काशुद्धस्वरूप शब्दरूपी जडसें सदा भिन्नहै क्योंकि शुद्धात्मद्रव्यका लक्षण जडरुपी शब्दसे कहाजावै ऐसा नहीं है उपचारसें और व्यबहारनयसें कहा गया है गाथा-अकथकथतेरी कौनजाने चतुरसनेहीनयवादी नयपक्षग्रहीने झूठाझगडाठाने ॥१॥ इतिचिदानंदवचनात् गाथा-शुध्यानएमआपनो तुझसमापति औषधसकल पापनुं द्रव्य अनुयोगसम्मति प्रमुखथीलही भक्तिवैराग्यज्ञान धरिये सही। भावार्थ:-जो निजशुद्धात्म स्वरूपमें स्थिरीभूत रहनाहै वही धर्मध्यान है वहीसब पापोंसे मुक्तहोनेके लिये परम सिद्धऔषधि है और जहांपर शुद्ध आत्म उपयोग है वहां परही शुद्ध आत्मधर्महै वही शुद्ध मोक्षका रस्ता है भक्ति वैराग्य और ज्ञान यह तीनोंही मोक्षमार्गके | साधन है और जो सम्यक्दर्शन है वहांपर भक्तिरागका मुख्यपनाहै श्रेणिकराजाकी तरह इस कलिकालके विषे भक्तिरागका स्वरूप बहुतही स्वल्प देखलाताहै देवगुरुकी भक्ति करनेसें अवश्य ज्ञानकी प्राप्ति होतीहै श्रेणिकराजाका वीर परमात्मायें भक्तिरागका कितना पूर्ण प्रेमथा और भक्तिरागसेंही श्रेणिकराजाका कार्यसिद्धहुवा है देशव्रती और सर्वव्रतीवालोंके लियेभी ज्ञानवैराग्यताकी मुख्यताहै जिसमें भी ज्ञानकीतो पूर्णमुख्यताहै क्योंकि ज्ञानविना वैराग्य नहीं ठहर शकता है गाथा-ज्ञानदशाजेआकरी तेचरण विचारो निर्विकल्पउपयोगमें नहीकर्मनोचारो॥१॥ ज्ञानरहित जडजीवों पडिलेहना प्रतिक्रमण जपतप व्रतं पञ्चख्खान तीर्थयात्रादि करतेहै वह सर्वपुण्यरूपी आश्रवहीहै
Pladaoकामकाज
15
JainEducations
For Personal & Private Use Only
H
elibrary.org
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
अमृतमय वचन श्रवण करनेसे और इसका ध्यान पूर्वक मनन करनेसे आत्माको कल्याण कर शकते है और आस्माको कल्याण हुवा जब संसारका परिभ्रमण करनेका बख्त नहिं रहेता, इसलीये अध्यात्मदृष्टिवाले महायोगीका | बचन सुणना, यह संसार अनेक पौद्गलिक वस्तुसे भरा है इसमेंसे पार उतरना मुश्कील है तोभी अध्यात्मीका | संग हुवा जब मार्ग सुगम है इसलीये भव्यात्माको अध्यात्ममें रटन करना,
भावार्थ:-शरीरआश्रये ज्ञानावरणादि अष्टकर्म और आदिशब्दसे धन धान्य स्त्री पुत्रादि सर्वपुद्भलीक पर्यापहै तैसेंही मिथ्यात्व धर्मव्यवहारस कहाजाताहै लेकिन निश्चयदृष्टिसें देखाजावे तो वह सर्व पुद्गलीक पर्यायहै तैसेंही मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानक और एकेंद्रियादि सर्वजीवोंके स्थानक पुद्गलके संयागसें कहलाते है परन्तु ज्ञानदृष्टिसें देखाजावेतो वह सब आत्मस्व स्वरूपसे सदैव भिन्नही हैं क्योंकि उपाधि रहित शुद्धआत्माको कोइभीकार्य सिद्ध करना बाकी नहि रहता आत्माका सिद्वकार्य आत्मा ही होताहै दूसरेतो कारगमात्रहैं ऐसा अपूर्व रहस्य ज्ञानी बिना कौन जानशके अर्थात् ज्ञानी बिना परिपूर्ण आत्मद्रव्यका शुद्धस्वरूप कौन कहनेवालाहैं आत्मद्रव्यके विषे कोईभी प्रमाणनय निक्षेप युक्ति लगे ऐसा नहीहै कि आत्मा ऐसा है वहतो अनुभव गम्यहैं | गाथा-अलखअगोचरअनुपमअर्थनो । कुणकहीजानेरेभेद ।। सहजविशुद्धारेरेअनुभवविणजे। शास्त्रतेसघलारेखेद | ॥१॥ कहनेका तात्पर्य यहहै कि आत्माका स्वरूप अति सूक्ष्म और वचनातीत है अर्थात् वचनातीतहोनेपर आत्माका स्वरूप वाणीसें कैसें कहाजावै क्योंकि जो शब्द है वहतो जडरूप है इसलिये जडरूपीशब्दसें आत्मस्वरूपका कथन
هه وال لاي لالالالالالا
in Education
For Personal & Private Use Only
www.janeiro
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
२ आणाही जपतप आणासेंही संयम आणासेंही दानआदिक फलदायक है परन्तु भगवानकी आज्ञाविना जो धर्म | अध्यात्म- JE नेम व्रत पञ्चख्खान मानतेहै वह केवल घासके पुलेके समानहै ईसलिये आणामें ही धर्मकहा है ॥११॥ अव द्रव्य और विचार भावमें कितना अंतर है सूत्रपाठः-मेरुस्ससरिसयवस्सय जित्तिय मित्तंत अंतरंहोइ दवत्थय भावत्थय अंतरमिह॥१४॥ तित्तियं ॥२।। भावार्थः-मेरु पर्वत और राईके दानेमें जितना अंतर है इतनाही अंतर द्रव्य और भावमें हैं ॥२॥ संसा
रकी असारताकेलिये गाथा-भमतांआससारमां दुलहोनरभवलाधोरे छांडीनींदप्रमादने आपस्वार्थसाधोरे ॥३॥ भाःहे भव्य इससंसारसागरके विषे एक एकयोनिके विषे यह जीव अनंबर अर्थात् लक्षचोराशी योनिके विषे परिभ्रमण करते हुये अतिदुर्लभ नरभव प्राप्त हुआहै इसलिये नींद और प्रमादको छांडके अपनास्वार्थसाधना चाहिये क्योंकि वारंवार रत्नचिंतामणिके समान मनुष्यभव और देवगुरुधर्मकी सामग्री प्राप्तहोनी अतिदुर्लभ है प्रमादकेवसीभूत हुए श्रुतकेवलियों नर्क निगोदमें रूलरहेहै इसलिये ज्ञानीने कहाहै कि हे भव्य अबनो चेतो ३ गाथा-सामग्रीसर्वधर्मनी । एलेंजेनरखोवेरे ॥माखीनीपरेहायते । घसतांआपविगोवेरे ॥४॥ भावार्थ:-जो पुरुष सर्वधर्मकीसामग्री पाकर मिथ्यात्वपनेसें हारजातेहै वह पुरुष मधमाखीकी तरह अपना दोनों हाथ अंतसमे घसतेहुए अतिपश्चात्ताप करते हुये अपनी आत्माको नरक निगोद में ले जातेहै वहांपर नानाप्रकारके छेदन भेदनकी मार खाते है यतः पप्पासंपरचोनही ददोकियोदर ॥ लाला लागेरह्यो ननोकियोहजूर हाथघसे इआणे जिभेतालूंदीध मरणवेलायेसांभरे" हायमधर्मनकीध ॥२॥ दृष्टान्तगाथा-जानलईवयुक्तिमं जेमकोईपरणवाजावेरे।लग्नवेलागई निंदमें पछीघjपछिताय
Pawade
For Personal & Preise Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
आश्रवकी रुकावट विना संघर नही और संबर बिना मोक्ष नही मोक्षविना सुखनही जीव भटके च्यारं खान ऐसा योगकी सत्तरमी वीसीमें हरिभद्रसूरीने कहा है इसलिये आत्मज्ञानकी प्राप्ति विना सर्वतरहकी क्रियाकांड अंकविनाकी शून्यकी तरह निष्फलहीहै गाथा — कर्मकठिनकठदाहवा । ध्यानधरुंचित्तलाय ॥ अन्तरात्महोयके । भर्जुनिरंजनराय ॥ १ ॥ अष्टांगयोगेकरी | साधे मोक्षदयाल ॥ ते सद्गुरुनाचरनमां । वन्दन करूं तिहुँ काल ॥ २ ॥ | सिद्ध गतिसाधन भणी । सावधान हुयाजेह || तेमुनिवरपदवदतां । निर्मल होवे देह |३| एसें पञ्चम गतिके साधक सम्यक्वान मुनिका आयु वैमानिक देवों सिवाय दूसरी गतिका बंधनही पडते ३ अब कहते है कि संघ किसकों कहना सूत्रपाठः सुहशीला ओसच्छंदचारिणो वैरिणा शिववहस्स आणाभगओ बहुजणा ओमाभगह सिंधु ॥ १ ॥ है गौतम ! सुखशैलिये याने पुद्गलानंदियो अर्थात् पंचइन्द्रियोंके विषयसुखमें स्थापन करी है अपनीदृष्टिको फेर वीतरागकी आज्ञाभंगरूपी मसीका तीलक करके स्वच्छंदपणेसें विचरनेवाले अर्थात् अपनी इच्छा के अनुसारे चलनेवाले यह मोक्षमार्गके शत्रु भूत जिन आज्ञासें भ्रष्ट ऐसें कभी बहुतजन होवे तो भी हे गौतम उनको संघ | नहि कहा जावै ॥ १ ॥ तब हे भगवन् संघकिसकों कहाजावे सूत्रपाठ: - जहतुसखण्डणमयमंड गाई सुन्नरन्नमिविहलाई तहजाणसुआणार हियं अणुगणं ॥४॥ भावार्थ - जैसे किणबिनाके तुसका खंडन मुडदेको अलंकारोसें भूषित करना और सून बनमें बिलापकरना तैमही वीतरागकी आज्ञाविना सर्वधर्म नेम क्रिया अनुष्ठान निष्फलही है. सूत्रपाठः आणाइतवोआणाइ संजमोतहदाणमाणाएं आणारहिओधम्मो पल्ला लल्लूवपडिहाए ॥१॥ भावार्थ - त्रीतरागकी
For Personal & Private Use Only
जीनसंग्रह
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
अध्यात्मविचार
लियेही अर्थात् च्यारगतिरूपी बंधिखानेसें भव्यजीवोंको मुक्तहोनेके लिये वही सुगमसे सुगम रास्ता ज्ञानीने बतलायाहै एकसल आत्मज्ञान और दूसरा शुद्ध व्यवहार यही शुद्धमोक्षका रास्ताहै (ज्ञानक्रियाभ्योमोक्षः) JE जीतसंग्रह क्रियाकष्टभी नालहै भेदज्ञानसुखवंत याविनबहुविधतरकरे तोभीनहिभव अंत॥१॥भेदज्ञानसेंही सबदुःखोसें ॥ १५ ॥ जीवमुक्तहोशक्ताहै इसलिये दरेक भव्ययाणीकों विचारना चाहिये कि मेरा सत्यस्वरूप और सत्यधर्म क्या है | और मेरा कर्तव्य क्याहै ऐसीसत्यस्वरूपमय भावना होने पर अवश्यही आत्माका सत्यस्वरूप प्रगट होता है जैसा बीज बोते है वैसाही वृक्ष उत्पन्नहोतेहै इसतरेसें जैसे जैसे जीवोंके परिणाम होतेहै वैसेंही पुण्य पापरूपी फल लगतेहै इसलिये सर्वतरहके शुभाशुभ विचारोंको छोडकर एक शुद्धात्म स्वरूपकाही ध्यान करना चाहिये जो शुद्धात्मका ध्यान है वही व्रत पच्चख्वान है वह शुद्धचारित्र है वही सम्यक्त्वदर्शन है
दोहा-अशुद्ध भावसें बंध है। शुद्धभावसे मुक्ति ॥ जो जानेगतिभावकी । यहीजसाचीयुक्ति ॥१॥
अब कहते है कि पुरुषार्थहीनपनेका विचार करनेपर क्याहोनी होती है जो मनुष्य सदैव ऐसा विचार करते JE है कि मैं पूरापूरादुःखी हुं मैं रोगी वेमार हुं मैं अशक्त हुं अबतो मेरी अवस्था वृद्ध होगई है अब में क्याकलं अवतो मैं परवश हो गयाहुं अब मेरा साहेक कौन है इत्यादिक पुरुषार्थ हीन पनेका विचार करनेपर वह पुरुष हीनबायेला बनके नानाप्रकारसे मानसीक दुःख भोगते है परन्तु जो वीर पुरुष होते है वह ऐसा विचार करते है कि में सदा सुखी हुँ मेरा शरीर नीरोगी है में अनंत शक्तिवालाहूं मेरे पास ज्ञानरूपी धनका. अखूट खजाना भराहुआ है
JODCDDDDDDDDINDw
For Personal Price
Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
pal॥३॥ एमजाणी भविपाणीया चेतोचतुरसुजाणरे । एवो अवसरनामिले भाखेकेवलनाणीरे ॥४॥ सूक्ष्मबोधअध्यात्म- विनभव्यने न होवेतत्वपरतिच॥ तत्वालम्बनज्ञानबिन टलै न भवभयभीत ॥ ५॥ भावार्थ:-कोटानकोटिग्रन्थोंके विचार | पढने परभी जो सूक्ष्म आत्मतत्वज्ञानकी प्राप्ति नहीं होवे अर्थात् जबतक आत्मज्ञानका बोधनहीं होवे तबतक
जीतसंग्रह सत्यासत्य धर्मकी परतीत नही होशके क्योंकि तत्वावलम्बन ज्ञानविना भवभयकीभीति दूर नही होवे ५ श्रुत| ज्ञानने भाजै मननो शंसय गाथा-अलखअगोचर अनुपम अर्थनो कुणकहिजाणेरेभेद सहजविसुधारेरेअनुभवविणजे शास्त्रते सघलारेखेद ॥१॥ तत्वतेआत्मस्वरूप है शुद्धधमपणएह परभावागतचेतना कर्मग्रहछे येह ॥२॥ भावार्थ:-आत्मस्वरुपकी पहिचान करके जा स्वरूपमें रहनाहै वही आत्मतत्वहै और वही आत्म धर्म, परंतु स्वसभावकों छांडके परभावमे रक्त रहनेपर यही आत्मा कर्मकों ग्रहण करके स्वतःही व्यवहार नयसें बंधीजरहा २ गाथा-आत्मज्ञानविन जे जे कथा बोतीबालकचाल बाललीला धूलीसमो जागोयबाचाल ॥३॥ | भावार्थ:-आत्मज्ञानविना केवल जो क्रिया हैं वह बाललीलाके समानही है अर्थात् आत्मज्ञानरहित जो जो कथा कीर्तन, वहतो केवल लोकरंजनके लिये बाललीला धूलीके समान हैं ॥ ३ ॥ गाथा-रंगरागनेकानीकथनि । २६ | कहैनहीसंयुता ॥ उपदेशी वैराग्यअनुभवी । अदभुततेअबधूता ॥४॥ सर्वसूत्रसिद्धान्तोंके पठन पाठनका सार यही हैं कि आत्माके सत्यस्वरूपकी पहिचानके लियेही, इसलीये जो अध्यात्मज्ञानहै वह आत्मस्वरूपकों प्रगटकरके देखलाताहै इसलिये आत्मकल्याणके लिये उत्तमसे उत्तम साधन अध्यात्मज्ञान सर्वज्ञने कहा, मोक्षसुखके।
dinint Educati
o n
For Personal & Private Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह |॥ १६॥
आयुवाला विचारा मरके सीधा सातमी नारकीमें चलाजाताहैं हा हा देखो अशुद्ध परिणामोंकी गति जब दोघडीकी | आयुवाला अशुद्ध प्रणतिसें सातमीनर्कमें चलाजाता है तब अन्यजीवोंकी क्यागति जन्मपर्यंत क्याक्या अशुभकर्म करते है अर्थात् जन्मपर्यंत कितने कुकर्म कियेहैं ईसलिये हे परमात्मा मेरे जैसे जीवोंकी क्या दुरदशा होगी। धिक् धिक है मेरी आत्माकों ऐसा शुभविचार करनाचाहिये
दोहा-महादुःखकाबीजहै । अशुभरूप परिणाम || ताकेउदयअनंतदुःख । भुगतेआतमराम ॥१॥ भावार्थ:-जो अपने शुद्ध स्वभावमें रहना हैं वहीं आत्माका मुख्यगुण और स्वभावहैं परन्तु अज्ञानतासे और मोह मिथ्यात्वसें आत्मा मलिन हो रहा हैं इसलिये अपनी आत्मा आत्मिक सुख भूलके इन्द्रियों जनित विषय भोग विलाषमें लंपट होने पर चतुर्गतिमें अनादि कालसें भटक रहा है परन्तु जिसदिन यह आत्मा शुद्धस्वभावसे रागद्वेष मोहादि मलसे रहित होकर अपने ज्ञान ध्यान स्वभावमें लीन होगा तब आपसेंआप पुद्गलीक सुखदुःख पुण्यपाप आदि कर्मोंसे मुक्तहोकर यही आत्मा आत्मिक अनन्त अखय और अन्यायाध सुखका भोगी आपसे आप होजावेगा तब रागद्वेष मोह शोक चिन्ता भय जन्म जरा और मृत्यु आदिका दु:ख केवल अज्ञानतासेंही आत्मा भोगरहाहै उपरोक्त सब दुःखोंसे मुक्ति होनेकेलिये एक अध्यात्म ज्ञान और दूसरा आत्मध्यानही ज्ञानीने कहा, क्योंकि आत्मज्ञानका यथार्थ प्रकाशहोनेपर पूर्वकेबन्धे हुये अशभ प्रणनिसें अशुभ कर्मोकेबन्ध वह आपसेआप नष्ट होजाते हैं जैसे सूर्यके प्रकाश होनेपर तिमीरआपसे आप नष्ट होजाते हैं ॥१॥...
Jan Education
For Personal & Private Use Only
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
सर्वकार्यमें मेरी सफलताही होगी ऐसे दृढ विचार करनेवाले वीरपुरुषकों वैसेही फल मिलते है अहिंसा
सत्यवचन शुद्धब्रह्मचर्य और शुद्धआत्मविचार करनेपर आत्माके सर्वगुण आपमें आप प्रगट होजाते ह सदैव अध्यात्मविचार
सद्गुणोकाही विचार करना चहिये गाथा-जंम्बसेंइजीवो गुणं च दोष चइत्थंजम्ममि तंपावेइपुण्णभावे अम्भासेण पुणोतेण ॥१॥ भावार्थ:-जे गुण या दोष इस भवमें तथा भवान्तरमें कियेहो वैसेही फल प्राप्त होते हैं पूर्वअभ्याससे अर्थात् पूर्व संस्कारसे कर्मकेबंध तथा नाश प्रणामसेंही होते है गाथा-परसंयोगथीबन्धछेरे परवियागेमोक्ष तेणेतजीपरमेलावडोरे एकपणो निजपोषरे ॥१॥ कारणजोगेहोबंधेबंधने कारणमुक्तिमुकाय आश्रवसंबरनाम अनुक्रमे हेयउपादेयसुणाय ॥२॥ इसलिये हलते चलते उठते बैठते मोते खाते पीते आत्मउपयोगबिना समयसमयकेविषे नानाप्रकारके कर्म आरहेहै इसलिये उपाध्याय जीभी कहगये है गाथा-भिन्नदेहीते भाविये ज्युंआपहीमें
आप स्वप्नातरनही होवे देहांतर भ्रमताप ॥१॥ शुद्वात्म स्वरूपमें रमणहोनेपर कर्म आपमेआप नष्ट हो जाते है गाथा-परपरणतिपरसंगसे उपजतविणसतजीव मिटेमोहपरभावको अवलअवांधिशिव ॥१॥ आत्मारामानुभवभजो
तजोपरतणिमाया एहेसार जिनवचननो वलेयह शिवछाया ॥२॥ यह आत्मा जब अपनेस्वरुपसे गिरके परमें Jफसताहैं अर्थात् अपने उपयोगसे शन्य होजाता है उसी समय राग द्वेष और मोहरूपी फांसीमें फसकर कर्म
रुपी जालमें मकडी जालकी तरह आपसे आप बंधीज जाता है अशुद्ध परिणामोंसें तंदुलीये मच्छकी तरह तंदुलीयमच्छका शरीर चावलके दाणेजितना छोटा होता है लेकिन अशुद्ध रोद्र परिणाम ध्यानमें दोघडीकी
ए
in Education
For Personal & Private Use Only
CLenelibrary.png
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥ १७ ॥
Jain Education
भावना हैं और जो अपनी आत्माके सच्चेमित्र बनकर अज्ञान मिथ्यात्व रागद्वेष मोह कषायको त्याग करके सम्यक् ज्ञान सम्यग्दर्शन और शुद्धचारित्रका पालन करके नरकादि दुःखोंसें जो अपनी आत्माकों बचाना है यह भावमैत्री भावना है उपरोक्तच्यार भावनाएं सदैव अवश्य करके समकिनगुणकों प्रगट करनेवाली हैं। आर सम्यग्गुण प्रगट होनेपरही मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है इसलिये सम्यक्वीन नवपूर्वी अज्ञानी कहवाय गाथा - विना जेहथी ज्ञानअज्ञानरूपं चारित्रं विचित्रं भवारण्यकूपं ॥ १ ॥ ढाल - जेविणनाण प्रमाण न होवे चारित्र | तरुन विफलियो सुखनिर्वाणनजेविणलहिये समकितदर्शनवलियोरे भ० ॥ १ ॥ गाथा - दुःखियाप्रतिकरुणावरु दुश्मन तिनध्यस्थ शुभ भावना यह प्रभु मुझ हृदयमें सदा वसो ||१|| इसजीवात्माको अनादिकाल से सम्यक्दशेन ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होने परही जन्म जरा मरणादिकके अनंते दुःखभोगने पडते हैं जैसें सूर्य निमि रकों दूरकरके सब जगत्को प्रकाशमय करदेत हैं तैसें सम्यक्रूपीगुण प्रगट होनेपर मिथ्यात्वरूमि आप सेआप नष्ट हो जाते हैं सम्यक्वानजीव जहांजावै तहां आनंदही पाते हैं सम्यक्वान पुरुष कभी नरक में चला जावे तो भी देवगति अधिक सुखी हैं परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव कभी स्वर्ग में चलाजावे तो भी नरकसें अधिक .:खी है सम्यक्रवान् समझता है कि सुख दुखमेरा धर्म नहीं हैं यहनो शुभाशुभ कर्मोको पर्याय है में दृष्टाज्ञता
ऐसा ज्ञान विचार के सनकितधारी जीव शांती पूर्वक शुभाशुभ कनके फल भोग लेना लेकिन भर्त रौद्र ध्यान नहीं करता और मिथ्यादृष्टि जीवकों कभी बारहवें देवलोकके सुख मिल जावै तोभी निध्यादृष्टि
For Personal & Private Use Only
जीनसंग्रह ॥ १७ ॥
Liainelibrary.org
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
दोहा-वारवार प्रभुवंदना शुद्धभावसे होय कारणयोगे कार्यनी मिद्विनिश्चयजोय ॥१॥ अब कहते है कि मोक्षप्राप्तिके लिये मुख्य कारण सम्यदर्शन है और सम्यक्दर्शनकी प्राप्तिके लिये मुख्य कारण च्यार भावनाऐंहै | दोहा-गुणीजनको बंदना अवगुणदेखमध्यस्थ दुःखी देखकरुणा धरे मैत्रीभावसमस्त ॥१॥ प्रमोदभावना गुणीजनोंकु JE जीतसंग्रह
देखकर बहुतहर्षितहोना मध्यस्थ भावना इसलिये अपनी निंदा करने वालेहो अपना बुरा करनेवाले हो नोभी | उस मध्यस्थ दृष्टि रहना चाहिये परंतु मनवचनकायासें भी उन्हों- द्वेषनहीं करना चाहिये तैसेंही सुखकी प्राप्त होनेपर हर्षितहोना और दुःख आनेपर दिलगिर नहीं होना चाहिये मम्यवान जीवकों सदैव सर्वजीवों समदृष्टि समचित्त रागद्वेषरहिन समभावमेंही रहना चाहिये ॥२॥
दोहा-दुर्जनकुरकुमारत्तो । पण क्षोभ नहीं मुझकोय ।। मीम्यभावरहेमदा । ऐसी परिणतिहोय ॥१॥
भावार्थ- अथ करुणाभावना दुःखीजनोंको देखके करूणा दया लाणा अर्थात शरीरादिक और मानसिक | दुःखकों दुरकरना यह द्रव्य करुणा हैं और जो क्रोध मान माया लोभ तथा मिथ्याभावका त्याग करना हैं
वह भाव करणा है आत्माके च्यार भाव प्राण है उनको बचाना जिसदिनमें स्वपर आत्माकी भावदया | पालंगा वह दिन मैं धन्य मागा रागद्वेष मोहादिसें जो अपनी आत्माको बचाना है यही भावकरुणा है. | अथमैत्री भावना-सर्वजीवोंको अपनी आत्माके समान समझके कोईभीजीवकों तकलीफ नही देनी किन्तु मजीवोंको अपने मित्रकी समान समझके मवका भला चाहना यह स्वपर द्रव्य याने व्यवहारमें मैत्री.
in Education International
For Personal & Private Use Only
wwnw.jainelibrary.pra
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचार
| कहै लखे न ब्रह्मस्वरूप मगनपर द्रव्य में मिथ्यावंतअनृप ॥१॥ जो सिद्धसमान आत्माको विषयभोगकी इच्छाहोती अध्यात्म- | हैं वह केवल भोगावली कर्मकी खुजली विकार है भोगावली कर्म भोगे बिना तिर्थकरोभी नही छूट शकते,
JE जीतसंग्रह श्लोकः-उदयतियदिभानुः पश्चिमायां दिशायां प्रचलतिदिमेरुः शीत्ततांयाति वह्निः विकसतिदि- ॥ १८॥ ॥१८॥
| पञपर्वतारोशिलायां तदपि न चलत्तीयंभाविनी कर्मरेखा ॥१॥
शब्दार्थः-(यदि) कभी (भानुः) सूर्य [पश्चिमायांदिशायां] पश्चिम दिशामें (उदयति) उदय होजावै [यदि] कभी [वह्निः] अग्नि [शीततांयाति शीतलहोजावे (यदि) कभी (पर्वताग्रेशिलायां) पर्वतकेअग्रभागपर याने शिला (विकसतिपञ) पद्मनामकेपुष्प प्रफुल्लितहोजावे तदादि] तोभी (भाविनी ईय) अवश्यहोनेवाली यह (कर्म रेखाः)। कर्मकी रेखा कभी चलित नही होती ॥१॥ भावार्थः-सूर्य पूर्वदिशा छोडके कभी पश्चिम दिशामें उदय नही होते किन्तु कभी होबी जाये और मेरु पर्वत कभी चलित नहीं होता वहभी कभी चलित हो जावे अग्नि कभी शीतल नहीं होती बहभी कभी शीतल हो जावै और पर्वतके अग्रभागपर अर्थात् शिला पुष्प कभी प्रफुल्लित
नही होसके लेकिन वहभी कभी दैव योगसे होजावै तोभी अवश्य होनेवाली कर्मकी रेखा कभी चलित नही र होती ॥१॥ इतनेपरभी ज्ञानी महापुरुष कभी विषयभोगोमें लिप्त नहीं होते रसना इन्द्रियकी तरह अलि
प्तही रहते हैं अपनी आत्माके सिवाय और कोईभी पदार्थमें राचे माचे नहीं इसलिये ज्ञानीको कर्मोका
in Education
For Personal & Private Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
DET
अज्ञानतासे सरे देवोंकी ऋद्धि अपनेसें अधिक समझके ईर्षा द्वेष तृष्णाके वशीभूत होकर महादुखसे पीडित अध्यात्म-८ होकर अर्तध्यानसे मरके तीर्यश्च योनिमें उत्पन्न होकर विष्टाभक्षण करते हैं ऐसा समझके सम्यक्वान जीवकों विचार
| दुख ने रभी सम्यक्सें चलित नहि होना चाहिये क्योंकि सुखदुःख आत्मिक धर्म नहीं हैं शारीरीक धर्म है | ऐसी भावना जो भव्यजीव छ महीना तक अखण्डधारासें हृदयमें रखेतो उसजीवको अवश्यही सम्यगर्श
नकी प्राप्ति हो शकेन संदेह और सम्यकगुणकी प्राप्ति होने पर अवश्यही सिद्ध पदकी प्राप्ति है अर्थात् सम्यग्दर्शनकी | प्राप्ति होनेपरमोक्षसुखकी प्राप्तिस्वयं सिद्धहीहै ऐसी कल्याणकारी भावन.ऐं ज्ञानीने भव्य जीवोंके कल्याणके लिये देख | लाइहैं अनंते जन्मजर मरणादिकके दुःखोंसे मुक्त होनेके लिये ज्ञानीने कही है इसलिये इस भावनाएं को वारंवार विचारना
वारंवार मनन करना पठन पाठन करना जो व्यवहार सम्यक हैं वह निश्चय समकितका कारण हैं और निश्चयमें देवगुरु | अरु धर्म अपनी आत्माही है आत्मा स्वयं सिद्धरूपही है क्योंकि आत्मा शरीरादि सर्व जड पदार्थोंसे सदा भिन्नरूही हैं जैसे सिद्धोमें अनन्तगुण रहे हुये हैं वैसेही गुण मेरी आत्माके विषे रहें हुए हैं तुं और नही मैं ओर नही ऐसा समझके और रागद्वेष रहित होकर जो आत्मज्ञान ध्यानमें लीन रहना वही चारित्र वही तपश्चर्या और वही योग हैं आत्मस्वरू
पकी जो पूर्ण श्रद्धा होना बह निश्चय समकिन दर्शन है और आत्म स्वसरूपमें रम ग करणा है वह निश्चय चारित्र Bहै और जो इच्छाका रोध करना है वह निश्चय तपश्चर्या है मेरा स्वरूप सदा ज्ञान दर्शन और चारित्रनय अरूपी है
और जो मेरे स्वरूपसे सदा भिन्न जड पदार्थ है जिसको अपना समझना हैं वही मिथ्यात्व हैं गाथा-वहिरात्मताको
Inn Education
For Personal & Private Use Only
AFMainelibrary.org
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अब सम्यक्के अष्टलक्षण गुण बतलाते हैं अध्यात्म-136
दोहा-करुणावात्सल्यसज्जनता । आत्मनिंदापाठ ॥ समताभक्तिवैरागता । धर्मरागगुणआठ ॥१॥ विचार
भावार्थ:-सर्वजंतु करुणा सर्वजीवोंके साथ मित्रता गुणानुराग अपनी निन्दा अपनीभूलके लिये पूर्ण पश्चासाप सर्वजीवोंपे समभाव तत्वज्ञानकी पूर्ण श्रद्धा संसारी पुद्गलीक विषयसुखोंसे उदासीनता रागद्वेष रहित और धर्म तथा धर्मी सच्चा प्रेम यह अष्ट गुण समकितके कहै अर्थात् यह अष्टगुण समकितवान जीवमें पावै । ___ गाथा-चित्तप्रभावनाभावयुत । हेय उपादेयवाणी । धिरजहर्षप्रवीणता । भूषगपंचवखाणी ॥१॥
भावार्थ:--स्व और परके लिये तत्व आत्मज्ञानकी वृद्धिरूप प्रभावना करनी शास्त्र के अनुसारे विवेक सहित सत्य और सबको प्रिये हितार्थ बोलना और अतिदुःख आनेपरभी धैर्य रखके सत्यधर्मकों नही छोडना और सदैव आत्मज्ञान ध्यान संतोषमें रहकर तत्वज्ञान में प्रविणहोना और जो समकितको मलीन करनेवाले अष्टमदहैं उनकोभी दूरकरना चाहिये जातिमद१ लाभमदर कुलमद३ रूपमद४ तपमद५ बलमद६ विद्यामद७ राजमद८ यह अष्टमद सम्यक्के मल हैं वास्ते इनकोभी दूरकरना चाहिये तेसेंही सत्य धर्ममें संशय रखना विषय भोगकी बांच्छा देहादिक पुद्गलीक भोगोमें ममत्वभाव और प्रतिकूल चीजमें घृणा याने अरुचि गुणीजन अरुचि होना और दूसरेकेदोषोंकों प्रकाशित करना ज्ञानमें वृद्धि नही करना और शुद्धगुरु देवधर्मकी तथा सत्यासत्य शास्त्र सिद्धान्तकी परीक्षा नहीं करके गतानुगति चलना यह सर्व उपरोक्त दोषों समकितको मलीन करनेवाले जानके भव्य जीवों को त्याग करना
Jin Education
For Personal & Private Use Only
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
Jain Education b
बन्धपडे नही केवल अज्ञानता पडते हैं
दोहा - पुद्गलसेराते रहैं । जानैयहीनिधान । तसलाभेलो भेरहें । बहिरात्मअभिमान ॥१॥ अन्तरात्माजंवसो | सम्यग्दृष्टिहोय || चौथे अरुपुनियारमें। गुणस्थानकल्पोसोय ॥२॥
शरीर धन स्त्री पुत्र माता पिता परिवार मकान वस्त्र पात्र गहने और सर्व वैभव आदिमें जिसकों ममभाव हैं वही मिथ्यात्व हैं वह त्यागने योग्य हैं और अनंत ज्ञानगुण सम्पन्नशुद्ध आत्म स्वरूप हैं वहग्रहण करने योग्य हैं यही शुद्ध सम्यक् हैं सम्यग् गुण ऐसा बलवान् हैं कि मिध्यात्वकों एकसमयमात्रमें नाश करके केवलज्ञानकों प्रगट कर देना है समकितगुणकी प्राप्ति होने परही सम्यक् ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति होती हैं
चोपाई - सत्यप्रतिज्ञाअवस्थाजाकी । दिन २ चढेगुणस्थानताकी || छिनछिनकरेसत्यकोसाको । समकितनामकहावैताको ॥१॥
भावार्थ:- जो पुरुष आत्माके सत्यस्वरुपकी पहिचान करके निजस्वरूपका यथार्थ निश्चयसहित श्रद्धा न करे वहीजीव समभावकी वृद्धिकरनेवाला होता है औरजो आत्मस्वरुपका यथार्थ अनुभव करना है वह सम्यग् ज्ञान १ दोहा - अप्पापरिचयनिजविषे । उपजैनही संदेह || सहजप्रपंचरहितदशा । सम्यग्लक्षणऐह ||१||
अपने आत्मस्वरुपका अनुभव अपनी आत्मासही होता है दूसरेतो केवल एक निमितमात्रही है समकिनधारी ज्ञानीका लक्षण हैं ॥ १ ॥
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह
janelibrary.org
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
॥२०॥
उदयसे सदा असत्य जडधर्मके विषे आनंद मानता है और समकित मोहनी कर्मके उदयसें जीव सत्यधर्मके विषेभी कुछकुछ मनमें मलीनता लाता है यह सातोंही प्रकृतिका जब क्षय होता है तब व्यवहार समकितकी प्रासि होती है.
5 जीतसंग्रह दोहा-प्रक्रतिसात्तोमोहनी । कहंजिनागमजोय ॥ जिनकाउदयनिवारके । सम्यक्दर्शनहोय ॥१॥
॥ २० ॥ - भावार्थ-मिथ्यात्वका सर्वथा नाश होनेपरही समकित दर्शनकी प्राप्ति होती है. ईत्यर्थःअथ आत्मविषे दोहा-निजस्वरूप समझे विना। पाम्यो दुःख अनंत ॥समझाया ते पदनमूं। श्रीसद्गुरुभगवंत ॥१॥
वर्तमान ईन कालमें । मोक्षमार्ग बहु लोप ॥ विचारवो आत्मार्थीने । कुगुरुये किगे गोप ।।२।। कोइक्रियाजड होये रख्या । केइ शु ज्ञानमें जोइ ।। माने मार्ग मोक्षनो । करुणा आवै मोय ॥३॥ बाहेर क्रिया राचते । अंतर भेदेन कोय ।। ज्ञानमार्ग निषेधते । जे जडक्रिया जग मोय ॥४॥ बंधमोक्षनी कल्पना । जे भाषे जगमांहि ॥ वर्ते मोह दशामें । शुक ज्ञानी तेंहि ।।५।। त्यागनती सफल तब ही-जब लहै आत्मज्ञान ।। ज्ञानरहित क्रियाजड । लहै न माक्षस्थान ॥६॥ त्याग वैराग्य नही चिनमें । थाय न तेह न ज्ञान ।। ज्ञानविना जग जीवडा । भमे च्यारे खान ॥७॥ सेवे सद्गुरु चरणने । त्याग करी निज पक्ष ॥ ते जाणे निज आतमा । बीजा जाणन लक्ष । ८॥ प्रत्यक्ष सद्गुरुसम को नही-करै जगत उपकार ।। बलिहारी गुरुदेवकी-पल पल सो सो वार ॥९॥ सदगुरुकी किरपा बिना । जाणे नहि निजरूप ॥ निजस्वरूप समझे बिना । डूबे भव जल कृप ॥१०॥
। JainEducationkilal
For Personal & Private Use Only
Mininelibrary.org
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
चाहिये फेर समकितगुणको नाश करनेवाले पाञ्चकारण है उनकामी त्याग करना चाहिये. अध्यात्म- दोहा-ज्ञानगर्वमतिमंदता । निठुरवचनउद्गार ॥ रूद्रभाव आलस दशा । नाशे पंचप्रकार ॥१॥
जीतसंग्रह विचार
३ भावार्थ:-ज्ञानपढनेका गर्व अभिमान तत्वज्ञान में अरुची सचिनही और असत्यता निर्दयता सावध कटुक
बचन बोलने में प्रवीण और सदा क्रोधादि परिणाम उत्तम अध्यात्म ज्ञान सुननेकेलिये तथा देशव्रती सर्वव्रती चारित्र धर्म पालने में निरुद्यमी आलम प्रमादी यह पांचोही दूषण ममकित दर्शनको नाश करनेवाले दोषोंसे अवश्यही बचना चाहिये ॥२॥ तैसेंही सम्यकदर्शनके पांचअतिचारसभी बचना चाहिये. ____ गाथा-लोगहास्यभयभोगाचि । अग्रशोचस्थितिमेव ।। मिथ्याआगमकीभक्ति । मृषादर्शनीसेव ॥१॥
भावार्थः-मनमें ऐसी शंका आनी कभी मैं शुद्धदेव शुद्धगुरु और धर्मके सिवाय दूसरे देवगुरु धर्मकों JE नही मानुगा नो लोकोमें मेरी हांसी होगी और जो धर्म है वह सत्य है कि अन्यधर्म सत्य हैं तथा पांचो 18
इन्द्रियोंके भोगविलासकी रुचि होनी मेंही तत्वज्ञानमें शंका करनी और कहानी कथाओमें रुचिहोनी | तथा मिथ्यात्वी देवगुरु धर्म हैं वह सत्य है अन्यधर्मकी प्रशंसा करनी तथा कुगुरुकी सेवाभक्ति करनी इस २८ पांच दृषणकों सम्यग्धारी जीवको अवश्यही त्याग करनाही चाहिये और जो आत्मधरममें सदा भिन्न पदा-1 SEौँको अपना मान कर क्रोध मान माया और लोभ करके ममत्वभाव रखना है यह अनंतानुबंधी कषायों
हैं जिसमें लिप्त हुआ यहजीव अनादिकालसें चतुर्गतिके विषे परिभ्रमण कर रहा हैं मिथ्यात्व मोहनीके
في الفعاليات العليا لبنان ليا ليختالل الفلانطلاللانتا
in Education n
ational
For Personal & Private Use Only
www.ncbora
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार ॥ २१ ॥
Jain Education
मुखसे कथे ज्ञान सहु । छांडे न अशुद्ध आचार ।। ते शुष्कपांठी बापडा । रूले सर्व संसार ||२४|| अथ इन्द्रदमनविषे - देह छतां देहातीत । वरते सद्गुरु जेह ।। तेज्ञानीनां चरणमां । धोक देहु नित्य मेह ||२५|| अथ इन्द्रियदमनविषे भाषा - हे भव्य ! जो तुमकों मोक्षसुखकी पूर्ण इच्छा हो तो प्रथमसेंही अध्यात्मज्ञान और अध्यात्मध्यानका आलम्बन लेकर इन्द्रियोका दमन करो अर्थात् सर्वइन्द्रियोंके विषयको अपने वशमें रखके आत्मअनुभव करो संसाररूरूपी सागरसें पार होनेकेलिये उत्तमसें उत्तम और अच्छेसे अच्छे यही साधन हैं तात्पर्य यहीं हैं इन्द्रियोर्के विषयकों जीतके जो आत्म स्वरूपमें रहता है यही मोक्षकेलिये उत्तम साधन हैं परन्तु जबतक मन इन्द्रियोका दमन नही कियाजाये यानें मन इन्द्रियो वशमें नही हुये तबतक चाहे जितने जप तप करा चाहे जितने सूत्रसिद्धान्त पढो पढावो लेकिन संसाररूपी बंधनसे कभी नही छूट शकते मन इन्द्रियोंको दमन करनेके लिये स्वल्प आहार सदगुaat सत्संग और गुरुमुखसें अध्यात्मग्रंथोका पठन पाठन श्रद्धा पूर्वक होना चाहिये इसतरहसें सत्संग अभ्यास करनेपर अवश्यही आत्मतत्वका बोध होता है और आत्मतत्वका बोध होनेपर मन इन्द्रियोंको विषय आपसें आप हो जाते है विष शांत होनेपर सर्व जगत् के आत्मस्वरूपका दर्शन आपसे आप होजाता है आत्मस्वरूपका प्रकाश होनेपर सर्व जगत्की अस्थिरता आपसे आप दृष्टिगोचर होजाती हैं तब चित्तवृत्ति आपसे आप शान्त होजाती है और चिभवृत्ति शान्त होनेपर मन आत्मवृत्तिमें आपसे आप लय होजाता है जब मन
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ॥ २१ ॥
winelibrary.org
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
प्रत्यक्ष सद्गुरु योगसें । आश्रव ते रोकाय ॥ आश्रव रोके बिन जीवने । बंधण वमगो थाय ॥ ११ ॥ अज्ञान मत आग्रह तजी । वर्ते सद्गुरु लक्ष | समकित तेहने भाखियो लही कारण प्रत्यक्ष ॥ १२॥ जे सद्गुरु उपदेशथी । पाम्या केवलज्ञान || गुरु रहे छद्मस्थपणे । विनय करे भगवान || १३ || अथ कदाग्रहीविषे दोहा-नहि कषाय उपशांतता । नही अंतर वैराग्य । सरलपणो न मध्यस्थता । ते पक्षपाती दुर्भाग्य | १४ | आत्मार्थी मुनिनालक्षण-आत्मज्ञान तहां मुनिपणा । तेसाचासद् गुरुहोय ॥ बाकी कुगुरुकल्पना । आत्मार्थी न ही कोय ॥ १५ ॥ गाथा - आत्मज्ञानी श्रमण कहावै। बीजातो द्रव्यलिंगीरे ॥ वस्तुगते वस्तुप्रकाशे । आनंदघन मत संगीरे ॥ १ ॥ दोहा - एमविचारी चित्रामें । शोधे सद्गुरु योग || काम एक आत्मा भगो । बीजो नही मन रोग || १६ |
जेहां होवे शुद्ध विचारणा । तेहां प्रगटे निज ज्ञान ॥ रागद्वेष को क्षय करी । पावै पद निर्वान ||१७|| सद्गुरुनी किरपाथकी । लह्यो अपूर्व ज्ञान ॥ निजपद निजमें लयो । दुर हुआ अज्ञान || १८ | रागद्वेष अज्ञानता । यही कर्मकीग्रंथी । होवे निवृत तेहथी । तेहीज मोक्षनो पंथी ॥ १९ ॥ केवल निज स्वरूपनो । अखंड रहे जे ध्यान || कहिये केवलज्ञानते । देह छतां निर्वाण ||२०|| क्याधरूं सद्गुरु चरणमें ! आत्मज्ञानमूं हीन ॥ तोतो सद्गुरु कीरपा करी । अर्पण कियो मुझनाण ॥ २१ ॥ आत्मभ्रांति सम रोग नही । सद्गुरुसमो नहि वैद्य ॥ गुरु आज्ञासमो धर्मनही औषधज्ञानावनिर्बंध ||२२|| गच्छमत्तनी जो कल्पना । ते नही शुद्ध व्यवहार ॥ ज्ञान नही निजरूपनो । डूबे कालीधार ||२३||
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह
finelibrary.org
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंबर
।।। २२ ॥
लिये सर्व परिवारका मोह छोडके स्मशान तथा गिरिकंदरामें परमात्माका ध्यान करता हैं सुखको इच्छातो अध्यात्म-JET
सर्वजीवोंको बनी रहती है लेकिन सच्चे सुखकी पहिचानही नही हैं कोईक विवेकवान पुरुषही सत्य आत्मिक विचार
सुखकी खोज कर सकता है आत्मध्यान और अध्यात्मज्ञान के अभ्यास में अपने आपही अपने आत्मिक ॥२२॥ सुखको खोज लेता हैं.
अब परिग्रह विषे कहते हैं गाथा-कहानी कथनी कत्थके, क्योजगकोरीझाता। सर्वकुटुम्बपरिवारछोडदिय, तबचेलाचेलीक्योंबनाताहैं।।
भावार्थ:-जब सर्व कुटुम्ब परिवार तथा परिग्रहको छोडके निग्रन्थ हो गया है तब कहानी कथनी कथके क्यों लोक रीझाता हैं क्यों चेला चेली बनाता है और मेरी तेरी करके क्यों लोक हतासाता है
गाथा-चिदानंद कहै तूं सबसे न्यारा । वानासिंहका पहरकेगीदडक्यों कहलाता है ॥२॥ घटभ्यंतर अनहद बाजै, सबमें झोगमगज्योति विराजै । मूवनर बाहिरमांखोजै, कैसे शिवसुखमें विराजे ॥३॥
स्वयंप्रकाशरूप है मेरा, कोइकलखलैयोगीशरा। ज्यातिरुपका होवे प्रकाशा, कोइकयोगी देखे प्यारा ॥४॥ दोहा-कलिकालके मंडिया । घर घर मांगण जाय ॥ तृष्णा उसके पीछे पड़ी । मनगमता रसलाय ||५||
साधूबाना पहरके । आने नही मन शंक ॥ साधु वेश माता फिरे । देखो कर्म तणाय अंक ॥६॥ सार एक वैराग्य हैं । सब सुखके दातार ॥ ज्ञान ध्यान सझे नहीं । वैराग्य सहित सुखकार ॥७॥
con
For Personal & Pr
e
Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचार
आत्मामें लय होजाता है तब सर्व प्रकारके संकल्प आपसे आप विलाय जाते है तब आत्मस्वरुपका यथार्थ अध्यात्म- | भास होजाताहैं यहतो हरेक जीवकी इच्छा रहती है कि इस संसाररूपी बंधीखानेसें छूटनेके लिये उद्यम | जीतसंग्रह ३ कोई विरलेही करते है.
गाथा-बांछे मोक्ष करेनही करनी, डोलतममतावायुमें। अंधपुरुषजेमजलनिधितरवो, बैठोकानी नाऊमें ॥१॥
जीवलागरह्यो परभावमें लेकिन आत्मज्ञानसें कितनेक मेरे जैसें वक्ताओं श्रोताओं दोनोंहा शून्यही मालुम होते हे प्रायकरके क्योंकि वक्ता और श्रोता दोंनोंके अन्तःकरण विषयमें मलीन हुओड़े मालुम देते है क्योंकि उन्होंको आत्मज्ञानकी तथा आत्मसुखकी सूझही नहिं पडति इन्द्रियोंके विषय सुखमें अमूल्य नरभव पाकर विचारे यहि हारजाते है लेकिन च्यार गतिरूपी बंधीखानेतें छूटनेकेलिये कुछ उद्यमही नहीं करते केवल अपना सर्वआयु विषय भोगमेंही हारजाते हैं पशुकी तरह धर्म ध्यान बिना हे भव्य एक | थोडी देरके लिये अपने चिनको इन्द्रियोंके विषयसुखकों छोडते संसारकी असारताकी ओर देखोकि तेरा | कौन है भ्राता माता पिता भार्या और कुटुम्यादि सबका जो संयोग मिला, लेकिन जो तत्वदृष्टिसे देखा जावेतो यह सर्व प्रपञ्च मोहजनित जुटा है ईसमें एकभी तेरे अंत समय साथ चलनेवाला नही देखलाता इस बातको यद्यपि सबही जानते है परन्तु मोहराजाके वशीभूत हुए अपने कल्याणके लिये विचारही नही करते किन्तु धन्यतो उस महापुरुषकों है कि विषयसुखकों विषतुल्य असार जाणके अपने कल्याणके
Jan Education International
For Personal & Private Use Only
MIndinelibrary.org
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
JE जीतसंग्रह
अध्यात्मविचार ॥२३॥
आत्मदृष्टि स्थिर करी । अनुभव लहै जग कोय ॥ इन्द्रनरेन्द्र नागेन्द्र के तासुख सम नहिहोय ॥२२।। अनुभव प्रभुजी मिले । अनुभव सुखका मुल॥अनुभव चिंतामणि छांडके । मन भटके कहुंभूल २३ ज्ञानविना जग जीवडा । फिरे जिम जंगलकोरोझ ॥ मिथ्या युही पञ्चमरे । करे न घटमें खोज ॥१४॥ संसारीकों देख ले । सुख नहि है लब लेश ॥ अवतो पीछा छोड दै। कर्म न लागै लेश ॥२५।। ठाठ देवके भूल मत । यह पुद्गल पर्याय ।। क्षणमें नष्ट होत है। खाली क्यों फूलाय ॥२६॥ लुट तहै ज्ञानादि धन । ठग सरिसो संसार ॥ मीठा वचन उचारके । पटके नरकें द्वार ॥२७॥ कैसो भूत तो कोलगो । क्यु नहि करे विचार ॥ नही माने तो देखले । मतलब को संसार ॥२८॥ काया उपर ताहेरो। सबसे अधिकोप्यार । वहतो सबसे पहेली । दगो देगी निरधार ॥२९॥ चर्म चक्षु अति भली । जग चक्षु मनोहारि ॥ ज्ञान चक्षु विन जग जीवडा । रूले सब संसार ॥३०॥ सुरपति सब सेवा करे । रायराणां नरनार | कालचक्र माथे भमे । चेते क्युं न गमार ॥३१॥ देखत नर अंधा हुआ। मोह लिया सब घेर । भण्या गण्या मूर्व वली । काल ले गया सबतेर ॥३२॥ रात दिवस निज नारसुं । तुं रमतो दिन रात । जे जोइये ते पुरतो गरज सर्या नहि आत ॥३३॥ ब्रह्मा नारायण ईश्वर । इन्द्र चन्द्र नर क्रोड ॥ ललना वशते बापडा । रह्या वे करजोड ॥३४॥ नारीवदन सोहामणो । पण वाद्य न अवतार ॥ जे नर तेहने वश पड्या । लुट्या ते घरबार ॥३५॥
Join Education
For Personal & Private Use Only
h
triainelibrary.org
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
जीतसंग्रह
विचार
العلاج الاطفال للثلن الافالنيكالها
SDMRIDDARADलतपमान
झूठे सुखके कारणे । क्यों राचै जगमांहि ॥ दोय दिनारे कारणे । क्युं बांधे कर्म यांहि ॥ ८ ॥ विषय सुखकों सुख कहैं। कहांलग कहुं तुझ भूल ॥ आंख छतां आंधा हुआ। जाणपणामे धूल ॥९॥ किस केहे निसचिंत तूं । शिरपें घूमे काल ॥ बांध सकेतो बांध लै । पाणि पहली पाल ॥१०॥ नहि विचार तेने किया। करनाथा क्या काज ॥ उदय होयगो कर्म फल । तव आवेगी लाज ॥११।। खेरहुआ सो होगया । अबतो चेत गमार || बिना विचारे तुमने किया । जिसकी सह ले मार ॥१२॥ जोतुं चाहै अमर पद । तोपुदल राग निवार ॥ निंदा स्तुति रिपु मित्रने । एकहि दृष्टि निहार ॥१३॥ आत्मज्ञान अनुभव विना, हृदय मर्म नहि जात ।। तिमिर अज्ञान नासे नही, लाख कथे कोई बात ॥१४॥ अपने अपने गुण विषे । स्थिर रहे सहु द्रव्य ॥ तुंही अपने गुण विषे । स्थिर रहै मनलाय ॥१५॥ जो तुं चाहै अमरपद । तो खोजो घटमांहि । बाहिर भटकतना मिलै । जेवसे घटमांहि ॥१६॥
धीरज गुण धारण कियां । सबही दुःख मिटजाय । जैसे ठंडे लोहसें । ताता लोह कटाय ॥१७॥ अनुभव विचार-कुकस विषय बिकार रस । मत भख मूढ गिंवार ।। अनुभव रस तुंचाख लै-गुरुगम करी निरधार ॥१८॥
किये पाठ अनुभव विना । मिटे नाभ्यंतर पाप । बाहिर शीशी धोयके । करी चाहै तुं साफ ॥१९॥ पाठ कियांसे एक गुण । अनुभव कियां हजार ।। तातें मनकूरोक के । अब क्युं न करै विचार ॥२०॥ अल्पभार पाषाण को। जिम लागे जलमांय । तिम अनुभव परकासते । करम बंधेला नाय ॥२१॥
المين
Jan Education International
For Personal & Private Use Only
Jininelibrary.org
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥ २४ ॥
Jain Education L
यौवन नररूपनो । गरब करे ते गमार ॥ कृष्ण बलभद्र द्वारका | जातां न लागी बार ॥ ५० ॥ अष्टपहर तु चितवे । धन मिले कौण उपाय || सोधन मेल्यां ताहेरो । खावै औरही आय ॥५१॥ माया सुख संसारमे । ते सुख सही असार । धर्म पसाय जे सुख मिले । तेसुखनो आवे न पार ||२२|| पापकी या जीवते बहु । धर्म न कियो लिगार || नरक पड्यो यम कर चढ्यो । पडयो करें पोकार ||२३|| कोइदिन रांगोराजियो । कोईदिन नहि कोइपास || कोइदिन रोटीकारणे । फिखोघरघरवास ||५४॥ कोइदिन कोडी वरवर्यो, कोइदिन नहि कोइ पास।। कोइ दिनझुंड तु अवतर्यो, खातो भीष्टा खास | ५५ | कोइदिन भूमिसातमी । करतो भोगविलास ॥ एकदीन ओही आवसे । रहणो हैं वनवास ॥ ५६ ॥ रूपे देवकुमारसम | देख मोहै नरनार ।। ते नर क्षण एकमें । जल बल होगए छार ||२७|| जेवि नघडी सरतो नही । जीव न प्राण आधार ॥ तेवि न वर्ष बहे गये । शुद्ध नही समाचार | ५८ | उपदेष विषे - ज्यौं औषध अंजन किया । तिमिररोग मिटजाय ॥ त्युं सद्गुरु उपदेशमे । शंसय बेग विलाय ॥५९॥ जैसें सरवर सदा भरे । जल आवै चहुं और ॥ तैसें आश्रव द्वारते । कर्मजल आवै जार ||३०|| ज्युं जल आवत मंदिये । सके सरवर आप ॥ त्थं आत्मज्ञानतें | आश्रवरूके पाप ||३१|| अथ समण विषे — अंतरसूरति लगायके । मुखसें बोले न बोल || बाहिर दृष्टि छोड़के। अंतरके पट खोल ||६२ || अंतर सूरति लगायके । जपे अजप्पा जाप | कंड होठ हालै नही । सहजै सनग होवे आप ॥ ६३ ॥
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ।। २४ ।।
sinelibrary.org
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
חיפה והיה ברורה דקה זו רודן لللللللئاللللللللللللللللللللللنلتلل
हस्तमुखी दीसे भली । करती कारमो नेह ॥ निज स्वार्थ विनु पापिनी । तुरत दिखावै छेह ॥३६।। पहली प्रीत करे रंगसुं । मीठी बोली नार ॥ मरनां दास करी आपनो । मारे ताकर मार ॥३७॥ नारी मदन तलावडी । बुडो सब संसार ॥ काढणहारो को नहीं । श्रोता करो विचार ॥३८॥ समुद्रदीप सायर तणो । जे नर पामे पार ।। नारी चरित्र हृदयनो । कोइ न लहै तस पार ॥३९॥ सत्य पुरुष सुशील जे । वांक नही तस कोय ॥ पण नारी संग तेहने । निश्चय कलंक चढें तुं जोय ॥४०॥ नारी नहीरे बापडा । है पिण विषनी बेल ॥ जोसुष वाच्छे मुक्तिना । तो नारी संगति मेल ॥४१॥ नारी जममां ते भली । जिण जायो पुत्र रत्न ।। ते सतीना पाये नमू । जगमां ते धन धन्य ॥४२॥ जिणणी जिणेतो भक्तजिण । केदाता केशर ॥ नहीतर रहेजे वांझणी । मती गमाये नूर ॥४३॥ पापघडो पूर्ण भरी । तें लियो शिर भार ।। कैसे छूटेगा प्राणिया । कियो न धर्म लगार ॥४४॥ जिण बचने पर दुःख हुवे । होय प्राणकी घात । ते बचन दूरे तजो। हित वचन कहो बात ॥४॥ जेमतेम परसुख दीजिये । दुःख न दीजे कोइ ।। दुःखदियां दुःख उपजै । सुग्वदियां सुख होय ॥४॥ सजनमुख अमृत लवे । दुर्जन विषकी ग्वान ।। सज्जनदुर्जन केम जाणिये । जयमुग्वयोले बाण ॥४७॥ दिया उपदेश लागे नहीं । जो न विचारे आप ॥ आपआप विचारतां । मिटे पुण्य अरु पाप ॥४८॥ धनकारण तूं झल फलै। धर्म क्युंन करे गिवार ॥ अनंत भावोंके पाप सब । क्षणमें हइ सबछार ॥४९।।
in Education in
For Personal & Private Use Only
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
السلطانة
जीतसंग्रह
अध्यात्मविचार ॥२५॥
दुनियोंको चेला बनानेकी इच्छा होवे तोप्रथमसेंही अपने मनको चेला बना ले अर्थात् मनको चेला कर्के तत्पश्चात् काम क्रोधरूपी मतंगको वशकरके अर्थात कामक्रोध तथा मनको जीतनेपर सर्व जगत् तेरा चेलाही बनजायगा ॥६८॥
दोहा-मालामोसें लडपडी । क्यों फेरावे मोय ॥ चिचतो डोलम डोल हैं । केसे मिले प्रभु तोय ॥६९।। - भावार्थः-महात्मा कहते है कि एक दिन माला मोसें लड पड़ी और कहने लगीकी हे मूर्ख तुं रोजकारोज मेरेको क्यों नाहक फेराता है क्योंकि तेरा चिततो ठीकाने नही तब तेरेको परमात्मा कैसे मिलेगा ॥६९।।
दोहा-भरम न भागो मनतणो । अनंत घेर मुनि भेष ॥ आत्मज्ञान कला विना । अंतर रह गया लेष ॥७॥
भावार्थः-अनंतीबेर मुनिसाधुका भेष धारण किया जिसमेंभी नवे नवे सांग धारण किये कभीतो श्वेताम्बरी | कभी दिगंबरी कभी पीताम्बरी कभी भगवें कभी काले ऐसें नाना प्रकारके सांग याने वेष बनाके नटवेकी तरह | लखचौरासीके विषे खूब नाच किये लेकिन सदगुरुकी कृपाविना जीवका भ्रम दूर हुआ नही
गाथा-रामभणी रहमानभणाइ । अरिहंत पाठपढाइ । घरघर ने हुं धंधे विलुगी । अलगी जीव सगाई ॥१॥ दोहा-बंधेको पंधामिले । कैसे लहछोडाय ॥ कर सेवा तुं निग्रंथकी । सो पलमां दे छोडाय ॥१॥
भावार्थ:-कहो भलां बंधेको बंधा कैसें छोडाय शके जो गृहस्थ लोक हैं वहतो कनक और कामिनी आदिमें पूरीतोरसे बंधे हुये हैं और कलिकालके साधु और साध्वीओं वह चेलाचेली पुस्तक और गच्छादिक कदाग्रहमें पूरीतोरसे | बंधे हुये हैं अय कहो भला च्यारगतिरूपी बंधिवाने में कौन छोडा शके यहांपर राजा ब्राह्मणके दृष्टांतसे समझ लेना.
اللاتيان من المناللاسلحه الهند البدائل للسكان بلدية الان
JainEducation
For Personal & Private Use Only
Audiainelibrary.org
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
मुखसें जपुं न करसें जपुं । जपुं न हृदय उचार ॥ मूरख नर समुझे नही । जपुं अजप्पा एकतार ||६४ || भावार्थः— लोकोंकी तरह करमें जपमाला लेके नही जपुं तैसेंही मुखमेंभी नही जपुं इसका भेद अज्ञानी लोको नही जाण शक्ते मैंतो जपुं अजपा जाप ||३४|| अथ साधुवेषविषे दोहा
कैसे क्या विगाडियो । सोमुंडे वारंवार ॥ मनकों क्यों न मुंडाइये । जामें विषय विकार ॥६५॥
मनमुंडा सुख होत हैं । केशमुंडया क्या होय || जो किया मो मन किया । केश किया नहि कछु जोय ||३३|| भावार्थ:- हे लिंगी वेषधारी मुनि वालोने तेरा क्या गुनेह किया है जिसमें तुं शत्रुता लाकर वारंवार उखाड़ता है उस तरेसे काटके उनका टुकडा २ कराके फेंक देता है उसवालोनें तेरा गुना क्या किया हैं जो कुछ गुना किया हैं तो मन किया है उनको क्युं नहि मुंडतो जिसमें नाना प्रकार के विषय विकार भरे हुवे हैं ॥ ६६ ॥
दोहा - माला फेरे क्यागुण । काती मनके हाथ || मनमालाहि राखिये। घटमें मिले तुझ नाथ ||३७||
भावार्थ:- मनकी स्थिरताबिन जपमाला फेरनेसें क्या लाभ क्योंकि कातीतो मन हाथ हैं इसलिये मनकी मोला बना परमात्मा की भक्तिमें लय होजाना यही सबसे श्रेष्ठ जपमाला है ||३७||
दोहा - मनको चेला बनाके । कामक्रोध कर वश ॥ चक्कर पहरके रगकों जीते । तो चेला सब देश || ६८||
भावार्थ:- कितनेक विचारे वेषधारियो चेलाचेली बनानेके लिये बहुतही प्रयास करते फिरते हैं लेकिन महा| त्मा कहते है कि हे भाई ऐसे प्रयास करनेसें तो मात्र २-४ वेलाचेली की प्राप्ति होगी परंतु हे महाभाग्य जातं सर्व
For Personal & Private Use Only
毛毛孔美美美
जी संग्रह
jainelibrary.org
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
JE बजारमें जवेरीकी दुकानमें हीरा पन्नामाणिक आदि मिल शकते है लेकिन जवेरातकी दुकान कोइ विरलीही होती
है तैसेंही सर्व पहाडोकी अंदर सुवर्णकी खान नहीं होती तैसेंही सिंहनके टोले नही फिरते तैसेही सिंहके संगमें अध्यात्म
De|जीतसंग्रह विचार गीदड नही रह सकते ऐसे साधुसन्त कोई विरलेही मिलेगें ॥१॥ ॥२६॥
गाथा-मुनिमुनि सबही कहै । मुनि विरला संसार ॥ अनल पंखी कोइ एक है । दूजा कोटि हजार ॥१॥
भावार्थ:-सय दुनियों में मेरे जैसे वेषधारियों कहते है कि हम साधु है और सब दुनियां भी उन्होंको साधु JE यति कहते हैं कि यह मुनिराज तरणतारण संसारमें जहाजके समान सद्गुरु है और यही हमारा गुरु है ऐसें कोई
दृष्टिरागी अकलके बाहादर वणिये कहते हैं लेकिन इस कलिकालमें साधु मुनि कोइ विरलेही मिलेगे जैसे अनल पक्षी कोई विरलेही होते हैं और पक्षियों क्रोडोंही होते हैं. गाथा-जैसी कथनी मुखसे कथे । तैसें चले न कोई ॥ श्वान ज्यु भुसते फिरे । देखलो जग सोइ ॥१॥
काणीकथनी छोडदे । आत्मसे चितलाय ॥ मुग्वमें पैडा बालतां । भूख कबू नहि जाय ॥२॥ कहतें सुनते मर गये । श्रोक्तावक्ता संसार ॥ कथनी काची जगतमें । रहनी अमृतधार ॥३॥ कथनी कछे कर ज्यु । रहनीका घर दूर ॥ कथनो कथ रहनी रहे । वही सन्त भरपूर ॥४॥ कुकर्मतो छांडै नही । ज्ञान कथे अनेक ।। संत कहै उन वक्ताको । ज्ञान नही कोडी एक ॥५॥ एरणकी चोरी करे । करै सूयीरो दान ॥ वे उंचे चढ २ देखते । केतिक दूरविमान ॥६॥
Saveena
THEDULE
Jain Education al
For Personal & Private Use Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म- दोहा-पूरा सद्गुरु ना मिले । सुणी अधूरी सीख ॥ सांगयति काय हरके । घरघर मांगे भीख ॥१॥
JE जीतसंग्रह विचार
आशा तजै माया तजै । तजै मोह अम्मान ॥ हर्षशोक निंदातजै । सोही संत सुजान ॥२॥ भावार्थ:-महात्माओ कहते हैकि सब दुनियांकी आशा तृष्णा मोह माया मान शोक चिंता और परनिंदादिक त्याग करके अपने स्वरूपमेही खेलते हैं वही पूरै मदगुरु संत है.
दोहा-सच्चेसंत वही हैं । कनक कामिनी त्याग ।। आशा एकही नामकी । निशिदिन जो वैराग ॥१॥
भावार्थ:-सच्चेसंत महंत तो वही है कि जिस महापुरुषने कनक कामिनी और सर्व तरहकी इच्छाका त्यागकर्के २८/ एक परमात्मामेही याने परमात्माके ध्यान में लीन हो गये ॥१॥
गाथा-जबलग नाता संसारका । तबलग संत न कोय ।। नाता तोडे प्रभु भजै । संत कहावै सोय ॥२॥
भावार्थ:--जबलग अपने कुटुंब परिवार अर्थात् जबतक कुटुम्ब परिवारके साथ मोहित रहा है तबतक वह संत साधु नही है अर्थात् जबतक अपने संसार संबंधियोंके साथ नाता मोह रहाहैं तबतक संसार छोडके शिर मुंडाया तो क्या? नही मुंडायातो क्या बन्धनरूपही हैं इसलिये कहनेका तात्पर्य यही हैं साधु होनेपर सर्व कुटुम्ब परिवारका मोह सर्पकंचुकीकी तरह छोडकर और निर्भय होकर एक परमात्माका ही ध्यान करना चाहिये |
गाथ-सर्वदुकाने हीरा नही । कंचनके नहि पाहाड ॥ सिंहनके टोलेनही । तैमेसन्त कोइक निहाल ॥१॥ भावार्थ:-सबसहरोंकेविषे और सब दुकानोंके विषे हीरा पन्ना माणिक आदि नहि मिलते लेकिन कोहक
Jain Education
For Personal & Private Use Only
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥२७॥
पढपढके पण्डित भये । समझावै सब लोक ॥ आपतो समुझे नहीं । जन्म गमाया फोक ॥२॥
Tre जीतसंग्रह भावार्थ:-लोकोमें वेदपाठी ब्राह्मणो जगतके गुरू पंडित कहलाते हैं लेकिन ब्रह्मज्ञानकी कुछभी पहिचान नही है खाली संस्कृत श्लोक उच्चरण करके दुनियों को अपनी पण्डिताई दिखलाते है अपने पेटके लिये ऐसे पोयोंके वेंगन समान धर्मगुरुओं बनके दुनियोंको युही भरमाते है लेकिन ब्रह्मचीजही क्या है उनका तो नोमही नही जानते ॥२॥ दोहा-पंडित और मसालची। दोनों समझत नांह ॥ दूजां के करे प्रकाश । आप अंधेरामांह ॥१॥
पढे गुणे पंडित भये । कीर्ति भइ सब देश ॥ धर्म तत्व जाण्यो नही । खर चंदन ज्यु लेश ॥२॥ भावार्थ:-सूत्र सिद्धांत पढ कर पंडित यन गये और सब दुनियांमे मयूरभी होगये कि अमुक मुनिराज बडे पण्डितराज हैं किंतु वस्तु स्वभावे धर्म क्या है वहतो जडवुद्धि पंडित कुछ जानतेही नहीं खाली खरकी तरह थुतज्ञानरूपी बोझा उठानेवाले चंदनकी तरह ॥२॥ दोहा-संस्कृतही पंडित कहै । बहुत करै अभिमान | भाषा जाणी तरक तरै । सो नर पशु सनान ॥११॥
भावार्थ:--विचारे कितनेक मेरे जैसे मूर्ख थोडीसी संस्कृत भाषा पढकर अभिमानमें नानाप्रकार के तर्कों करतें हैं जिसमें भोले लोकों जानेकि महाराज बडे विद्वान् है सर्व सूत्रोंके पारगामी है बहु श्रुत हैं योधलोके लिये तत्व| ज्ञान चीजही क्या हैं वह पंडित बहुं श्रुत नहि कहा जावै लेकिन आत्मज्ञान विना पशुकी समान है.
गाथा-तपजप संयम सघही धरे । पलक न छेडे शुभध्यान ॥ आत्म तत्व जाणेविना । कबहुं न होवै कल्यान ।।
in Education Man
For Personal & Private Use Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचार
DE जीतसंग्रह
अध्यात्म-IRE भावार्थ:-आजकल दुनियां में कैसा धर्म चलरहाहै कि ऐरणकीतो चोरी करते हैं और एक मूईका दान
फेर आशा रखते हैंकि अब स्वर्ग मोक्ष दूर ही क्या है गाथा-नाहना धोना केड कियां । मनका मैल न जाय ॥ मीन सदा जलमें रहै । क्यु कल्याण न थाय ॥७॥
साहेबके दरवारमें । साच्चेकों शिरपांव ।। झुठा तमाचा खात है । क्या रंक क्या राव ॥८॥ भावार्थ:-पोल है तो इस दुनियांके अन्दर है लेकिन परमात्मा केदरवारमें पालपोल नहीं हैं वहांतो इनसाफ है सच्चेको शिरपांव है और जो जूठा होते हैं वहतो तमेचाही खाते है चाहे तो राजा हो चाहै रंक हो क्योंकि वहां तो कर्मराजाका अटल कानून गुप्तपनेसेंही चल रहा है ॥८॥ गाथा-जब तुं आयो जगतमें । लोक हंसे तु रोय ॥ एसी करनी न किजीये । पीछे हसे न कोय ॥१॥
सबरसायन देखिया । आत्म सम नहि कोय ।। एक रती घट जो संचरे । तो सब तन कंचन होय ॥२॥ भावार्थः-योगीराज कहते है कि मैंने नानाप्रकारकी रसायन खाली लेकिन परमात्माके नाम समान एकभी रसायन देखने में आइ नही बिचारे हकीम वैद्य डाकटरों आदि चाहै जितनी रसायन औषधी क्यों न खिला देवें लेकिन शरीरका एक रोमभी सुवर्णका नही बनता किन्तु परमात्माके नामरूपी रसायनका रस एक समय मात्र जो घटमें उतर जावेतो सब शरीर कांचनमयही बन जावै देखो तीर्थकरों के वपु ॥ २॥ अथ पंडित विषे गाथा-वेद शास्त्र पढ़ पढ मरै । आत्मसे नहि हेत ॥ ज्ञानप्याला कोइक पीगये । खाली रह गये खेत ॥२॥
BE TACT
For Personal & Private Use Only
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥२८॥
जीतसंग्रह ॥ २८ ॥
गाथा-आत्मज्ञान समुझे विना । कोटि कथे कोइ ज्ञान ।। तारेतिमिर भागे नही । जबलग ऊगे न भान ॥१॥
भावार्थ:-आत्मज्ञान समुझे बिना या आत्मज्ञानका प्रकाश होये विना तबतक कोटानकोटी ग्रंथ पढनेपर याने मागधी संस्कृत अंग्रेजी तिलंगी उडदू पारसी इतिहास खगोल भूगोल गणित योग नारीकी देव आदिके थोकडे तर्फ शास्त्र कोश काव्य और पुरूषकी बहोतर कला आदि सब सीख लेवे लेकिन अज्ञानरूपी तिमिर उक्तविद्याओसें कभी दूर होनेवाला नहीं है, जैसे तारोके तेजसे तिमिर कभी दूर नही होवे सूर्य उदय हुये बिना जैसे आत्मज्ञानरूपी सूर्यके उदय विना.मिथ्यात्वरूपी तिमिर दूर नहीं हो शक्ता है और मिथ्यात्वरूपी तिमिर दूर नहीं होवै तबतक ज्ञानरूपी मर्यका प्रकाश हृदय कमलमें कभी नहि होवे
गाथा-अवर ज्ञान सो ज्ञानडी । ब्रह्मज्ञान सो ज्ञान ॥ जैसा गोला तोपका । मार करे मेदान ॥शा
भावार्थ:-आत्मअनुभव ज्ञानविना जो ज्ञान है वह ज्ञान एक बंदूक के समानही है और जो आत्म ब्रह्मज्ञान है वहतो एकतो पके समान ही है क्योंकि आत्मज्ञानरूपी तोप कर्मरूपी शत्रुकों एक समयमें गिराय देनेवाली है ।। गाथा-मनदारू तिन नाली करी । ध्याना नल सिलगय || कर्मकटक भेदन घणी । गोला ज्ञान चलाय ॥१॥
भारी कहुंतो कुछ नही । हलका कह्या न जाय ।। सद्गुरुकी कृपा विना । कोण कहै समुझाय ॥२॥ भावार्थ:-कभी आत्माको भारीकहुंतो कुछ वणे नहीं तैसेंही कछु हलका कहुंनोभी वणे नही तातें सुद्गुरुकी कृपाविना और आत्माकै अनुभवविना आत्माका यथार्थ स्वरूपको न कह शके ॥२॥
اللجان كانكالات الاحتلالوكالة الاختند
الهاتفيا فانا لا اله الا لمسلسل السلطال
عالميا لفنانات
Jan Educationa l
For Personal & Private Use Only
www.elbord
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
भावार्थ:--तप जप संयम और ध्यान सब जिंदगीतक क्युं न करले परंतु आत्मज्ञान बिना कभी कल्याण होने वाला नही हैं क्योंकि शुद्ध आत्म उपयोगविना सर्व करणी पुण्य आश्रवरूपही है ॥ १॥
गाथा--काम क्रोध मद मोहकी। जबलग घटमें खान ॥ कहाभूर्ख कहा पंडिता । दोनों एक समान ॥ १ ॥ भावार्थ:- जब तक काम क्रोध मद और लोभको घटमें खान रही हुइ है तबतक क्यातो सूखे क्या पंडित दोनों एक समानही है ॥ १ ॥
गाथा - मुख से जपे राम गुण । कपट हृदय नहि जाय ॥ आपतो समस्या नही । ओरां को समझाय ॥१॥ भावार्थ:-- उपरसे लोक दिखाउं मूहसेतो रामनाम जपता हैं लोक सब देखते हैं कि भारी भक्तराज है | परंतु अपने हृदयसें कपट नही छोड़ता जब खुद आपही नहि समस्या तब दूसरों को कैसे समझाया बुगलाभक्त | १| दोहा - ज्ञानीध्यानी बहुत मिलै । कवि पंडित अनेक । काम दमे जन वश करे | वह लाखो में एक ॥१॥
भावार्थ:- बडी बडी ज्ञान ध्यानकी वातों करनेवाले और बडे २ कवि कविता बनानेवाले तथा संस्कृत भाषा में बडे प्रवीण आदि बहुत ही देखनेमें आये लेकिन इन्द्रियोंको जीतनेवाला कोइ लाखो में एकआधाही मिलेंगे || १ || गाथा - आत्मस्वरूप समझ्यो नही । रखो मायासें मोह । पारस लग पहुंनो नही । रह्यो लोकको लोह ||१|| भावार्थ:- जिसने आत्मस्वरूप जाने नही और अष्ट प्रहर केवल भाया में ही लग रहे है ऐसे पुरुषकों सद्गुरूपी पारसका स्पर्श विना कंचन कैसे हो शकै ? ॥ १ ॥
For Personal & Private Use Only
毛毛毛毛毛號。
जीतसंग्रह
Wainelibrary.org
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥ २९ ॥
गाथा - एक जाण्यां सहजाणिया । बहुतजाण्यां क्याहोय ॥ एकजाणे सब लहत है। सिद्धपद कहिये सोय ॥७॥ भावार्थ:-- जबतक एक आत्मस्वरूपकों जाने नहीं तबतक सर्व सूत्रसिद्धान्त और सर्व गणित योग आदि विद्याओं जाननेका क्या फल क्योंकि एक आत्म तत्वज्ञान में सब ज्ञानका समावेश हो जाता है (एगं जाणइ सवंजाणइ) इति आचारांगवचनात्
गाथा - हमवासी उनदेशके । जहां ज्योति रहै अखंड || अनहद वाजा वाजते । झलके ज्योति ब्रह्मंड ॥१॥ भावार्थ:- हे आत्म भाइयों अबतो हम उनदेशके वासी हैं जहांपर आत्मज्योतिका अखंडित प्रकाश हो रहा है हमारे देशमें कभी अंधेरा होतेही नही और हमारे देशमें नाना प्रकारके अनहद वाजे अष्टपहर गुंज रहे हैं एक समयमात्र भी कभी बन्ध नही रहतें वहांपर आत्मराजाका राज अटल चल रहा है वहांपर परिपूर्ण सुख है क्या सुख हैं कि जन्म नही जरा नही मृत्यु नही और आत्मराजा सिवाय दूसरा कोई भी राजा नही प्रजा नहीं शोक नही संताप नही क्रोध नही मान नहीं माया नही लोभ नही राग नही द्वेष नही वहां पर आत्मराजा अनंतसुख भोग रहा हैं इस वास्ते हे मेरे आत्म भाइयों जो तुमकों पूर्ण सुख भोगने की इच्छा होंवे तो सब मेरे देशचलो तुम सबकों सुखी बना
गाथा - हमवासीउन देशके । जहांवर्णनहीकुलरेख || ज्ञानमिलापाहोरहा । वहाँ नहीं कोईयायानहीको भैख १० भावार्थ:- हे आत्मभाईयों हमतो खास उस देशके रहीस है वहांपर नहीतो कोई जात है नही कोई साधु संत है नहीं कोइ वर्ण कुल न्यात है सबका मेलाप केवल आत्मज्ञानसेंही हो रहा हैं फेर वहां पर नहि कोई बाबा
For Personal & Private Use Only
गीतसंग्रह ॥ २९ ॥
www.jainlibrary.org
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
गाथा-ऐसा काइ ना मिले । शुद्धस्वरूप देवाय ॥ विनयाती अरु तेल बिना । ज्योति झलके घटमांय ॥१॥
भावार्थ:-इस कलिकालमें ऐसा योगी कोइ ना मिलै कि वह महापुरुष मेरे घट के अंदरही अलख अरूपी | आत्माको बता देवे ॥१॥ गाथा-देखा है सो कैसे कहं । कह्यां कौन पतीयाय ॥ देख्या सोतो गुंगला । मुखस कह्या न जाय ॥२॥
कस्तृरीनाभि विषे । मृग ढुंढें वनराय ॥ ऐसे ढुंढत ना मिलें । ढुंढ लहे घटमांय ॥३॥
मन इन्द्रियोतयही मरे । जब मिल सदगुरु सहाय ॥ घटमें देव बताइया बाहिर ढुंढे बलाय ॥४॥ भावार्थ:-सद्गुरुकी कृपासें मन ईन्द्रियो तो सहजसेंही मर गई मन इन्द्रियोके विषय मरने पर अपने घटके अंदर अलख अरूपी देवका दर्शन होनेपर अब बाहेर देवको ढुंढे मेरे बलाय ॥४॥
दोहा-रत्न गमायो कामिये । इन्द्रिय केरे स्वाद ॥ जन्म गमायो धूलमें । अन्ते रोये नाद ।।२।।
भावार्थ:-मूर्खजनोनें इन्द्रियोंके रसस्वादमे रत्नचिंतामणि समान मानव देहको युही धूलमे खोदिये हैं अर्थात् मनुष्यरूपी हीरा हाथमें आनेपर उनकुं युही नादानपने में खोदिया ।।५।। लयेविषे
गाथा-लयलागी निर्भय हुआ। भरम गमाया सब दूर ॥ बाहिर कहाँ ढुंढत फिरे । अंतर देख स्वनूर ॥६॥
भावार्थ:-आत्मस्वरूपमें लय होनेपर सर्व तरहके भ्रम आपसेआप दृरही जाते हैं इसलिये हे भव्य आत्म | देवको छांडके कस्तृरीये मृगकी तरह वाहेरंमे क्यों ढुंढते हो वह परम देवतो अपने घटके विषे विराजमान हैं ॥६॥
ACT in Education International
For Personal & Private Use Only
Ravriv.jainelibrary.org
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
J९इसलिये धोबीके कुत्तेकीनाइ न इधरके रहे है न उधरके रहै कहनेका तात्पर्य यही है कि जब तुम संसारमे | अध्यात्म-56 विचार
JE आयेछे तब कुछ पूजी लायेथे उस पुंजीकी कुछ वृद्धि करी नही लेकिन उन पुंजीका यहां व्यय करके पीछे खाली
हाथ घिसते हुये भूल पुजीको यहां खोके युही चले गये इसलिये कमाईबिन आगे जाकर क्या खाओगे इसलिये संसारमें आयेतो क्या और नहीं आयेतो क्या कुछ सारनही इसलिये पशुकी तरह मनुष्य जन्मको युही हार गये.
दोहा-आजकालदिन पाँचौ । जंगल होगा वास ॥ उपर गधा लेटसी । ढोर चरेंगे घास ॥१॥ ___ क्युं सूता है निदमें । गाफल करो विचार ॥ एक दिन ऐसा आयगा । सोनापैर पसार ॥२॥
भावार्थ:-हे मूख तु निर्भय होकर मोहरूपी गाढ निद्रामें कैसे सोता है तेरे शिरपर काल चक्र घूम रहा है ईस लिये हे गाफिल मोह निद्रामें जागृत होकर परमात्माको भजके अपना कल्याण करले जो तुं प्रमाद निद्राको नहि छोडके परत्माको नहि भजेगो तो अंतसमयमें दोनो हाथ घसता हुआ बुरी हालतसे लम्बे पैर पसारके स्मशानके विषे गधेकी तरह लेटकर सीधाही यमपुरीका टीकट लेनाही पडेगा ॥१॥ दोहा-परमात्म भजे नहीं । नही मुनिसुं हेत ॥ ऐसे पुत्रको जननी तुम । कभी जन्म मत देत ॥१॥
अथ मायाविषे दोहामायावडी है मोहिनी । मोहे जान अजान ॥ भोगेतो छूटे नही । भरभर मारे बान ॥२॥ माया तरुवर जहरका । शोक दुःख संताप ॥ शीतलता स्वप्ने नही । फल फीका तनु ताप ॥३॥
कामDOWapMान्साकाचार
الاكاليل فاكة للفاسق
علميه
والمتعلمها
Join Education international
For Personal & Private Use Only
www.inneby.org
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म- विचार
भेखधारी है तैसेंही वहां पर नही कुछ भूख के प्यास है क्योंकि वहांतो बिन बादल ज्ञानरूपी अमृतकी वृष्टि हो|
निको जीतसंग्रह | रही हैं. ॥१॥ अथ पंचमहाभूतके विषे
साखी-पांच भूतका पूतला । मनुष्य धरिया नाम ॥ दायदिनांके कारण । क्यु धरावै नाम ॥१॥
भावार्थ:-पृथ्वी अप्प तेऊ वायु और आकाश ऐसें पांचभूतका बना हुआ यह शरीररूपी पूतला है जिसमें हे भव्य तेने दो दिन विश्रामा लिया है इस शरीररूपी पुतलेका कल्पना करके मनुन्य पुरुष नर और अमरचन्दजी हुकमचन्दजी आदि नाना प्रकारमें पुतलाके नाम रखे हैं फेर मनुष्य स्त्री देव नारक तीर्यश्च आदि नाम रखे है जिस पुतलेमें तुं जडरूप बनके क्या मान घमंड रखता है लेकिन तेरा स्वरूप इस पुतलेसें सदा भिन्न है इत्यर्थः
गाथा-गये सोतो ना मिले । किसको कहुं वात ॥ मात पिता सुन बांधवा । झूठा सब संसार ॥१॥
भावार्थः -मात तात सुत बंधु आदि जो संबंधी थे वहतो सब लम्बे देशकों चले गये वह कभी पीछे आने वाले नहीं है नहीं कुछ मालुम कि वह सुखी है नही कुछ उन्होंका खत पत्र तार और समाचार है कि वह सब अमुक देश विलायतमें रहता है नहि कुछ मालुम कि वह सुखी है कि दुःखी है इस लिये गुरुकृपासे ऐसा मालुम होता है कि मात तात स्त्री पुत्र धन आदिका सर्व प्रपंच झुठ इंद्रजालके समान दिखलाता है.
गाथा-क्या स्वार्थ किया आयके । क्याकरोगे जाय ॥ इतके भये न उतके भये । चलेमूल सब खोय ॥१॥ भावार्थ:--हे आत्मभाइयों तुमने संसारमें आयकर क्या सुकृत किया और यहांसे पीछे जाकर क्या करोगे
For Personal Private Use Only
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्म
ठीकाने सरही पडे रहतें है लेकिन कुत्तोरूपी इनद्रियोके भोगी युही रोते चले जाते हैं ॥२॥ विचार
गाथा-माया तजी तो क्या हुआ। मानहीतज्या न जाय ॥मानवडे मुनिवर गल्या । मानहि सबको खाय ।।
भावार्थ:-कभीकोई पुरुषको वैराग्य प्राप्त होने पर मायाको छोडके दीक्षा ग्रहण करलिया जिसमें क्या हो गया लेकिन मानरूपी राक्षस निगलगया है तब अन्यजीवोंका कहनाही क्या था सर्व संसारी जीवोंका भक्षण करने KE वाला मानरूपी राक्षसकों जीतना यह कुछ सामान्य बात नहीं है देखलो बाहुवल राजऋषिकों ॥१॥
गाथा--मानमिल्यां सुख उपजै । अपमाने दुःख होय ॥ खरी कसोटी परखलो । देख लहु सबकोय ॥१॥
भावार्थ:-मान मिलनेपर जीवकों कितनी खुसी होती है और अपमान होनेपर कितना दुःख होता है जबतक मान अपमानका विचार है तबतक उनकों एक रतीभरभी ज्ञान नहीं हैं इनमें झूठ होतो कलिकालके मुनियोंकी परीक्षा कर देखलो. सवैया-जेअरिमितवरायरजानतपारसऔरपाखानज्युदोई। कंचनकीचसमानअहेजसनीचनरेशमांभेदनकोई ॥
मानकहाअपमानकहा साविचारनहीतसुहोई । रागअरोषनहीजाकेचितज्युंधन्यअहेजगमें जनसोई ॥१॥ अथ कालचक्र विषे दोहा-सवजगडरपें कालसें । कठिन काल को जोर ।। स्वर्ग मृत्यु पातालमें । जहां देखंतहां सोर।।
भावार्थ:-इन्द्र चन्द्र नरेंद्र आदि सर्यप्राणी कालचक्रसें कंपते है क्योंकि कालवलिका जोर बहुतही भारी है स्वर्ग मृत्य और पातालमें याने तीनोंही लोकमें जिसका अलराज चल रहा है ॥१॥
Jain Educators
For Personal & Private Use Only
M.ininelibrary.org
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्म
भावार्थ:-जगत्में मायारूपी भयंकर जहेरी वृक्ष खडाहै जिसमें नानाप्रकारके शोक संताप और महा विचार
दुखरूपी फल आरहेहै उस जहरी वृक्षके फल खानेवालेकों उपरसें बहुतही मधुर और स्वादिष्ट अज्ञानी जीवोंको लगते है लेकिन मायारूपी वृक्षके फल खानेवाले सीधे ही नरकमें जाते है और इस भवमें भी नाना प्रकारके शोक संतापरूपी ताप सहते है॥१॥
गाथा-मायाजगमे सापनी । जिनेताहेको खाय ॥ ऐसा गामडी ना मीलै । पकड पछाडै तांय ॥१॥
भावार्थः-इस जगतमें माया बडी भारी एक सापनी है जैसे सापनी अपने बच्चेकों जन्मदेकर आपही खा जाती है तैसे मायारूपी सापनी सब जगतको खा जाती है लेकिन मायारूपी सापनीका काटा हुआ उनका जहर | उतारनेके लिये कोई गारुडी या मन्त्रवादी नहीं है एक सद्गुरु सिवाय कोई भी गारुडी नहीं है और सद्गुरु गारुडी बिना मायारूपी सापनीको पकडके पछारनेवाला कोइभी दुनिया भरमें नही दीग्वलाता ॥१॥ गाथा-मायामें कछु सार नहीं । काहे को ग्रहेगिंवार ॥ स्वप्ने पायो राजधन । जातांन लागेवार ॥१॥
अस्थी पडै मैदानमें । कुकर मिलै लखक्रोड ।। दावाकर कर लड मुयें । अन्त चले सब छोड ॥२॥
भावार्थः-मेदानमें केइ पशुओंके अस्थि याने हाड पडे है उसमें केई लखों क्रोडो कुत्तोरूपी मनुष्यो इंद्रियोंके Jलोलुपी संसारमें ईकडे मिले हुये है मायारूपी हाडकोंकी मालकीके लिये वह नानाप्रकारसें दावा कर करके लडलड
| शिर फोडफोड विचारे मरते है इसलिये अफसोसके साथ वहना पड़ता है कि मायारूपी अस्थि याने हाड अपने
For Personal Pre
se Only
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
2 दुनियांमें कोई विरलाही मिलेगा ॥१॥ अध्यात्म
जीतसंग्रह विनार गाथा-निर्भयहोकरविचरपडे, निशदिनकवुनहिचालेडरके ।। अपनेआपमें आपहीदेखे,धन्यभाग्यहै वा नरके ।।
| ॥ ३२ ॥ ॥३२॥
भावार्थ:-इस कलिकालके विषे सत्य और निर्पक्ष धर्मकी प्राप्ति होनी अति कठिन हैं कभी पुण्य संयोगे dil सत्य धर्मकी प्राप्ति होगह तोभी क्या होगया क्योंकि सत्य श्रद्धान आना बहुतही कठीन हैं इस पश्चमकालके प्रभा| वसे पवित्र जैनधर्मके विषे केई तरहके मतवाले और वाडे दृष्टिगोचर आते है अपने अपने वाडोंवाले दृष्टिरागी
अंधे भक्तोंकों समझाते है कि हमारे सिवाय दूसरोंके पास जाना आना आहारपाणी देने में एकान्त पाप है और समकितभी मलीन होता है इसलिये दूसरे बेषधारी साधुओके पास नहि जाना चाहिये पास जानेसे समकित चलाजाता है ऐसा कहकर अपना २ सय याडा बांध रहे है उनके अंध श्रद्धालुओको कुछभी सल्यासत्य धर्मकी पहिचानही है बेचारे खाली पक्षपातमें और कदाग्रहमें डूबरहे है दूसरोंकी यातही नहिं सुनते इस लिये सर्व आत्मभाइयोसें मेरी अरज है कि आप सब सज्जनो अपना २ तब मत कदाग्रह छोडके निर्पक्ष जैन सिद्धा-135 तोके अनुसारे सत्य वक्ताकी खोज करके सत्य धर्मका निर्णये करो क्योंकि एक तर्फला फेसला राजभी नहीं | देते दोनो तर्फकी बात सुननेसें न्याय होता है कि सच्चा कौन है और झुठा कौन है दोनोका निर्णय करके सत्यको ad ग्रहण करना चाहिये और असत्यको छोडना चाहिये संवेगी ढुंढीये तेरे पंथी दिगंबरी हेमापंथी कडवापन्थी
तीनथूयों विष्णु और सेख सहीद आदि षट् दर्शनवालोसें कुछभी मतलब नहीं है मतलब एक आत्मकल्याणसे है
E
JainEducation
IN
For Personal & Preise Only
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसं
गाथा-खड खड हसे ठीकरी । घड घड मुये कुंभार ।। रावण जैसे चल गये । लंकाके सिरदार ॥१॥
भावार्थ:--मिट्टीकी ठीकरीके समान यह उदारीक शरीर है वह मुखसें खड २ हसके कहता है कि ब्रह्मा जैसे प्रजापति इस शरीररूपी ठीकरीकों बनवाके चलगये और रावण जैसें मट्टीके भांडेभी चल गये लंकाके सिरदार तब अन्यकी किसने चलाई ॥१॥
गाथा-धम्मन धूग्वंति रह गई । वुझ गई लालअंगार । एरण ठबको मिट गयो गयो उठ चाल्यो लोहार ॥१॥
भावार्थ:-आत्मारूपी लोहार चलजानेपर शरीरकी सब धम्मनी नाडियों आपसें आप बंध हाजाती है तब जठराग्निरूपी अंगार आपसें आप वुझ जाती है अर्थात् आत्मारूषी लोहार के जानेपर सर्वशरीरकी धम्मनीयों बंध होजाती है तब जठराग्नि आपसे आप वुझ जाती है और उस समय नाडियोंका सब ठवका चुप चाप हो जाते है
गाथा--जागो लोको मत सुओ। मतकरो निंदसे प्यार ॥ जैसास्वमा रेणका । वसा यह संसार ॥॥
भावार्थ:--हे भव्य अव मिथ्यात्वरूपी निद्रासें जागृत होकर धर्म कार्यमें सावचेत हो जावो क्यों कि यह | संसारिक याने यह पुद्गलीक सुखरैणके स्वप्नके समान असार है ॥१॥
गाथा-जबलग आसा शरीरकी । निर्भय होय न कोय ॥ काया माया मनसे तजै । तब निर्भय पद लहे सोय १
भावार्थ:-हे भव्य जबतक इस शरीरमें ममत्वभाव रहा है तबतक निर्भयपदकी प्राप्ति कमी नहि हो शके परन्तु शरीरकी ममता और माया जब तनमनसे छुटेगा तबही निर्भय पदकी प्राप्ति होगी ऐसा पुरुष सर्व
JainEducation inik
For Personal & Private Use Only
EPlanelibrary.org
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
॥ ३३ ॥
Jain Education
श्लोकः - महाव्रतसहस्रेषु । वरमेकोहितात्विकः ॥ तचात्विकसमः पात्रं । न भूतो न भविष्यति ॥ १ ॥
भावार्थ:- हे कृपासिंधो इन्द्रियजनित विषय सुखमें लम्पट होकर मेने अनेक कुकर्म कमाये हैं इसलिये मेरेको धिक्कार हैं है दीreat बातबात में क्रोध मान माया लोभ और छल भेद मैं करताहुं इसलिये मुझे धिक्कार है है कृपा सिंधो विकथामें परनिंदा में परइर्षामें मेरा सर्व जन्म वरतीत होगया, परंतु देवगुरुभक्ति में मेरा एक समयमात्र भी नही गया इसलिये मुझे धिक्कार है है नाथ मैंने यश कीर्ति दुनियामें बढानेके लिये भोली जनताको भोलाके धर्मके खूप धामधूम कराये इसलिये धिक्कार है 'धामधूमे धमाधम चली ज्ञान मार्ग रह्या दूररे' हे नाथ मैं पापके स्थानक सेवनेके लिये बडाही शूरवीर हुं लेकिन धर्मकार्य के लिये पूरा २ कायर हुं इसलिये मुझे वारंवार धिक्कार हे जगद्वत्सल प्रभो ! मोहके वशीभूत होकर नाना प्रकारकी विधवा सधवा बाल कुमारिका सुन्दर स्त्रियोंके साथ मैं भोग विलास कर चुका हूं ओर अब मेरा शरीरभी जरजरीभूत होगया है तो भी हे नाथ मुझे धिक्कार हो हे त्रिभुवनस्वामी मेरी आयु गल गई लेकिन मेरी पापवृद्धि नहीं गली ईसलिये मेरेको धिक्कार है हे स्वामीनाथ मेरेमें संयम चारित्रका गुण एक लेशमात्र भी नही होनेपर मुनियोंकि तरह दृष्टिरागी बनियों के पास याने नाम मात्र श्रावकोंके पास सेवा भक्ति वंदन करारहा हूं इसलिये मेरेकों पुनःपुनः धिक्कार हो फेर अनुकूल प्रतिकूल खानेपीनेकी चीजमें मेने हर्षशोक किये इसलिये मेरेको धिक्कार है हे नाथ मेरेको सदैव विषय भोगकी ईच्छा बनी रहती हैं लेकिन योग समाधिकी इच्छातो स्वप्ने में भी
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ।। ३३ ।।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
उनके उद्धार हानेके लिये कोशीस होनेकी जरूरत समान समझके रागद्वेषका त्याग करके अपना कल्याण करके अपनी आत्माको मलीन करना नही चाहिये यही धर्मकी सारंस है.
दोहा - धर्मधर्म सबही कहै । विरला जाणे कोय ॥ सत्यासत्य जाणे नही । धर्म कहांसे हाय ॥ १ ॥
कोशीस यही है कि सर्व जीवोंको अपनी आत्माके करना चाहिये लेकिन खाली एक दुजेकी निंदा
अथ परमात्मासे प्रार्थना - हे प्रभो यह शरीर धन स्त्री पुत्र कुटुम्ब परिवार आदि सर्व पदार्थों मेरेमें भिन्नरूप | होनेपर भी मैं मेरा तन मनसे मानता हूं इसलिये मुझे धिक्कार हो हे जगत्सल! जिस दिन उपरोक्त कुटुम्ब परिवा | रका मोह छोडके महा पुरुषके पन्थे चलूंगा वो दिन धन्य मानुंगा हे जगद्वन्धु मैं मेरा निज सुख छोडके केवल पु| लीक इंद्रियसुख और परिवारके लिये सदैव नानाप्रकारसे पापारंभ कररहा हूं इसलिये मुझे पुनः पुनः धिक्कार हो जिस दिन मैं सब तरह के पापारंभको छोड़के आत्मकल्याण करूंगा वह दिन धन्य मानुंगा हे कृपासिंधु जिसदिन मैं कदाग्रह वाडाबंधी धर्मकात्याग करके महा पुरुषके पन्थे चलूंगा वो अपूर्व दिन मुझे कय प्राप्त होगा हे स्वामीनाथ चेलाचेली पुस्तकआदिका मोह छोडके गिरिकंदराके विषे निर्भय होकर ध्यान समाधि लगाकर आत्म अनुभवरूपी रसका पान करूंगा वोदिन मुझे कब प्राप्त होगा हे प्रभो सत्य प्रिय और सब जगत् हितार्थी शुद्ध निवेद्य वचन बोलेनेका उपयोग मुझे कब प्रप्त होगा मैं सदैव विना विचारसें और आत्मउपयोग सुनतामेही बोलना इसलिये मुझे विक्कर है हे जगद्वत्सल शक्ति होते भी मैंने सुपात्रको दान नहीं दीये तसंही सेवा भक्ति और तर नहि किये,
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह
jainelibrary.org
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥३४॥
जीतसंग्रह ॥ ३४ ॥
ममत्वभाव और राग द्वेषकी प्रणतिसें यह चैतन्य अनादि कालसै चारों गति में भटक रहा हैं यह पञ्चेन्द्रियके विषयभोग नाशवान क्षणभंगुर है भोगविलासमें रक्त होनेपर आत्माको अनंत कालतक नरकनिगोद और तीर्यच योनिमें महाभयंकर दुःख भोगने पडते है ऐसा विचार करके सर्वतरहसे विषयभोग छोडके सदा आनंद सुखदाई अक्षय अनंत ज्ञान दर्शन चारित्र और सत्य ब्रह्मचर्यमयी धर्मकों ग्रहण करके मेरा कल्याण करुंगा वहदिन धन्य मानुंगा यह अनित्यभावना भाते हुये भरतचक्रीको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और सय दुःखोसे मुक्त हुआ.
दोहा-राजाराणा छत्रपति । हथियनके असवार ।। मरना मयको एक दिन । अपनी अपनी वार ॥१॥ गाथा-परिजन मरतो देखिने रे । शोग करे जनमूढ ॥ अवसरे वारो आपनोरे । सहुजननी ए रूढरे ॥२॥ बसंततिलका छंदः-व्याघ्रीवतिष्ठतिजरा परितर्जयन्ति । रोगाश्चशत्रवइव प्रहरंति देहम् ॥
आयुःपरिस्रवतिभिन्नघटादिवांभो । हाहा तथापिविषयान्न परित्यजन्ति ॥३॥ भावार्थ:-हे भव्य जरावस्था वाघनकी तरह समय २ म शरीरका भक्षण कर रही है फिर नाना प्रकारके रोगा शत्रुकी तरह दुख देरहे है और फूटे घटकी तरह अथवा करअंजलीकी तरह आयुःक्षणक्षणमें नाश होरहाहै तोभी अज्ञानी भूढ मति विषयसुखकों छोडके धर्मध्यान नहीं करते हाहा इति खेदे ॥३॥
अब अशरणभावना कहेंगे-अज्ञान और मोहराजाके वशीभूत हुआ यह जीव पुद्गलीक सुखके लिये धन दारा पुत्र कुटुंब परिवार आदिको अपना समझते हैं अर्थात् सबको सुग्वका कारण मानते है परन्तु ज्ञानदृष्टिस नहीं
الفنانة العا
UAdoninhinातबार
اسم الاسكان
بنك
in Education
!
For Personal & Private Use Only
A
udiainelibrary.org
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
नहीं होतीती ईसका क्या कारण होगा हे कृपासिन्धो अति हिंसक कार्यमें अति राग द्वेष विषयी विचार
विकारमें अंध हुआ मैं गुणीजनोंकी निन्दा आदि महा मोहनी बन्धके हेतु मेने काम किये हैं ईसलिये मुझे धिक्कार हों अब श्रावकके तीन मनोरथ कहेंगे श्रावक सदैव ऐसा मनोरथ करेकि मैं हिन्सा असत्य अदत्त अब्रह्मचर्य सब तरहका आरंभ परिग्रह आदि यह सब मुझे दुर्गतिमें लेजानेवाले है महादुःखदाइ कर्मबन्धके | हेतु है चारों गतिमें रूलानेवाले यह सब आरंभ परिग्रह आदि मनवचकायासे त्याग करके जिस दिन सम्य
क्सहित संयम लेकर आत्मकल्याण करुंगा वो दिन मेरा सफल होगा १-२ मैं अंत समय मनवचन और कायासे किये कगये अनुमोदे हुये पापोंका पश्चाताप करके शुद्ध मनसे सदगुरुके पास प्रायश्चित आलोयगा लुंगा
और च्यार तरहके आहार अगर तरहतरहके पापस्थानकका प्रत्याख्यान करके और राग द्वेष रहित होकर पंडित Jeमरण करुंगा वोदिन सफल मानुंगा ॥३॥' अव भव्यजीवोंके कल्याणकेलिये बारहभावनायें कहुंगा.
गाथा -नविसुहीदेवतादेवलोए । नविसुहीपुढचीपइराया॥ नविसुहीसेठसेगावइय । एगन्तसुहीमुणिवीयरागा १
भावार्थः-नहीकोइ सुख है देवलोके देवताओंको नहिकोइ सुख हैं पृथ्वीके रायराणोंको नही कोइसुखही है सेठ सेनापनिकों परंतु वीतरागी मुनिकों एकान्त सुखही है दुःखको नहि लवलेश ॥१॥ शरीर धन भोग स्त्री पुत्र | पति माता पिता परिवार ऋद्धि सिद्धि चौदह रत्न अश्व हस्ति वस्त्र पात्र घर हवेली दुकान बाग बाडी गाडी आदि सर्व पदार्थो नाशवान है । हे चैतन्य इसमें तेरा सगा सम्बन्धी कोइभी नही है नाहक ममत्व करके क्यों कर्म बांधता हैं
Jain Education
For Personal & Private Use Only
--Towar.janelibrary.org
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
बन्दीखानेसे छात्मा संसाररूपी
मिक ईन्द्रिय
कदैखोरकनोयोग्यमिल्योतोसंतन न होय उरें ॥ जोमिलेसर्वसंयोगतब शरीर तुरतही छुटै ॥१॥
जीतसंग्रह न संसारे कश्चित सकलसुखभोक्ता क्योंकि अनादिकालसें मैराजीव जन्म जरा और मृत्युरूपी दुःख इस संसार सागरमें भोग रही है इसका मूलकारण अज्ञान ही है अज्ञान और मोहके वशीभूत हुआ यह आत्मा संसाररूपी | कैदखाने में दुःखही दुःख भोगरहा है इसलिये जिसदिन मैं संसाररूपी बन्दीखानेसे छुटुंगा वो दिन धन्य मानुंगा अर्थात् बन्धीखानेसे छुटके अनन्त अव्यावाध आत्मिक ईन्द्रिय रहित पूर्ण सुखमय मोक्षसुख पाउंगा वो दिन मेरा सफल होगा मुझे इस संसार चक्रमें परिभ्रमण करतेको अनन्ते कालचक्र होगये है जिसमें सर्व तरहके मेवे मिष्टानादिकके भोजन करचूका हुं और अच्छेसे अच्छे वस्त्र आभुषण मान सत्कारादि अच्छे अच्छे राज्यभुवन देवलोकके विमान आदिके सुख अनन्तीबेर भोग आयाहं तैसेंही नरक तीर्यश्च योनिके विषे भूख प्यास छेदन भेदन ताडण | मारण आदि क्षेत्रवेदना अनन्ती अनन्तीबेर मारखाके आयाहुं तोभी ईसजीवकुं नहीतो संतोष आता न तृषणा बुझती हैं जसे आगमें धृतकी आहुती देनेपर अग्नि शांत नहीं होती लेकिन उलटी वृद्धिको प्राप्ति होती है ऐसे विचारके सर्व संसारके बन्धन छोडके शालिभद्रकी तरह दीक्षा लेकर साधन करै वहजीव सुखी होवे. दोहा-धनविनतो निरधन दुखी । तृष्णावंत धनवान ॥ कोउ न सुखी संसारमें । सब जग देख्या छान ॥१॥
होय न तृप्ती भोगसें । यही अनादी रीत ॥ जो संयम गुण आदरे । रहे सकल दुख जीत ॥२॥ पर द्रव्य पर त्रिया विषे । माता रहै दिन रात ॥ यही संसारका बीज है । अलग रहो सब मित ॥३॥
انها تلك الحالات الاعلان الثالث:
لا
المنا
JninEducation the
For Personal & Private Use Only
A
lainelibrary.org
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
विचार
अध्यात्म- ad देखता कि यह सब परिवारका मोह ममत्व सुखके कारण है कि दुःखके कारण है जो तत्वदृष्टिसे देखा जावेतो वह
सब दुःखके कारणही हैं अशरण रूप है और नरक तीर्यचके महाघोर दुःखदेनेवाले है मैरे आत्मिक अनन्त सुखके | यह सब घाती है ऐसा निश्चय दृढ विचार करके और सबका मोह छोडकर शुद्धात्म उपयोगसें शुद्ध ब्रह्मचर्य सत्य संयम तपश्चर्या और ज्ञान ध्यानसें आत्मकल्याण करना चाहिये देखो कलियुगका जटेटा गाथा-बेटा झगड़त बापसे, करत त्रियासे नेह । वारवार यु कहत है, हमकुं जुदा कर देह ।।
हमकुं जुदा कर देह, घरमें चीज सब मेरी । नहीतो करूं फजीत, पत जावेगी तेरी ॥
__ कहै दीन दरवेंश, देखो कलियुगका टेटा । समय पलट गया, बापसे झगड़त बेटा ॥१॥ तीसरी संसार भावना. गाथा-नसाजाइनसायाणी । नतंठाणंनतंकुलं । नजायानमुयाजथ्थ । सबेजीवाअणंतसो।।
भावार्थ:-सब लोकके विषे अनंतानंत जीवों रहे हुये है दरेक जीवके साथ एक एक जीवने मात पिता भाई भगिनी स्त्री पुत्र पुत्री सासु ससरा चाचा चाची मासी मामी मामा आदिके साथ अनंती अनंती वेर सगपण हो चूके है कोइभी योनि और कोईभी कुल और कोइभी स्थान बाकी नहीं रहाकि जिसमें यह जीव उत्पन्न नहीं हुआ हो सब जीवों एक एक योनि कुल और जातिके विषे अनंती अनंती वेर जन्म मरण कर चुके है सर्व योनिके विषे.झुलणा-एसंसारकाचाताणातण्याछै । सांधीयेसाततहांतेंरेतटै॥
कदैशरीर आरोग्यतातो योग्य स्त्रीनो नामिलै । कदैस्त्री तणो योग मिल्योतो खोरकखूटै॥
الافكارللكشاف فيه الفانتنیان الاغاني
Join Education til
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.pra
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥ ३६ ॥
अज्ञान और मिथ्यात्वों दूर करके कर्मरहित अशरीरी शुद्ध परमात्मरूप सिंहकी तरह होउंगा ऐसी एकत्व भावना नमीराजाने चित्तमें धारणकरके सर्वराजऋद्धिकों छोड़के संयम ग्रहणकरके और अकेला विचरके अपना कल्याणकिया गाथा - बेपणपटपटथायरे । चूडिनीपरेंविचरूंअकेलो || एमबुवानमीरायरे । ममकरममतारे समताआदरो || १ | ज्ञान ध्यान चारित्रनेरे, जो दृढ करवा चाय तो एकाको विहरतारे, जिनकल्पा दिसायरे ॥ प्राणी सकल भावनाभाव, शिवमार्ग साधन दावरे प्रा० ||२||
।
Jain Educationilionl
साधुभणी गृहवासनीरे । छोटी ममता जेह || तोपणगच्छवासीनोपुंछडोरे । छूटोन हितेहरेप्राणी ॥३॥ वनमृगनीपरेतेहधीरे । छांडि सकलप्रतिबन्ध || एकाकाअनादीनोरे । किणधीतुझप्रतिबन्धरे प्रा० ॥४॥ शत्रु मित्रता सर्वथी । पामीवार अनन्त || कौन शयण दुश्मणकि स्यारे । काले सहुनो अंतरे प्रा० ||५| बांधे कर्म जीव एकलोरे। भोगवे तेपिण एक || किन उपर कि बातनीरे। रागद्वेषनीटेकरे प्रा० || ६ || जोत्ति एकपणुं ग्रहरे । छांडी सकल परभाव । शुद्धात्म ज्ञानादि शरे । एक स्वरूपे भावरे प्रा० ||७|| आयो पण तु एकलोरे। जासी पण तुं एक ॥। तो ए सर्व कुटुम्बधीरे । प्रीतिकैसी अविवेकरे प्रा० ||८|| परसंयोगी बन्धछेरे । परवियोगधी मोक्ष | तेणे तजी पर मेलावडोरे । एकपणो निजपोपरे प्रा० ||९|| ज्ञायक रूप हुं एकछुरे । ज्ञानादिक गुणवंत || बाहिर जोग सहुअवरछेरे । पाम्योबारअनन्तरे प्रा० ॥ १० ॥ इसलिये यह कुटुम्ब परिवार आदि कोइ भी मैरा सम्बन्धी नही है
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह
॥ ३६ ॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
Jain Education i
भावार्थ:- परद्रव्य और परस्त्रीमें ममत्वभाव जो रखना यही संतारमें उत्पन्न होनेका बीज हैं जिस्मे जन्म जरा और मृत्युरूपी नाना प्रकार के फल आरहे है इसलिये महात्मा पुरुषों कहते है कि हे मित्र विषयसुखकों किंपाकके फूल समान समजकर विषयसुखसें और द्रव्यसे अलगही रहो ॥ १ ॥ अथ पैसोंके विषे, कवित— पैसा बिनमाता पुतकोंकपूतक है, पैसाबिनयापक है बेटा दुखदाई है । पैसाविन भाइकहैकिसिका भाईहै, पैसा बिन जो मंगछोड जावे है || पैसाविनसासूक है किसकाजवाईहैं, पैसाविनपाडोसीक है
यह गमार है, आजके जमाने में पैसों की बडाइ ॥ १ ॥ माताकहॅमेरा पूनसपूता । वेन हैमेरे भइया | घरकी जोरुयुंक है । सबसेबडाम्पैया ||२|| अथ चोथी एकत्व भावना
दोहा - आप अकेलो अवतरे । मरेअकेलोआप | कोयन अपनेजीवको । सगोसहायनवाप ॥ १ ॥ भावार्थः - भव्यजीवोंको ऐसा विचारना चाहिये कि मैं अकेला इस संसारमें आया हूं और अकेलाही जाउंगा मेरा सम्बन्धि संसार में कोइभी नही है मेरा सम्बन्धी एक केवली भाषित सत्य धर्मही है और मेरा स्वरूप सब जगत् से निराला और सिद्धके समान है अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त चारित्रमय अरूपी है और पांच द्रव्योसें मेरा स्वरूप भिन्न है मैं सदैव एक स्वरूप हुं और नित्य हुं सत्यस्वरूपमय हुं सदा आनंदमय हुं एकेलाही आया हुं अकेलाही जानेवाला हुं इस संसारमे कोइ भी पदार्थ मेरा नही है यहतो अज्ञानता से अजसिंहकी तरह मेरी अनादिकाल से कर्मसंयोगे भूल हो गईथी इसलिये में अनादि कालसें दुःख भोग रहा हुं अब सद्गुरुकी कृपासें
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह
Mulinelibrary.org
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
दोहा—जहां देह नहि आपनी । तब दृजा अपनाकौन || दीसे यह परतक्ष जुदा । प्रगटही धनतन भौन ॥१॥ भावार्थ:- हे चैतन्य जब यह शरीर भी अपना नहीं हैं तब दूसरा अपना कौन होगा स्त्री पुत्र मात पिता ऋद्धि परिवार आदि सब आपसेआप अलगहो चूके यहतो प्रत्यक्ष प्रमाण है ताभी अज्ञानतासे सबकों मेरा समझ कर नानाप्रकारसे दुःख उठा रहे है
दोहा - भेदज्ञान से मुक्ति है । युक्तिकरोसबकोय ॥ वस्तुभेदलह्याविना । मुक्तिकहांसे होय ॥१॥
भावार्थ: - यह भावना मृगापुत्रने संसारको सुख अतार जाणके सबका त्याग करके महावीरपरमात्माके पास दीक्षा लेकर मोक्ष सिधाए
गाथा - पृथ्वीक है मैं नित्यनवी । किसकीनपूरीआश || केइक राणामरगये । केइकगयेनिराश || १ ||
अशुचिभावना सवैया-
हाडकोपींजरोचाममढ्योपुनिमांहिभर्योमलमूत्रविकारा । थूकअरुलालवहेमुखद्वार पुनिव्याधिवहेनवद्वारहिद्वारा || एसें शरीरमें रहकर मूर्खअबकौन करेशोचविचारा | मांसकी जीभ में खातसबआहारात कोकरोमतिमानवचारा ॥१॥ इस अशुचि मांस रुधिर मल मूत्र वीर्य श्लेष्म खेखारा चरबी पित कफ वायु कभी नसों आदि परिपूर्ण भरा हुआ यह शरीररूपी पिंजरा हैं और पांचभूतका बना हुवा है
दोहा - पांच भूतका पुतला | मनुष्य धरियो नाम | दोय दिनोंके कारणे । क्या धरावे नाम || १ ||
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह
ww.jainelibrary.org
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
www...
इसअशुचीरूपी पीजरामें कोइभी अच्छी वस्तु रमणीय और बहुत खसवेदार कोइभी दृष्टिगोचर नहीं आती अध्यात्म-IBE
TET जीतसंग्रह विचार
JE क्योंकि सदानव तथा द्वादश दाशेसे महादुर्गन्धी निकल रही है इस शरीररूपी पीजरेमें अच्छेसे अच्छी केसर JET ॥३७॥ कस्तूरी दृध दधी कोइभी सुगंधीदार पदार्थ डालकर देखलो एकपलभरमे वमन होनेपर महादुर्गधहोके निकलेगे
ऐसे गंधे शरीरपै मोहित होकर नानायकारसे स्नान मंजन अशर फूलेल आदि लगाके हे मढ क्या सुख होता है | अष्टप्रहर इस वपुकी क्यों गुलामी उठा रहा है तेरेको शरम नहीं आती अहा अज्ञान आनंदघन | Je हीरो जनछंडी नरमोह्यो माया कायाकंकेरी हे भव्य! ईस शरीरकुं अशुचिका कोथला जोनके मोह नहि करना ३६
चाहिये यह शरीररूपी पीजरा केवल भाडेका घर हैं अपना घरना नहीं है अपना घरतो अनंतज्ञानमयी है ईस शरीरकों जो ज्ञानीने रत्नचिंतामणिकी ओपमादीनी है वह केवल आत्मकल्याणके लियेही दी हुई है इसलिये इस शरीरद्वारा ज्ञान ध्यान और चारित्रकी आराधना करके अपना कल्याण करना चाहिये परन्तु एक समपमात्रभी प्रमादमें खोना न चाहिये शरीरद्वारा ज्ञान ध्यान करना यही शरीर पानेकासारयही है.
गाथा-यतनविनकहोकिणे । साचासुखनिपजायारे ॥ अवसरपायेनचूक । चिदानंदसदगुमएमदर्शायारे ॥१॥ दोहा-दीपे चाम चादर मढी । हाडपीजरो देह । भीतर या शरीरमें । दीसे नहीं घनघेह ॥१॥
भावार्थ:-हाडपिंजरवाली यह काया उपर चामरूपी चदरसे मढीहुई है इस लिये सुंदर खुबसूरत देखलाती है जैसे दिवाल कलीसे सोभित करीहुइ चमक रही है लेकिन जो ज्ञानदृष्टिसे देखा जावेतो दिवालके अंदर क्या सार र
قناتنا متعوا بان الاردن
DAMOD
: توافقنا في
JainEducation
a l
For Personal & Private Use Only
,
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
विचार
अध्यात्म- पदार्थ भरे है वह शीघ्रही ज्ञान होता है तैसेही इस शरीरके समान दूसरा कोइभी अशुचि और दुर्गन्धीवाला स्था-
Da नही नही दीखलाता जब इस शरीररूपी कुटीसें चैतन्यरूपी राजा निकल जाता है तब फोरण्टही इसका नाम बदल जाता है सब दुनियां इस शरीरकों मुडदा कहते है
दोहा-यह शरीर विष्टा कोथली । तेमाह शुं मोहाय || ममता तज समता भजे । ते नर मुक्तिजाय ॥१॥
ऐसाज्ञान विचारके जो माणुभाव ईस महामलीन अपने या परके शरीर मोहित नहीं होता उसकोंही धन्यवाद है जो विष्टाकी कोथलीके समान गन्धी देह मोहित होकर स्त्रीसे भोगविलास करते है वह नर नवलाख पंचेन्द्रिय | जीवोंकी हानी करते है धिक्कार है जिसके मनुध्य अवतारको यह भावना सनत्कुमारचक्रीके मनवसी एक पलकमें षट्खण्ड छोडके चलता हुआ याने सर्वऋद्धिकों छोडके और दीक्षा लेकर अकेलाही विचरता हुआ गाथा-गर्वजनेरूपकाकीना । कर्मोनेआणरसदीना ॥ रोगजबउपना बहुला । कौनेदेदियाझाला ॥१॥
रूपअनोपमइन्द्रेवखाण्यो। सुरजाणेतवमाया ॥ रूपकरीदोयब्राह्मणआया । फिरफिरनिरखीसबकाया २ क्या निरखोतुमेलालरंगीले । मेलभरीमोरीयहकाया ॥ न्हायेधोयेजयछत्रधराया । तबफिरचंभनआया ३ देखीजोतांरूपपलटाया। सुनोहोचक्रीराया। सोलहरोगतेरीदेहमेंउपना । गर्वमकरोकडीकाया ॥४॥ कलमलियोघणाचक्रीमनमें | अमरतणीसुणीवाणी ॥ तुरततंबोलनाखनेजोवे । रंगभरकायापलटानी ॥२॥ षटूखंडपूरनयरअंतेउरीम्हेली । म्हेलीममतानेमापा || संयमलेयफिरेअकेला । केडोनमूकेरायाराणा ॥६॥
in Education
For Personal & Private Use Only
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
जीतसंग्रह ॥ ३८ ॥
॥३८॥
आश्रवभावना-यह जीव आश्रवसें अनादिकालसें च्यारुं गतिके विषे परिभ्रमण कर रहा है आश्रवके आनेका दो भेद है एक शुभ आश्रव दूसरा अशुभ आश्रव अशुभ ओश्रव आनेका रास्ता क्रोध मान माया लोभ हिंसा असत्य अदत्त अब्रह्म परिग्रह पञ्च इंद्रिय अशुद्ध उपयोग अशुभ विकल्प आदिसें आश्रव आता है और इस आश्रवद्वारा यह जीव बन्ध रहा है उपरोक्त आश्रव आत्मार्थीकों बंध करना चाहिये. ज्ञान विचारके दोहा__ संज्ञा लेश्या आदि त्रय । इन्द्रिय वसता होय ॥ आर्तरौद्रकुध्यानता । मोह पाप पद सोय ॥१॥
अब आश्रवका स्वरूप विशेष बतलाते हैं-सोले संज्ञा प्रथमकी तीन.लेश्या और पांच इन्द्रियोंके तेविश विषय तथा आर्त रोद्र ध्यान राग द्वेष और मोह यह सब आश्रव आणेके द्वारहै अब मोक्षकाकारण सम्बरहै वह कहते हैं दोहा-मोक्ष कारण सम्बर है । आश्रव दुःखकी खांण || शुद्धजाणो सो आदरो। छोडोखेंचा ताण ॥१॥
कर्मबन्ध हेतुजीवक । मनवच काया योग ॥ कारण स्थिति बंध है। रागादिक उपयोग ॥२॥ भावार्थ:-जीवको कर्म बम्धका कारण केवल मन वचन काय योगसे स्थितिबंध रागादिसें पडता हैं अशुभ उपयोगसे प्रकृति और प्रदेश बंध पडता है क्योंकि मनादि योगसे शुभाशुभदोनोंही आश्रवका त्याग करना चाहिये २
दोहा--रागद्वेष अरु अज्ञानता । भाव आश्रव भवि जाण ॥ अष्ट कर्म दलागमन । द्रव्य आश्रव प्रमाण ॥१॥
अथ सम्बर भावना. भावार्थः-आश्रव रुकनेसें सम्बर होता है सम्बर होनेपर अवश्यही आत्माका कल्याण होता है अर्थात् सम्बरकी प्राप्ति होनेपर अवश्यही अनंत सुखमय निर्वाण पदका प्राप्ति हो जाती है सम्बरकी
in Education
For Personal & Private Use Only
wnw.jainelibrary.org
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
प्राप्ति केवल शुद्ध आत्म उपयोगमें रहनेपरही होती है और आत्मउपयोगसे रहित होनेपर आप्रव तैयारही है
दोहा-निजस्वरूपमें लीनता । निश्चय संघरजाग ॥ निश्चयत्वरूप समझा विना । होय न पापकी हाण ।१।
निजस्वरूप में लीन होनेपर निश्चय संवर होता है और दश प्रकारे क्षमादि यतिधर्म पालनेपर वह व्यवहार संवर है अर्थात् ब्रतपञ्चखान आदिव्यवहार करणीस व्यवहार संबर है और स्वस्वरूपमें रमन करनेपर निश्चय संबर भावनासे केशीकुमारने अपना कल्याण किया.. अथ निर्जरा भावना.दोहा-संबरयोगनिर्मललही, विविधतपोनिरधार । यहीनिर्जराकारणकह्या, देखोज्ञानविचार ।।
तपके द्वादश भेद है छैयाध छैअभ्यन्तर अनशन सर्वथा आहारका त्याग २ उणोदरी ३ वृत्तिसंक्षेप ४ ईस भावनासें अर्जुनमालीने सर्व कांके समूहको नाश करके निर्वाण पदकों प्राप्त किया ॥१॥
दोहा-पंचमहाबत पालके । सुमति पश्च प्रकार ॥ पांचो इन्द्रिय विजय कर । यही निर्जरा सार ॥२॥
अथ लोकभावना--इस लोकभावनामें ऐसा विचार करना चाहिये कि में नवलोकके विसे और सब स्थानकों विषे सब उंच नीच जातिके विषे सब तरह के सुख दुःख अनन्तीवेर भोगके आया हूं ऐसा कोइभी स्थान कोइभी स्थल बाकी नहीं रहाकि जहांपर मैरा जन्म मरण नही हवाहो और वहांपर अच्छे अच्छे और बुरेसेबुरे मांस विष्ठादि पदार्थोका भोजन अनतीवेर करके आया हुं तोभी हे चैतन्य तेरी तृष्णा नहीं बुझी संतोष नहीं आया इसलिये इस लोकमें मेरे आत्मिक सुख सिवाय और कोडभी पदार्थमें और कोइभी स्थानके विषे सुग्व
DP
Jin dictionem
For Personal & Private Use Only
how jainelibrary.org
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
P
जीतसंग्रह
नही है केवल सब लोक दुखारी खांण रूपही है पञ्चम गति बिन कोइभी गतिके विषे सुख नही है इस भावअध्यात्म
DEI नासें शिवराज ऋषिनें मोक्षपद लिया. विचार
दोहा--लोकस्वरूप विचारके । अपना स्वरूप निहार ॥ परमार्थ व्यवहार मुनि । मिथ्याभाव विदार ॥१॥ ॥ ३९॥
. भावार्थ:-हे आत्मा लोक स्वरूपका विचार करके अपना शुद्ध स्वरूप देख तुं कौन है कहांसे आया है इस लोकके विषे जो धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य भरे है जिसमें तेरा स्वरूप किसी द्रव्यके साथ मिलता है या नही तेरा स्वरूपतो अनन्तज्ञानादि गुण संयुक्त है और द्रव्य चेतनादि गुण रहित वर्ण गंध रस और स्पर्श आदि सहित पुल जड पदार्थ है वह पांचोही जड तेरेसे सदा भिन्न जडरूपही है याने तेरेसे सदा अलगही है इसलिये हे चैतन्य तुं अपने स्वरूप में स्थिर रहकर अब मिथ्याभावकों छोडके आत्म अनुभव रसका पान कर ॥१॥
दोहा-चौदहराज उत्तुंग नभ । लोक पुरुष संगण ॥ तामें जीव अनादिसें । भ्रमत है विनुज्ञान ॥२॥
अथ बोधी दुर्लभ भावना-बोधी इसलिये आत्मज्ञानका बोध होना अति दुर्लभ है बोध बीजकी प्राप्ति नही होने परही मैं अनादिकालसें जन्म जरा और मृत्युके संगटमें पड़ा हुआ दुःख भोग रहा हूं इसलिये अबतो गुरु कपासें मेरा निजगुण अनन्तज्ञान दर्शन चारित्र और वीर्यको प्रगट करुंनो मैं सुखी होउंगा जिससे मेरा जन्म जरा और मृत्युरूपी महान् दुःखसे बचाव होगा
दोहा-बोधी अपना भाव है। निश्चय दुर्लभनांहि ॥ भवमें प्राप्ति होवे नही । यह व्यवहारे कहाहि ॥१॥
DomeDreamRANADA
OpenpUESULDULDDCDDee.
For Personal & Private Use Only
www.janeiro
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
जीतसंग्रह
भावार्थ:-योधी कहिये आत्माके रत्नत्रयकी प्राप्ति होनी अर्थात् अनंत ज्ञान अनन्त दर्शन और अनन्त चारित्र यह जो आत्माके मुख्य तीन गुण है यह मुख्य गुण प्राप्त करना इसमें कुछ कठिनता नही है क्योंकि अपनी चीज होनेपर निश्चयसें देखाजावेतो कुछभी कठिन दुर्लभ नहीं है घरकीचीज चाहै जब लेशता है, जो दुर्लभता बताई है वह केवल अशुद्ध व्यवहारसेंही कही गई है लेकिन योधी दुर्लभ रत्नत्रयकी प्राप्ति मेरे जैसे वेषधारी विषयभोगकी ईच्छा रखनेवालोंके लियेतों बहुतही कठीन है किंतु आत्मार्थी महापुरुषके लिये कुछभी कठिन नही है
अथ धर्मभावना-ईस भावनाके विषे भव्य एसा विचार करे कि यह जीव अनादी कालसें वस्तु स्वभावे धर्मकी प्राप्ति नहीं होनेपरही यह चैतन्य चतुर्गतिके विषे परिभ्रमण कर रहा है परंतु वस्तुसहावोधम्मो वस्तुस्वभावे धर्मका सेवन करनेपर अवश्यही यह आत्मा चतुर्गतिके दुखोसें आपसेंआप मुक्त होकर मोक्ष सुखकों प्राप्त कर लेना है प्रश्नः-अधर्म किसकों कहते है ? उत्तर:-अधर्म यही है कि अपने स्वाभाविक स्वधर्म छोडके विभाविक पुद्गलीक विषयभोग तथा उपयोग रहित ओघ क्रिया में रहना वही वस्तु स्वभावे अधर्म है अर्थात् हिंसा असत्य विषय कषाय अज्ञान मिथ्यात्व रागद्वेष और मोहादिक यह सब अधर्मके अंग हैं यही आत्मधर्मके घाती शत्रु है जिस दिन अधर्मको छोडके सम्यक् गुण सहित आत्म स्वधर्मके विषे रहुंगा वोदिन में धन्य मानंगा ज्ञानीने धर्मवस्तुके || स्वभावको कहा है इसलिये जिसदिन में आत्मिक शुद्ध धर्मके विषे रमण करूंगा तबही मुझे अव्यायाध निराकुल | और अनंत सुखमय आत्मिक सुग्वकी प्राप्ति होगा.
in Education
For Personal & Private Use Only
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
सवाल
विचार
1180 11
Jain Education Me
दोहा -जाच्यां सुर तरूदेत सुख । चित्या चिंतामणि रत्न ॥ विनजाच्यां विनचितव्यां । धर्म सकल सुख देत | १| अथ मुनि विशेषः - हे मुनि अपने जिस दिन से सर्व संसारके भोगविलास अर्थात् विषय सुखको छोड़के | संयम लिया हैं उसदिन आजदिनतक पठण पाउण में और ध्यान समाधिमें और ध्यानादिक कार्यमें कितना समय गया है और खाने पीने माल ताल उडानेमें और खतपत्र लिखनेमे वांचनेमे तैसेंमी मान बडाई निंदा प्रमाद और स्त्रियोंके साये गप्पा उडानेमें कितना फाल गमाया है सो कुछ विचार है या नही
साखी --सुखीया सब साधु । खावै अरु सुये ॥ दुखिया सब संसार । जागे अरु रोवे ॥ १ ॥
हे सुनि अब तेने शिर मुंडाय के संसारके सब सुख याग दिये हैं अब तुं पुद्गलानंदी पीछा क्यों बन गया हैं हे महाभाग्य जो संयम हैं वह इस लोक परलोकमे अर्थात् दोनोही लोकमें महासुख देनेवाला है जरा ज्ञानरूपी नेत्रकों खोलके देख ज्ञानीने क्या फुरमाया है दशवैकालिकसूत्र में
गाथा - भोग तजी जोग आदरेजी । तेनी हुं बलीहारीरे ॥ मुनिवर । धन धन ते अणगाररे ॥ १ ॥
क्रियाआतापना आकरीजी । कोमल न करे देह || रागद्वेष तजी पाडवाजी । जिम सुख पामे अच्छेद २ हे मुनि तेने स्त्री धन परिवार ईर्षा द्वेष मान माया लोभ कपट शोक चिंता भय तृष्णा शत्रुता और परनिंदा आदि सबका त्याग करके और सब दुःखोसें मुक्त होकर परम आनंद भोग रहा है तब फेर महादुखदाई ऐसें संसारिक याने विषयभोगमें तैसेही गच्छ कदाग्रहमें फसकर हे महाभाग्य नहाक अधोगतिमें जानेके लिये क्यों प्रयास
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ।। ४० ।।
www.jainlibrary.org
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
जीतसं पह
कक रहा है हे मुनि संयमरूपी रत्नचिंतामणिको छोडके काचके टूकडेको क्यों ग्रहण करता हैं हे मुनि हे महाभाग्य गज असवारी छोडके गद्धेपर क्यों बेठता हैं हे मुनि अमृत भोजनको छोडकर जहर जडी क्यों खाता है हे महाभाग्य राज पंथको छोडके ऊजड गेले क्यों जाता है हे मुनि इसलोकम तथा परलोकमें दोनोही भवमें क्यों दुःखका |भागी होता है इस लिये हे महाभाग्य अब तुं अपने मनको तथा इंद्रियोंके विषय भोगसे पीछा हटाके आत्मज्ञान ध्यानके विषे चित्तको लगा नही तो हे महाभाग्य तेरेको नरकादिक गतियोमें नाना प्रकारके छेदनभेदन आदि मार खानी पडेगा इस लिये हे मुनि अब तुं सर्व तरहकी उपाधिको छोडकें एक आत्मज्ञान ध्यानमें लीन होजा जो तेरेको सच्चे आत्मिक सुखकी इच्छा होतो हे मुनि! ज्ञानीने मुनियोंके लिये क्या नेम रखे हैं पहली पौरुषीमें नया तत्वज्ञान पढना दूसरी पौरुषीमें अष्टांम योग समाधि ध्यान करना तीसरी पौरसीमें गोचरी जाना और चौथी पौरुषीमें पडिलेहनादिक क्रिया करना यही ज्ञानीकी आज्ञा हैं अब देख मुनि अपने घरका नेम पहली पौरुषीमें चाह दूध दूसरी पौरसीमें गद्धाचरी मालताल मसाला उडाना तीसरी पौरसीमें निद्रा देवीके साथ सुख भोगना और चौथी पौरसीमें दाल भात भक्तलोकोके घरोम तयारही है अब देख मुनि ज्ञानीका कहाहआ नेम पक्का है कि अपने घरका नेम पक्का है बाबाका बाया और हालीका हाली अब देख मुनि किस वक्तपर ज्ञान पढना और किस वखत याने किस समयपर ध्यान समाधि करना और किस समय पर क्रिया करनी किस समय खत पत्र लिखना अव कहते है कि जो लाखो वर्ष तक क्रियाकाण्ड करनेपर कार्यकी सिद्धि नहीं हो शके वह कार्य गुरु कृपासे एक पलभरमें सिद्ध हो सकती है
SET
Join Education in
For Personal & Private Use Only
Damp janelibrary.org
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह ॥ ४१ ॥
ما معنا سمعنا لمكان
र ऐसा सद्गुरु आत्मार्था इस कलिकाल में प्रत्यक्ष हलता चलता कल्पवृक्षके समानही हैं लेकिन ऐसा सद्गुरु आत्मार्थी अध्यात्मविचार
इस कलिकालमें कोई विरलाही मिलेगा अन्यदर्शनी सुंदरदासनेभी कहा है
दोहा-पारसचिंतामणि और सद्गुममें । बडाअंतराजान || बोलो हा कंचन करे । वो करे आपसमान ॥ १ ॥ - ऐसे सद्गुरुका समागम मिलना इस कलिकालमें बहुतही कठीन हैं। कवित-मात मिलै पुनितात मिलै सुतभ्रात मिलै युवती सुखदाई । राज मिलै सुखसाज मिल गज बाजि मिले
मन वांछित पाई ॥ लोक मिलै सुरलोक मिलै विधि लोक मिले वैकुण्ठमैं जाई । सुन्दर और मिले
सयही सुखसंपत संतसमागम दुरलभ भाई ॥१॥ अथ ध्यानोपदेशः-भव्य जीवोकों ऐसा ध्यान विचार करना चाहिये मैं कि अकेला हुं पुद्गल जडसें सदा भिन्न हु निश्चयसे सदा शुद्ध बुद्ध हुं नहीं करता नही भोक्ता हुँ रत्नत्रय संयुक्त हुं परमदेव हुं सिद्ध के समान मेरा स्वरूप हैं परमात्म स्वरूपही हुं और शुद्ध ब्रह्मरूपही हुं ऐसा समझ के अपने स्वरूपकाही ध्यान करना चाहिये. दोहा-उत्तम नर भव पायके । शुद्ध सामग्री लेय । जे न सुणे जिन बचन रस । अफल जन्मारो तेय ॥१॥
जिनवाणिके श्रवण बिन । शुद्ध सम्यक् नहि होय ॥ सम्यक् बिन आत्मदरस । चारित्रगुण नवि कोय॥२॥ शुद्ध सम्यक् प्राप्ति बिना । शुभ करनी शुभ बंध ॥ सम्यक्रन प्राप्ति थकी। मिटे तिमिर रसबंध ॥३॥ सम्यक् भेद जिन बचनसे । भेद पर्याय विशेष ॥ पण मुख दोय प्रकार है। विरला जाने लेष ॥४॥
المخالفجرفلای پایداری سازه
Jain Education
For Personal & Private Use Only
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
जीतसंग्रह
विचार
निश्चय अरु व्यवहार नय । ए दोन परिमाण || दधि मथने घृत काढवां । यही न्याय मन आण ॥ ५॥ निश्चय सम्यक्नो सही । कारण है व्यवहार । कारण बिन सिद्धि नही। कोटी करो विचार ॥ ६ ॥ निश्चय सम्यक जीवने । पर परिणति परित्याग ॥ निज स्वभावमें रमणता। शिव सुख लहै महा भागा। शुद्ध सम्यक् तब लहै । समझे तत्व स्वरूप ।। समझे विनु नवपूर्वी । लहै न आत्म अनुप ॥ ८॥
जिन वाणी सद्गुरु मुखे । जे भवि हृदय धरंत ।। स्वपर भेद विज्ञानथी । अनुभव लहै कोइ संत ॥९॥ आत्मध्यान अरु अध्यात्म ज्ञान विना मोक्ष सुखकी प्राप्ति तीन काल और तीनुं लोकमें कभी नही हो शक्ति. दोहा-जबलग आत्मज्ञान नहीं । मिथ्या क्रिया कलाप ।। भटको तीन लोकमें। शिवसुख लहै न आप ॥१॥
___आत्मराम अनुभवभजो । तजो पर तणी माया ॥ एह सार हैं जिनवचननो । वले यह शिवछाया ॥२॥ इसलिये हे भव्य जो तेरेको मोक्षसुखकी पूर्ण इच्छा होवेतो सर्व तरहके प्रपञ्च छोडके एकाग्रचित्तसें कर्मरूपी शत्रुको गिरानेके लिये एक परमात्माको ध्यान कर,क्योंकि वहि तेरेकों अक्षय सुख देनेवाला दाता है परत्माका ध्यान करनेवाला ध्याता पुरुष अवश्यही ध्येयरूप होजाता है इलीका भ्रमरी न्याय कर परमात्माके ध्यानसे यही अशुद्ध
आत्मा परमात्मरूप हो जाता है इसलिये तीन काल और तीनुंही लोकमें परमात्मके ध्यानसे परमात्मज्योतिके समान | अन्य कोईभी ध्यान करने योग्य देव नहीं हैं इस लियेआत्मदेवको छोडके दूसरे देवोंकी उपासना करना वह योग्य नहीं है क्योंकि परमात्मज्योतिके समान अन्य कोई भी नहीं है इसलिये पुनः पुनः परमात्मज्योति के ध्यानमें अवश्यही भव्य
in Education International
For Personal & Private Use Only
indiainelibrary.org
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीनसंग्रह ॥ ४२ ॥
सहय.
Je] प्राणीको सिद्धपदकी प्राप्ति होती है वास्ते वारंवार परम पुरुष परमात्मकाही ध्यान करना चाहिये परंतु क्षणभंगुर पुग-|| अध्यात्म
लीक विषयसुखमें लम्पट होकर अधोगतिमें गमन करके नाना प्रकारके छेदन भेदन मारण ताडमाकी वेदनाका नही विचार ॥४२॥
सहनी पडे ऐसा प्रयत्न प्रथमसेंही करना चाहिये और परमात्माकी खोज कस्तुरीये मृगकी तरह बाहिर में नही होनी चाहिये लेकिन अपने घरके अन्दरही होनी चाहिये.
गाथा-जेम ते भूलोरे मृग दह दिशफिरे । लेवामृगपदगन्ध ॥ तेम जग ढुंढेवाहिर धर्मने । मिथ्यादृष्टिरे अंध ।१।
कितनेक मुग्ध भोले जीवों आत्मदेवकों छोडके जगह २ पर परमात्माके लिये ढुंढते फिरते है लेकिन अपने | घटके विषे जो सोध करेतो अवश्यही परमात्माकी प्राप्ति हो शके परंतु जगत्वामी जडजीवोंकुं कुछ ख्याल नही है अपनी आत्माका स्वरूपही क्या है ?
गाथा-आत्म सो परमात्म । परमात्म सोइ सिद्ध ॥बीचकी दुविधा मिटगइ। प्रगट भइ निज रिद्ध ॥१॥ J में ही सिद्ध परमातमा। में ही आत्मराम ॥में हीज्ञाता ज्ञेयकों। चेतन मेरो नाम ॥२।। में ही अनंत गुण सुखको धगी। JE ते सुख मोहिं सुहाय ॥ अविनाशी आनंदमये । सोहं त्रिभुवनराय ॥३॥ इति चिदानंद वचनात्
वहतो जगत्वासी जडजीवो देखही नही शकते केवल पर्याय दृष्टिसें मुग्ध हुए उपरसें क्रियाकाण्डमें जड हुये संसार चक्रमें फसे हुये झाडके मत्तेकी नाइ कहांही स्थिरीमूत रहनेका पता नही लगता इसलिये हे जड बुद्धि अब पर्याय दृष्टिकों छांडके ज्ञान दृष्टिमें आत्मस्वरूपकों देख दृष्टान्त
نے شانتالانت هناك هنا لمعايير السعر
Jan Education international
For Personal & Private Use Only
www.elbord
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचार
अध्यात्म-3 गाथा--भारी पीलो चीकणो । कनक अनेक तरंग ॥ पर्याय दृष्टि न दीजिये । एकज कनक अभंग ॥१॥ दर्शन ज्ञान जीतसंग्रह
all चरण थकी । अलखस्वरूप अनेक ॥ निर्विकल्प रस पीजिये । शुद्ध निरंजन एक ॥२॥ इतियोग्रीन्द्र आनंदघनवचनात् २३ | इसलिए हे आत्मभाइयों प्रथमसेंही आत्मस्वरूपकी और परमात्मरूपकी पहिचान यथार्थ करके कदाग्रहको | छोड कर आत्म तर्फ देखो
गाथा-निज शुद्ध स्वभावमें । नहीं विभाव लव लेश ॥ भ्रम अरोपित लक्षथी प्यारे । हंसा सहत कलेश॥१॥
क्योंकि तत्वकी पहिचान विना जितना व्रत पञ्चखान हैं वह गिनतीमें नहीं आते देखो भगवतीसूत्र अर्थात् आत्मस्वरूपकी पहिचान विना चाहै जितनी यग शान्ति और मौन रखो वह सब तरहका कपट जनताको ठगनेके लियेही हैं कारण कि ज्ञान विना केवल एकेली वाझ क्रियाकाण्डसें जो बाल जीवोंको अपना आडंबर ढुंग देखाना है | वह अपनी आत्मा काली करनी है कहाभी है कि गाथा-ज्ञान सकलमय साधन साधो। क्रिया ज्ञानकी दासी॥ क्रिया करत धरतुहैं। ममता आई गलेमे पाशी॥१२॥
पर परिणति अपनी कर मानै । क्रिया गरवै महलो ।। उनकों जैनीक्युं कहिये । सो मूर्खमे पहलो ॥२॥ स्वस्वरूपकी पहिचान विना जितनी २ कष्ट क्रियों करते है वह तो केवल अंक विनाकी शन्यकी तरह मिष्फलही हैं सम्यकविन नवपूर्वी अज्ञानी कहवाय पुनः सम्यक्ना लहेरी तातें रूले चतुर्गतिमांय इस लिये सम्य ज्ञान विना | केवल क्रियाकांडसें जो मोक्षकी इच्छा रखते है वह तो भ्रमही हैं फेर कितनेक ज्ञानहीन भोले भक्तों परमात्माकी
in Education International
For Personal & Private Use Only
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार ॥ ४३
जर
मूर्तिके आगे कहते हैं कि हे प्रभो मुझे तुंहि तार नैं महा अधम पापी हुं हे दीनबंधो अब तो तेराही शरण हैं इस तरहसें दीनपनेसें पोकार करनेपर पुरुषार्थ हीनकों मोक्ष सुखकी प्राप्ति कैंसें होगी लेकिन पुरुषार्थहीन पुरुष ज्ञानरूपी नेत्रको खोलके नही देखते कि बीर परमात्माने वारे वारे वर्षोंतक कितना पुरुषार्थ और कितना कष्ट परिश्रम उठाने पर मोक्षसुख की प्राप्ति हुई हैं कुछ दीनपनेसें नही कल्याण तो जब होगा कि आत्मस्वरूकी पहिचान कर्के वीरपरमात्माकी तरह समत्ता सहित पूर्ण पुरुषार्थ करके कर्मरूपी शत्रुको बालके भस्मीभूत करेगा तबही कल्याण होगा केवल बुगला भक्तिमें परत्माकी मूर्तिके आगे खाली चीलानेसें कल्याण नही हो शक्ता हैं पोल पालकी भक्तिसें. गाथा - भक्ति ऐसी कीजिए | जैसा लंबे खजूर | चढे तो चाखे प्रेमरस | पडे तो चकनाचूर ॥ १ ॥
लोभीलापर लालची । जासुं भक्ति न होय ॥ भक्ति करे कोई सूरमां । धडपर शीश न होय ॥ २ ॥ तलवारकी धारपर खेल करना हैं वह तो सुगम हैं परंतु परमात्माकी जो भक्ति करनी हैं वह तो बहुतही कठिन हैं कितनेक भोले आत्म भाइयों कहते हैं कि हमारा तो आज कल्याणही हो गया लेकिन जब तक आत्मज्ञानका घटके विषे प्रकाश नही होव तब तक कष्टक्रियारूपी सर्व करणी बाललीला धूलीके समानही हैं कभी अकेली द्रव्यक्रिया कष्टसे देवगतिका सुख मिल गया जिसमें कार्यकी सिद्धी क्या हुय गई.
गाथा - आत्मातें परच्यो नही । क्या हुआ व्रतधार | शालविना क्षेत्रमां । वृथा बनाई वाड ॥ १ ॥
वास्ते अध्यात्मज्ञान और आत्मध्यान विना माक्ष ( न भूतो न भविष्यति ) केवल ज्ञानियों महाविदेहक्षेत्र से
For Personal & Private Use Only
الات
जीतसंग्रह ॥। ४३ ।
www.jainlibrary.org
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
तथा सिद्ध भगवान् सिद्ध गतिसें तुमकों तारनेके लिये कभी नहि आने वाले चाहे जितने चिलाओ जैसे सिद्ध परमात्माके विषे अनंते गुणे रहे हये हैं वैसेंही गुण तुमारी आत्माके विषे रहे हुये है सत्तामें वास्ते आत्मस्वगुण प्रगट होनेके लिये पुरुषार्थ होनेकी जरूरत हैं परंतु ग्वाली ले देव चावल ले देव श्रीफल ले देव नैवेद्य ले देव अत्तर बरास ले देव पुष्प इस तरहसे युगला भक्तपनेसें तिलक छापा लगा कर पूजा करने में हमारा कल्याण हो गया ऐसे समजने | वाले जडवुद्धि जीवों भूलेही भ्रमते हैं क्योंकि आत्म उपयोग विना शन्य क्रियासे यथार्थ फलकी प्राप्ति नहीं हो शके क्योंकि क्रियायें कर्म उपयोगे धर्म और प्रणामें बंध कहा है लेकिन ज्ञान बिना बाल चेष्टायों जैसी पूजादिक क्रियायोसें जो मोक्षसुखकी इच्छा रखनी हैं वह तो एक भगी हुई नावमें बैठके समुद्र तरने जैसी हैं यहांपर ऐसा न समझे की द्रव्य पूजादिक क्रियाका निषेध कर दिया है नही २ जो द्रव्यसे हैं वह भावका कारण अवश्यही है क्योंकि कारण बिन कार्यकी सिद्धि नहीं होती तोभी ज्ञानकी मुख्यता है
गाथा-ज्ञान विना व्यवहारको । कहा बनावत नाच ॥ रतन कहो क्यु काचको । अंत काचको काच ॥१॥ क्या कि ज्ञान विना परभाव नहीं छूटे सके कहा है किगाधा-जीव लाग रयो परभावमें । सहज स्वरूप लखै नहि ।। अपनो पडियो मोहजालमै । यांछे मोक्ष करे ।।
नहि करणी डोलत ममता । वाउमें अंधपुरुष जिम ॥ जलनिधि तरवो । बैठो कानी नाउमें ॥२॥ ईसलिये अज्ञानी पुरुषकी जितनी २ करनी और क्रिया है वह भागी हुइ नावके समानही हैं वह करनीरूप |
in Education
a l
For Personal & Private Use Only
M
ainelibrary.org
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
D
अध्यात्मविचार ॥४४॥
जीतसंग्रह ॥ ४४ ॥
तक MINS
ایتالیا ایها اهان
कष्ट क्रियाका फल प्रायः करके विष और गरलके समानही है चाहे जैसी भाषाके ज्ञाताहो भाषा याने मागधी संस्कृत उई तैलंगी पारसी और इंग्रजी आदि अनेक भाषाके जाननेवाले क्युं नही होवे तैसेंही अनेक सूत्र सिद्धान्तके ज्ञाता क्यु नहि हों लेकिन जबतक आत्मतत्वकी पहिचान नहीं होवे तबतकतो नानाप्रकारकी भाषा और अनेक | तरहके ग्रन्थोके ज्ञान निकामें हैं 'सार लहे विन भार कह्यो श्रुत खर दृष्टांत प्रमाण' फेर कितनेक आत्मज्ञानसें हीन मेरे जैसे वेषधारियो सुगुरु नाम धराके भोली जनताको धूतारे धोलेधके और दिन थके रक्षक नाम धराके ग्रामोग्राम ठगतेहुए फिरतेहै मोजमजा उडाते है वीरके पोठिये साधु हुआखधे भार योग नहीं णि कर्मकी मार
दोहा-तनकोयोगी सवही करै । मनसे विरला कोय ॥ जो मनसे योगी हुवै । तो दुःख काहेको होय ॥१॥ गाथा-संयमविन संयमता थापे । पापश्रनग ते दाख्यो । उत्तराध्ययने सरल सभावक । शुद्धप्ररूपकभाख्यो १
योग लही परआश धरतुहैं । यही जगमें हांसीतुं जानै । मैंगुणकुसंचू । गुणतो जावे नासा ॥२॥
योगलहीजडभोगनछाड्यो । युहीजन्मगमायो । वाझक्रियाकरीकायाकिलसें । झुगेजगभरमायो ।। ३ ।। लेकिन मेरेजैसें वेषधारियों परमार्थे शून्यही होते है ऐसे वेषधारियों अपने अंधे भक्तोको कैसे तारोगे? दोहा-जाका गुरुहै अंधरा । चेला खरा निरंध ।। अंधेको अंधा मिल्या । चट्या कालके खंध ॥ ४॥
मेरेजैसे वेषधारियोके जितने दृष्टिरागी अंधे भक्तो होते है वह प्राय करके मतिहीन बोधलेही होते हैं उन्हाको कुछ ज्ञान नहीं होते गुरू तीन तरहके होते हैं पत्थरकी नाव समान काष्टकी नाव समान और पीपलके पते समान
OORDAINITRODaiDOIDIODOGram
ESSADOR-LOADupta
JainEducational
For Personal & Private Use Only
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्म-TEE
वो घलांको कुछ सत्य असत्य गुरुकी पहिचानही नहि है विचारे बोघले क्या करे कहनेका तात्पर्य यही है कि मेरे विचार
जैसे पत्थरकी नाव समान कुगुरुका त्याग करके काष्टकी नाव समान आत्मज्ञानी ध्यानी निस्पृही महात्माके चरणकमलकी सेवा भक्ति करके अपना कल्याण करणा चाहिये लेकिन ज्ञानी महापुरुषकी पहिचान विचारे बालजीवों कैसें कर शके क्योंकि बालजीवों होते हैं वहतो केवल वेष धारण करनेपर साधु मान लेते हैं कहाभी हैं
बालक मानेरे बेष मध्यम पुरुष । क्रिया गुण आदरे ॥ १॥ मध्यम पुरुष जो होते हैं वह तो ज्ञान सहित केवल उपरसे क्रियाके आडंबरकोही देखते है किंतु जो उत्तम JE पुरुष होते हैं वह ज्ञान सहित क्रियाको आदर करते हैं क्योंकि व्यवहारमें निश्चयमें स्थिर स्थंभ कहनेको तात्पर्य यही ।
हैं कि ज्ञानी महापुरुषका और वेषधारी साधुओकी तरह उपरसें क्रियाकाण्डकों तथा आचरणकों नहीं देखना चाहिये उन महापुरुषका हृदय कमल ज्ञानदृष्टिसें या योगचेष्टासें देखना चाहिये.
गाथा-आनंदघन चेतन में खेले । देखे लोक तमासा ॥
क्योंकि योगीराजका आचरण उपरसें लोगोंको ढुंग देखलानेके लिये मेरे जैसा असत्य आडंबर लोक देखाउ नही होता इसलिये ऐसे महापुरुष योगीराजके आचरणको अज्ञानी वालजीवों कैसें जान शके क्या जानै मेरे आनंद
की गति दुनिया दीवानी है मायामें मस्तानी क्या योगीराजकी गति दुनिया दिवानी जान शकती है नही २ विचारे dबालजीवोतो केवल उपर २ से पडिलेहना प्रतिक्रमणादिक वाह्य क्रियामें ही धर्म मानके वाडायंधीमें अर्थात् गच्छ
MANOOPERepela
1
.
in Education
For Personal & Private Use Only
4
ndiainelibrary.org
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रा ॥ ४५ ॥
अध्यात्म-5 कदाग्रहमें भोली जनताको फसाके जैनधर्मको रसातल पहुंचा दिया धर्म शब्द क्या है उनका पूरा अर्थही नहि विचार
समझते यहतो अवश्यही समझते है चेलाचेली मूंडने में और माल उडानेमें पुस्तकों छपाकर द्रव्य इकट्ठा करने में ॥४५॥
J| भारी जाल गुंथते है लेकिन योगसमाधि चीजही क्या है उसकातो मेरे जैसे वेषधारियोंको नामही नही सुहाता
ऐसें गच्छ कदाग्रहमें फसे हुए वनियो क्या योगीराजकी पहीचान करशकते हैं कि योगी है कि भोगी है गच्छ | कदाग्रहीयोंको तो वाडेका धेटा चाहीये.
दोहा-लोकसार अध्ययनमें । समकित मुनिभावे ॥ मुनिभावे जस समकित कह्यो । निजशुद्ध स्वभावे ॥१॥ ईस वाक्यको पुनः २ स्मरणमें रखके अपने कल्याणके लिये परमात्माका ध्यान करना चाहिये और विशेषमें जो कोई ज्ञानी महात्माकी सत्संग मिल जावे तो अहा भाग्य समझके महा पुरुषके चरणोमें रहकर अपना कल्याण करना चाहिये क्योंकि सद्गुरुकी कृपादृष्टिसेही अध्यात्म ज्ञानकी प्राप्ति हो शक्ती है और अध्यात्मज्ञानसेंहि आत्माकी अक्षय निधि प्रगट होती हैं इस अध्यात्म ग्रंथके आराधनेसें और शुद्ध श्रद्धान ज्ञान योगके अभ्याससे अवश्यही भव्यजीवोंका कल्याण होवे न संदेह एक रूप अभ्याससे शिवसुख है तसुगोद.
इति श्रीअध्यात्मविचारजीतसंग्रहः संपूर्णम्॥ श्लोकः-चंद्रनन्दनवेन्द्र) । चापादेकृष्णपक्षके ॥ तृतीयायामगात्पूर्ति । मध्यात्मजीतसंग्रहः ॥१॥
لالالالالالالالالالالالالالالا لالاليافها
Jin Education in
For Personal & Private Use Only
ayong
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
अब कहते हैं इस देहके विषे परमात्मा विराजमान हैं तद्यपि अज्ञानी जीवो नहीं देख सकते मुल-परमानंद सम्पन्नं । निर्विकारं निरामयं ॥ ध्यानदीनापश्यन्ति । निजदेह व्यवस्थितं ॥१॥ श० (परमात्मनः) परमात्माका (दर्शन) दर्शन (परमानंद सपन्नं) परम आनंद मयी है पुनः कैसा है कि (निर्विकार) विकार रहित स्वरूप है जिस परमात्माका अर्थात् शुद्ध परमात्माके विषे कोईभी तरहका विषय विकार नहीं हैं पुन: कैसा है कि (निरामयं) रोग उपद्रवसे रहित स्वरूप हैं जिस परमात्माका ऐसा परिपूर्ण शुद्ध परमात्मा (निजदेह व्यवस्थितं) इस स्थूल देहमें स्थिरीभूत रहनेपरभी (ध्यानहीना) जो आत्मध्यानसे हिन है वे (नपश्यन्ति ) नही देख सक्ते १ पुनः शुद्धात्म स्वरूप कैसा है मानु
मूल-अनन्तसुखसंपन्नं । ज्ञानामृतयोधरं ॥ अनंतवीर्य संपन्नं । दर्शनं परमात्मनः ॥२॥ श० (अनन्त सुखसंपन्न) अनन्त सुख संयुक्त स्वरूप हैं जिस परमात्माका और (ज्ञानामृतं पयोधरं) ज्ञानरूपी अमृतके धारने वाले फेर (अनन्त वीर्यसम्पन्नं) अनंत वीर्य संयुक्त स्वरूप है जिस परमात्माका (दर्शनं परमात्मनः) ऐसा दर्शन हैं शुद्ध परमात्म देवका ॥२॥ भावार्थ-शुद्ध परमात्माका शुद्ध स्वरूप सदा परम आनंदमयी और अनंत ज्ञान मयी हैं फेर सर्व तरहके विषय विकारसे और सर्व तरहके रोगोसे वार्जत अनंत सुखसम्पन भये है स्वरूप जिस परमात्माका और ज्ञानरूपी अमृतके धारक और अनंत शक्ति वीर्यके धारक अर्थात् ज्ञानरूपी अमृतके धारक
Jan Education
For Personal & Private Use Only
Joininelibrary.org
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार ॥ ४६ ॥
का
ऐसा परमात्मा इस स्थूल देहमें रहनेपर भी ध्यान से रहित पुरुषों नहीं देख सक्ते ॥ २॥ पुनः आत्मस्वरूप कैसा है मानु मूल--निर्विकारं निराधारं । सर्वसंग विवर्वितं ॥ परमानंद सम्पन्नं । शुद्ध चैतन्य लक्षणं ॥३॥
शब्दार्थ : - (निर्विकारं ) सब तरह के विकारोंसे रहित और (निराधारं) सर्व तरहसे आधारसे वर्जित स्वरूप है जिस शुद्धात्माका पुनः कैसा है मानु कि (सर्वसंग विवर्जितं ) सर्व संगसे वर्जित और (परमानंद संपन्न) सदा परम आनंद भये स्वरूप है जिस परमात्माका पुनः (शुद्ध चैतन्य लक्षणं) ऐसा शुद्ध लक्षण है शुद्ध चैतन्यका भावर्थ शुद्ध आत्मस्वरूपके विषे काम क्रोध मदमोह माया लोभ आदिका कोई भी तरहका विकार नही हैं तैसेही वह आत्मा किसी के आधारसेंभी रहाहुआ नही हैं किंतु वह सदा स्वतंत्रही फेर बाह्य और अभ्यन्तर सर्व तरहके बंधन और संग रहित और परम आनंद मयी हैं ऐसा शुद्ध लक्षण शुद्ध आत्माका है ॥ ३ ॥
मूल- उत्तमाह्यात्मचिन्ता च । मोहचिन्ता च मध्यमा ॥ अधमाकामचिन्ता च । परचिन्ता घमाघमा ॥ ४ ॥
शब्दार्थः - [उत्तम ] उत्तम जीवोंको सदा (अध्यात्मचिन्ताच ) अपने आत्मकल्याण के लियेही चिंता बनी रहति है [मोहचिताच] और जो मोहसे सदा चिन्ता रहती वै वह (मध्यमा) मध्यम पुरुषको होती है और जो (अधमा ) अधम पुरुष होते है उन्होंको (कामचिन्ताच ) केवल काम इसलिये इन्द्रियोंके काम भोग विषयकी चिंता बनी रहती है ( परचिताच) और जो जिसको सदा परकी चिन्ता रहती है वह (अधमाधमा ) अधमसें भी अधम चिंता रहती है
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ।। ४६ ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
भावार्थ:-जो मोक्षगामी उत्तम जीवा होते हैं उन्होंको सदा अपने आत्मकल्याणकें लियेही चिन्ता रहती है और
जीतसंग्रह जो मध्यम पुरुष होते हैं उन्होको मोहसे सदा स्त्री पुत्र धन कुटुम्ब परिवार आदिकी तथा संयोग वियोग मान अपमान यश कीरती शत्रु मित्र आदिसे नाना प्रकारकी चिन्ता बनीही रहती हैं और जो अधम पुरुष होते है उन्होंको सदैव काम भोगकी चिंता बनी रहती है और जो अधमसें भी अधम पुरुष होते हैं उन्होंको सदा परके लियेही चिंता बनी रहतीही हैं वार्टजी आजकल दुब्ले क्युं परचिन्तासे ॥ ४ ॥ मूल--निर्विकल्पसमुत्पन्न । ज्ञानामृतपयोधरं ॥ विवेकमंजली कृत्वा । तं पिबन्तितपस्विनः ॥५॥
शब्दार्थ:-(तपस्विनः) महायोगी तपस्वी पुरुषोही (विवेक मंजली कृतव) विवेकरूपी अंजली करके [निर्विकल्प समुत्पन्नं) निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न हुए (ज्ञानामृतपयोधरं) ज्ञानरूपी अमृतको (पिबन्ति) पीते है अर्थात् पान करतें हैं, भावार्थ निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न भई हुए अनुभव ज्ञानरूपी अमृतकी धाराके रसको कोई विरले योगी ३६ तपस्वी महापुरुषही पान करने वाले होते हैं अर्थात् आत्म समाधिसे उत्पन्न हुए अमृतको कोय योगीराज विवेकरूपी अंजली करके पीते हैं ॥ ५ ॥
मूल--सदानंद मयं जीवं । या जानाति स पडितः ॥ ससेवते निजात्मानं । सुसर्वानंदकारणं ॥६॥ शब्दार्थ-(सदानंदमयं) सदा आनंदमय (जीव) जीवात्माको (यो) जो (जानाति) जानते हैं अर्थात् अनंत ज्ञान
in Education International
For Personal & Private Use Only
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह ॥४७॥
-लीत कबी ADMIN
'मय अपने आत्मस्वरूपको जो महा पुरुष जानते हैं (स) वही (पंडितः) पंडित वही ज्ञानी वही ध्यान वही सर्व सूत्र सिद्धांतक पारगामी ज्ञाता है वाकी तो पाथों के पंडित शुकपाठी जैसे समझी थे (सुसर्वानंदकारणं) वही आत्मज्ञान सवथा [परमानंद] परम आनंदके लिये कारणभूत हैं [निजात्मानं] इस लिये योगो पुरुषों अपने स्वआत्माकोही (सेवत) सेवन करत है, भावार्थ-निश्चयसे आत्मा सदा परमआनंदमय और अनंत ज्ञान अनंत सुखमय है ऐसा जो महापुरुष अपने आत्मस्वरूपको जानते हैं वही पंडित है वह महापुरुष अपने कल्याणके लिये स्वआत्माकोही सेवते है।६ मूल-नलिनं च यथा नोरं । भिन्नतिष्टति सर्वदा ॥ अयमात्मा स्वभावेन । देहे तिष्टति सर्वदा ॥७॥
शब्दार्थ-[नलिनं च कमल [यथा जैसे (निरात्) जलसे (सर्वदा) सर्वथा [भिन्न तिष्टति भिन्न याने अलग | रहते है तेसे (अयमात्मा) यह आत्मा (स्वभावेन) अपने स्वभावसही (देहेतिष्टति) इस देहमें रहा हुआ है. भावार्थ जैसे कमल पुष्प अपने स्वभावसेही जल में रहनेपरभी जलसे सदा भिन्न अलग ही रहते हैं तैसे यह आत्मा अपने सहज स्वभावसेही सदा देहसे अलग देहमें रहा हुआ है ॥७॥ पुनः आत्मद्रव्य कैसा है मानु मूल-द्रव्यकर्मविनिमुक्तं । भावकर्मविवर्जितं ॥ नोकर्मरहितंवेत्ति । निश्चयेनचिदात्मानं ॥८॥
श-निश्चयेन निश्चय करके [चिदात्मानं जो ज्ञानस्वरूपी शुद्ध आत्मा है वह [द्रव्यकर्मविनिर्मुक्तं] द्रव्यकर्मसे सदा मुक्त है और (भावकर्मविवर्जित) भावकर्म सभी वर्जित है नोकर्मरहित] नोकर्मसभी रहित [विति ज्ञानीने
in Education
For Personal & Private Use Only
janeira
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
कहा है, आत्माको भावार्थ आत्मा सदा याने आत्मा अनादिकालसे निश्चय करके द्रव्यकर्म ज्ञानावरणी आदि अष्टकर्मोसे रहित है तैसे ही भावकर्म रागद्वेष और नोकर्म पाँचूं शरीर इस सर्व कर्मोसे आत्मा रहित है ऐसा सर्वज्ञने कहा है ॥ ८ ॥ पुनः कैसा है।
मुल -- अनंतब्रह्मणोरूपं । निजदेहव्यवस्थितं ॥ ज्ञानहिना न पश्यन्ति । जात्यंधा इव भास्करं ॥ ९ ॥
श॰—–[निजदेहेव्यवस्थितं] अपने निज देहमें सदा स्थिरिभूत रहाहुआ वह कैसा है मानु [अनंनब्रह्मणोरूपं ] अंतर रहित अनंत ज्ञानमये ब्रह्मस्वरूपी आत्म स्वरुपको [नपश्यन्ति ] नही देख शकते [ज्ञानदिना ] ज्ञानसे रहित जीवों [इव] जैसे ( जात्यंधा) जन्मसे अंधे पुरुष (भास्कर) सूर्यके तेजको नही देख शकते है तैसे अज्ञानी जीवों अपने देहके अन्दर रहे हुए अनंत ज्ञानमयी ब्रह्मस्वरूपी आत्माको नही देख शकते भावार्थ:- अपने देहरूपी कीलेमें रहने पर भी अनंत ज्ञानमयी स्वआत्म स्वरूपको अज्ञानी जीवों नही देख शकते जैसे सूर्यको जाति अंध पुरुषवत् ९ मूल-यत्यानं क्रियते भव्ये । येनकर्मविलीयते ॥ तत्क्षणं दृश्यते शुद्धं । चितचमत्कारदर्शनं ॥ १० ॥
श० - (भव्यैः) भव्य जीवोंको सदैव (तत्ध्यानंक्रियते) वही आत्म ध्यान करना चाहिये ( चैन) जिससे [कर्मविलीयते] सर्वकर्म विलाये जाय अर्थात् जिस आत्मध्यानसें सर्वकर्म भस्मीभूत होकर एक पलमें उडजावे और ferent भारी चमत्कार उत्पन्न होवे और (तत्क्षण) उसी समे उसी क्षण में (दृश्यते शुद्ध) शुद्ध स्वरूप दिखलाई
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह
www.nelibrary.org
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार ॥ ४८ ॥
देते है भावार्थ:- भव्य जीवोंको अवश्यही आत्म ध्यान करना चाहिये जिस ध्यानसें सर्व कर्म भस्मीभूत होकर उड जावे अर्थात् आत्मध्यान करनेसे सर्वथा कर्म नाश होकर परम पदकी प्राप्ति होवे और अपने चित्तमें भी भारी चमत्कार उत्पन्न होवे उसी समे शुद्धात्म दर्शनकी प्राप्ति हो सके ॥१०॥
मूल - ये धर्मशिला मुनियः प्रधाना । ते दुःखहीना नियमं भवंति ॥ संप्राप्य शीघ्र परमार्थ तत्वं । व्रजन्ति मोक्षं क्षणमेकमध्ये ॥ ११ ॥
श० -- ( ये ) जो [ धर्मशिला] आतम धर्मके आचरनेवाले महामुनि याने आत्म स्वरूपमें रमण करनेवाले मुनिही [प्रधाना] प्रधान है इसलिये सबसे उत्तम महापुरुष (मुनियः ] एक मुनिही है [ते] वह [नियम ] निश्चय कर [दुःखहीना ] दुःखसे रहित (भवन्ति) होते है [ परमार्थ तत्वं ] ऐसे मुनियो परमार्थ तत्वको [संगप्य) प्राप्त करके ( चिदमेकमेव) अनंत सुखमय एसे [मोक्षं] मोक्षको (शीघ्रं ) शीघेही [ व्रजन्ति] प्राप्तकर लहते है. भावार्थ - जिस मुनिराजाका चित्त सदा आत्मज्ञान तथा समाधि ध्यानके विषे लेलीन हो रहा है उन्होंके लिये मोक्ष सुख अपनी गोयमें ही रहाहुआ हैं एक रूप अभ्याससे शिवसुख है तसु गोद, ऐसे योगीराज परमार्थरूपी तत्वज्ञानको प्राप्त करके अनंत सुख मय मोक्ष सुखको शीनही प्राप्त करलेते है ।। ११ ।
मूल - आनंद रूपंपरमात्मतत्वं । समस्तसंकल्प विकल्पमुक्तं ॥
Jain Educational
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह
11 82 11
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्म-36 विचार
स्वभावलीनानिवसन्तिनित्यं । जानाति योगी स्वयमेव तत्वं ॥ १२ ॥ श०-(परमात्मतत्त्वं) जहांपर परमात्मतत्व है याने जहांपर शुद्ध आत्मतत्त्व ज्ञान रहा हुआ हैं तहांपर कोईभी | all तरहका (समस्त संकल्प विकल्प मुक्तं) संकल्प विकल्प नही ठरह सक्ता अर्थात सब तरहके संकल्पसें आत्मा मुक्त
होनेपर (आनंदरूप) सदा आनंद रूपही है ऐसे परमात्मध्यानमें योगीराज (नित्यं) सदा (स्वभावलीना) अपने स्वभावसेंही लीन [निवसन्ति रहते हैं धन्य हैं ऐसे महापुरुष योगीस्वरोंको धिकार है मेरे जैसे पुद्गलानंदि भोगियोंको भावार्थ जो शुद्ध परमात्मरूपी आत्मा है वह सर्व तरहके संकल्पोंसे रहित है और सदा परम आनंदमयी हैं जो योगी महापुरुष सदा अपने शुद्ध स्वरूपमें खेलते हैं वह योगीराज स्वयमेवही परमात्मतत्त्वको जान लेते है ॥ १२॥ मल-चिदानंद मयं शुई । परापायं निरामयं ॥ अनंत सुख संपन्नं । सर्व संग विवर्जितं ॥ १३ ॥
श०-[चिदानंद मयं शुद्धं] पुनः आत्मा कैसा है कि ज्ञाम आनंद मय शुद्ध स्वरूप है जिसका पुनः [निरामय | रोगादिक उपद्रवसे वर्जित और [अनंतसुख संपन्नं] अनंतसुख संयुक्त स्वरूप है जिस परमात्माका और [सर्व संग विवर्जितं] सर्व संगसें वर्जित शुद्ध स्वरूप है जिसका भावार्थ जो परमात्मा शुद्ध तत्व हैं याने जो शुद्ध आत्मस्वरूप | है वह ज्ञान आनंदमयी सदा शुद्ध है और सर्व तरहके कष्टसे वर्जित है और बाह्य अभ्यंतर सर्व प्रकारसे परसंगसे रहित है ॥ १३ ॥ पुनः कैसा है आत्मस्वरूप
Join Education
For Personal & P
Use Only
Marelainelibrary.org
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्मविचार ॥४९॥
-
-
मूल-लोकमात्र प्रमाणोहि । निश्चयेन संशय ॥ व्यवहारा देहमानं । कथयन्ति मुनिश्वराः ॥ १४ ॥
श०-(निश्चयेनणो) निश्चय करके (लोक मात्र प्रमा) आत्म प्रदेश लोक प्रमाणे है (नसंशयं) इसमें कोईभी तरहका संशय नहीं है और (व्यवहारेण) व्यवहारसे आत्मप्रदेश केवल देहके प्रमाणही रहते है ऐसा [मुनिश्वरा] मुनिययोंके इस तीर्थकरोने [कथयन्ति कहाहै भावार्थ आत्माके प्रदेश निश्चयसे लोकप्रमाण है इसमें कोई तरहका संदेह नहीं है और व्यवहारसें देखाजावेतो आत्मप्रदेश देहके प्रमाणही है ऐसा मुनिश्वरोंके इसने कहाहै ॥१४॥ मूल-यत्क्षणं दृष्यते शुद्धं । क्षणं गतविभ्रमः ॥ युस्थचित्तं स्थिरीभूतं । निर्विकल्पं समाधये ॥१५॥
श-(स्वस्थ) आत्मस्वरूपके विषे (चित्तं स्थिरिभूत) जब योगीराजका चित्त स्थिरीभूत होजाता हैं तय निर्वि कल्पसमाधये निर्विकल्प समाधिको प्राप्त कर सकता हैं निर्विकल्प समाधि योगीराजको प्राप्त होने पर (यत्क्षण) उसी क्षण उसी समयमें (दृश्यते शुद्ध) शुद्ध आत्मस्वरूपका दर्शन योगीराजको दिखलाइ देते हैं (तत्क्षणं) उसी क्षणमें तय योगीराजका चित्त (गतविभ्रम) भ्रान्ति रहित स्थिर समाधिमे लये हो जाता हैं तब निर्विकल्प समाधिको योगी राज कर सक्ता हैं कोरी बातोसें समाधि प्राप्त नहीं होती निर्विकल्प समाधिके विषे जब चित्त स्थिरीभूत होता हैं तबही शुद्ध स्वरूपका भाष होता हैं शुद्ध स्वरूपका भाष होनेपर आत्मा भ्रांति रहित हो जाता हैं तय यही आत्मा परमात्म है ।। १५ ।।
UCED.--
DOJPURIDDA
D
Jan Education International
For Personal & Private Use Only
www.janeiro
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
मुल-स एव परमब्रह्म । स एव जिनपुंगवः ॥ स एव परमं तत्वं । स एव परमं तप ॥ १६ ॥ जीतसंग्रह
श०-(सएव परमं तत्व) यही आत्मा परमतत्त्व है (सएव परमं ब्रह्म) यही आत्मा परिब्रह्म हैं (सएवजिन पुंगव) यही अत्मा जिनचंद जिन तीर्थकर त्रैलोक्य अधिपति सबसे श्रेष्ट है (सएव परमंतप) और यही आत्मा परम तप है भावार्थ आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रगट होनेपर यही आत्मा परम उत्कृष्ट तत्त्व है यही आत्मा तीर्थकर है यही आत्मा त्रैलोक्यके परम पूज्य है और यही सबसे उत्तमसे उत्सम तत्व है ॥ १६॥
मूल-स एव परमं ज्योति । स एव परमं गुरुः ॥ स एव परमं ध्यानं । स एव परमोत्तमः ॥१७ ||
श-(स एव परमं ज्योतिः) वही आत्मा परम ज्योतिमय लोकालोकके भाषक याने लोकालोकके ज्ञाता है (सएव परमोगुमः) यही आत्मा परम उत्कृष्ट परम गुरु हैं (सएव परमं ध्यान) यही सबसे उत्तमसे उत्तम श्रेष्ट ध्यान है [स एव परमोत्तमः] और यही उत्तम परम पद है भावार्थ यही आत्मा परम ज्योति मय है यही आत्मा त्रैलोक्यके पूज्य और त्रैलोक्यके परमगुरु है यही आत्मा परम ध्यान है यही धिये है और यही आत्मा परममोक्षपद | देने वाला है ॥ १७ ॥ मूल-स एव सर्वकल्याणं । स एव सुख भाजनं ॥ स एव शुद्ध चिद्दरूपं । स एव परमं शिवं ॥१८॥DE
श-(सएव सर्वकल्याण) यही सर्व कल्याण है (स एव सुखभाजनं) यही आत्मा सब सुखका भाजन है
Jan Education International
For Personal & Private Use Only
indiw.hinelibrary.org
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म(स एव शुद्ध चिद्रपं) यही आत्मा शुद्ध चिद् घन केवल ज्ञानमयी है (स एव परमं शिव) वही आत्मा परम शिवरूप
जीतसंग्रह विचार है भावार्थ-आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रगट होनेपर यही कल्याणरूप है और सर्व सुखका स्थानभी यही आत्मा है॥१८॥ ॥५०॥
मूल-स एव सुखदायकः । स एव परमानंद ॥ स एव परचेतन्यं । स एव गुणसागरः ॥१९॥
श-(सएवपरमानंद) यही आत्मा परम आनंदमय है (सएवसुखदायकः) यही आत्मा परम मोक्ष सुख देने वाला दाता है (स एव परमचैतन्यं) यही आत्मा उत्कृष्ट परम चैतन्य है (स एव गुणसागरः) यही आत्मा सर्व गुणोके सागर अठाविस लब्धि तथा केवल ज्ञानमयी अनंत सुखका धनी हैं ॥१०॥ मूल-परमाल्हादसंपन्नं । रागद्वेषविवर्जितं ॥ सोहंतु देह मध्येतु । योजानाति स पंडितः ॥२०॥
श-(परमाल्हादसंपन्नं) परम अल्हाद इसलिये परम आनंद संयुक्त मयी स्वरूप है जिसका पुनः कैसा है REI (रागद्वेषविवर्जितं) रागद्वेषसे सदा वर्जित स्वरूप है जिसका ऐसा परमात्मा (देहमध्येस्थ) इस देहमें स्थिरिभूत रहा ||
हुआ है (सोहंतु) वेमेंही हुँ (योजानाति) ऐसा जो महापुरुष जानता है (सपंडित) वही पंडित है भावार्थ:-महा उत्तमसे उत्तम और सर्व गुण संपन्न और सदा आनंदमयी रागद्वेष वर्जित ऐसा शुद्ध आत्मा इस देहरूपी किलेमें जो रहा हुआ है वे मेंही लेकिन दूसरा नहीं है ऐसा जो निश्चय करके जानता है वही पंडित विचक्षण सर्व शास्त्रके | ज्ञाता है ॥२०॥ पुनः शुद्धात्म स्वरूप कैसा है मानु कि
IDIOकाजाचा
Advendan
For Personal Prese Only
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
मूल - आकाररहितशुद्धं । स्वस्वरूपे व्यवस्थितं ॥ सिद्धमष्टगुणापेतं । निर्विकारं निरजनं ॥२१॥
श० - (आकाररहितं) आकार से रहित और [शुद्धं] शुद्ध (स्वस्वरूपे व्यवस्थितं) अपने स्वस्वरूपके विषे स्थिरिभूत रहा हुआ (निर्विकार) सर्व तरहके विषय विकारोंसे वर्जित स्वरूप है जिसका और (अष्टगुणोपेतं सिद्धोके अष्ट गुण सहित स्वरूप है जिस शुद्ध आत्माका पुनः (सिद्धं) इस लिये वही आत्मा सिद्ध स्वरूपी है ॥२१॥ मूल -- तत् समंतु निजात्मानं । रागद्वेष विवर्जितं ॥ सहजानंद चैतन्यं । प्रकाशयति महायशे ॥ २२॥
श० - [ तत्समंतु] यह आत्मा सिद्धके समान है और [ रागद्वेषविवर्जितं ] रागद्वेषसे सदा वर्जित और (सहजानंदचैतन्यं] सहज ही परम आनंदमय चैतन्य स्वरूपी (निजात्मानं ) अपने स्वआत्म स्वरूपको ( महायश ) महा पुरुष [प्रकाशयति ] प्रकाश कर गये है भावार्थ:- निराकार शुद्ध स्वरूपमें विकार रहित और कर्मरूपी रजसे वर्जितस्व रूप है जिस परमात्माका फेर अष्टगुण संयुक्त जैसा सिद्ध परमात्मा वैसाही में हुं, अर्थात् सिद्ध परमात्मा के समान ही यह आत्मा है रागद्वेष रहित होनेपर सहजसे ही परम आनंद सुखमय चैतन्य स्वरुपी यही शुद्ध आत्मा है ऐसा आत्माका शुद्ध स्वरुप महायश महापुरुष प्रगट करके भव्य जीवोंको देखलाके मोक्ष वधारे है ||२२|| अब कहते है कि सिद्धू के समान आत्मा है वह ईस शरीरमें कैसें समा रहा है वह सिद्ध करके देखलाते है.
मूल - पाषाणेषुयथाहेमं । दुग्धमध्येयथावृतं ॥ तिलमध्येयथातैलं । देहमध्ये तथा शिवं ॥ २२ ॥
For Personal & Private Use Only
जीनसंग्रह
www.jainlibrary.org
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
जीतसंग्रह
विचार
श०-यथा जैसे (पाषाणेषु) पाषाण के विषे [हेमं] हेम रहा हुआ है तथा [दुग्धमध्ये] धके अंदर [यथाअध्यात्म
घृतं] जैसे घृत रहाहुआ है और (तिलमध्ये) तिलोकी अन्दर (यथातैलं) जैसे तेल रहा हुआ है तथा देहमध्ये] देहके | विषे (शिव) शव याने मोक्ष स्वरूपी आत्मा समा रहा हुआ है ॥२२॥ मूल-काष्टमध्ये यथावन्हिः । शक्तिरूपेणतिष्टतिः ॥ अयमात्माशरीरेषु ! यो जानाति स पंडितः ॥ २४ ॥
श०-(यथाकाष्टमध्ये) जैसे काष्टके विषे (वन्हिः) अग्नि (क्तिरुपेण) अपनी शक्तिसे (तिष्टति) समा रहि हुइ हैं (अयमात्मा शरीरेषु) तैसे इस देहके विषे अर्थात् देहरूपी कोटके अंदर आत्मा अपनी शक्तिसे समा रहा है JE [योजानाति] ऐसा जो महापुरुष जानता है [स पंडित] वही महाभाग्य सर्व शास्त्रके जान तत्त्वज्ञानी है वहीं पंडित SE | वही आत्मज्ञानी वही महापुरुष योगी ध्यानी है ॥२४॥
इस लिये आत्मज्ञानकी प्राप्ति विना चावे जितने जप तप संयम व्रत और नेम पच्चखानादिक क्यु न करलेवे लेकिन आत्मज्ञान विना तीर्नुकालमे मोक्ष नही हो सके इस लिये भव्य जीवोंको चाहिये कि मोक्ष सिद्धिके लिये आत्मज्ञान प्रथमसेंही होनेकी जरुरत हैं
दोहा-स्वात्मके जाने विना । करे पुण्य बहुदान ॥ तदपो भ्रमे संसारमें । मुक्ति न होय निदान ॥१॥ जैसे भोजनकी सिद्धिके लिये जल अन्नादिक सर्व सामग्री तैयार हैं लेकिन अग्नि विना केवल जलादिक साम
ASRHARS
AmruarumpRGUARDAGAUR
a ndeshSPAISAUNDLALULAas
PRONOURE
JainEducation
For Personal & Private Use Only
D
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीनसंग्रह
ग्रीसें भोजनकी सिद्धि नही होती तैसे आत्मज्ञान विना नाना प्रकारके तप जपादिक कर्मकांडकी किरियासें मोक्ष अध्यात्मविचार
| सुखकी सिद्धि नहीं होती इस लिये शुद्ध व्यवहार ज्ञानयोग सहित आत्मज्ञान और आत्मध्यानसेही मोक्ष हाती है
लेकिन केवल कर्म योगसे मोक्ष नही होती (शंका) आपका कहना है कि कर्म योगसे मोक्ष नही होती सो ठिक है | लेकिन कर्मयोगके विषे भी विचित्र प्रकारकी शक्ति रही हई है क्योंकि जितने महापुरुषों मोक्ष गये है वह सर्व प्रकारे कर्म योगसे ही गये हुये है तब आप एकेले ज्ञान योगसे मोक्ष कैसे कहते हो (समाधान) हे देवाणु प्रिये तेरा कहना
ठिक है लेकिन जो जिसका विरोधी नहीं होतें वह उनके नाश करनेके लिये कैसें सामर्थ हो सकेंगे क्योंकि जो केवल JE ज्ञानरहित कर्मयोग है वहतो मन इंद्रियोंकी शुद्धिके लिये है रेचकी तरह लेकिन मोक्षके लिये नही है क्योंकी कर्म-15
योगके और अज्ञान के परस्पर विरोध ही नहीं हैं तब कहो भला उनके नाश करनेके लिये कैसे सामर्थ होगे क्योंकि वह ay दोनोंही जड हैं इस लिये जो कर्मयोग हैं वह अज्ञानकी निवृत्ति करनेके लिये कैसे समर्थ हो सकेगे इस लिये अज्ञा- | नको दूर करनेके लिये एक ज्ञान योगही सामर्थ हैं दोहा-ज्ञानरहित क्रियाकही । काशकुमुमउपमान ॥ लोकालोक प्रकाशकर । ज्ञानएक परधान ॥१॥
कष्टकरी संयमधरो । गालो निज देह ।। ज्ञानदशा विण जीवने । नही दुःखनो छेह ॥ २॥
अध्यात्मविन जे क्रिया । ते तनुमल तोले ॥ ममकारादिक योगथी । ज्ञानी एम बोले ॥ ३ ॥ 'आत्मज्ञानी श्रमण कहावे बीजातो द्रव्यलिंगीरे' विचारे कितनेक बालजीवों वेषधारियोंको मुनि यति कहते
ع والتحليلات و الأبحانکانے
اللي اللي قالك انا في ال لا لالالالالالالالالم
ستلند نشانتانانتالایمان لانتشافهاتفت داده لما نشان
in Education
For Personal & Private Use Only
hirulu.ininelibrary.org
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
॥ ५२ ॥
है केवल अज्ञानता के लिये कितनेक द्रव्यलिंगीयों कहते हैकि हम मुनि है हम श्रावक है इत्यादिक जो कल्पना करते हैं वह केवल अज्ञानतासेंही करते है अज्ञानका पडल दूर होनेपर यही आत्मा परमात्मरूप हो जाता है.
शङ्का — जब आत्मा परमात्म रूपही हैं तब यह आत्मा अनादिकालसें जन्म जरा और मृत्यु करके पुनः पुनः लक्ष चौरासी योनि के विषे वयुं भ्रमण कर रहा है ? समाधान - यह आत्मा अज्ञानके वशीभूत हुआ अनादिकाल से जन्म जरा और मृत्युके संकट में आकर कष्ट भागते है लेकिन (तत्त्वमसि) जब आत्माको आत्म और परमात्मकी एकताका ज्ञान होजाता है तब अज्ञानरूपी मिथ्यात्वका जो अनादि कालसे आरों था यह आपसेआप नाश होनेपर यही आत्मा परमात्मा है इसलिये आत्मस्वरूप सदा शुद्ध निर्मलही हैं.
श्लोक – अज्ञान कलुषं जीवं । ज्ञानाभ्यासाचिर्निमलम् ॥ कृत्वाज्ञानं स्वयं नश्ये । जलंकतक रेणुवत् ॥१॥
निश्चयकरके यह आत्मा सदैव सत्य सच्चिदानंदमय परब्रह्म है लेकीन अज्ञानताके लीये अपना स्वरुप भूल कर | अज कुलवासा केसरी सिंहकी तरह मैं कर्ता हुं मैं भोक्ता हुं मैं राव हुं मैं रंक हुं मैं शेठ हुं इत्यादि पुल पर्यायके भ्रमसे देहको हुं माननेपर अनादि कालसे (कलुषं) यह आत्मा कमेसें मलिन हो रहा है वही मैं अकर्ता अभोक्ता सत्य सच्चिदानंदमयी साक्षीरूप परिब्रह्म हुं ऐसा व्र स्वरूप समझके बहुत समयतक अभ्यास करनेपर आपसे आपही स्वप्रकासमय निर्मल होकर याने मायारूपी मलसे रहित होकर अपने स्वरूपमें स्वतेंही स्थिरीभूत होजाता है याने
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ॥ ५२ ॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
/JF
जीतसंग्रह
अध्यात्म
आपसे आप निर्मल हो जाता है विचार
शङ्का-तब कहो भला मैं ब्राह्मण हुं मैं मुनि हुँ मैं ऋषि हुं इत्यादिक जाति वर्ण करके तथा धर्म अधर्मसे आत्मा प्रतीत हो रहा है तब आप आत्माको असंग कैसे कहते हो ? समाधान-जाति वर्णादिक आत्माकेविषे कल्पित JE आरो है वस्तु गते कुछभी नही है क्योंकि जो देहके धर्म है वह जाति वर्णादिक मिथ्यातपनेसे आरोपण किये हुये
है वह सर्व अज्ञानपनेसें कल्पित है तत्त्व दृष्टिसे देखा जावे तो कुछभी सत्य प्रतीत नहीं होते अब कहते है कि जो अविद्या करके कल्पित उपाधि है उसका स्वरूप बतलाते है जो पञ्चमहाभूत याने पृथ्वी जल तेउ वायु और आकाश यह पश्च उपादान कारनसे जिसकी उत्पति है वह केवल कर्म रचित है वह अज्ञानपनेसे आत्माको सुख दुःख कल्पित भोगनेका एक आयतन याने स्थान है जिसका नाम मनुष्य रखा हुआ है. दोहा-पांचभूतका पूतला । मनुष्य धरिया नाम ॥ दोय दिनोंके कारणे । क्युं धरावे मान ॥ १॥
अपतेहु वायु छरे । धरणी और आकाश ॥ पांच तत्त्वने कोटेमेरे । आय कियो ते वास ॥२॥ शरीरादि कमौकी उपाधि इस आत्माको अनादिसे लगी हुई हैं और प्राण समान अपान उदान व्यात और | मनके संकल्प विकल्प पनेकी अंतःकरनकी वृत्ति और पांच इंद्रियोंके तेवीस विषयकी जो उत्पत्ति वह आत्माकी प्रणंति नहीं हैं वह तो जड पुद्गलमय हैं क्योंकि तत्त्व सल ज्ञानसे रहित जगत्की उत्पत्तिरादि असत्यसे कही जाय नहीं क्योंकि जो जगत्की मायाको सत्य कहोगे तो वह ज्ञान करके याने सल ज्ञानसे नाशवान दिखलाती हैं और जो
و انتقالات تالف
Join Education in
For Personal & Private Use Only
www.
beyond
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्मविचार
الاناكانی هه وتقيان في اللي فيه الفالفا نفالستالار
असल कहोगे तो असत्यता जगतकी उत्पतिका संभवही नहीं होता ते अनादिसे यह संसार उत्सतिसे रहित परति हो रहा है और औदारिक वैक्रिय आहारक तेजस और कार्मण उत्पन्न होने का मुख्य कारण केवल अज्ञानता कहाहै इस लिये आत्म अनुभव ज्ञानसे निश्चय करना चाहिये कि मेरा आत्मस्वरूप देहादिक जड पदार्थोसें सदा भिन्न और मलसे रहीत महा निर्मल है सदा अविनाशी सुखमय अकथ्य है कथनीमें आ सके वैसा नही है (शंका) आत्माको आप सदा सच्चिदानंद ज्ञानमय कहते हो तो वह सबमे प्रतीत होना चाहिये (समाधान) निश्चय दृष्टिसे देखा जावे ती आत्मा सर्व चराचर जीवोंके विषे व्यापक प्रतीत हो रहा है लेकिन ज्ञान विना कैसे प्रतीत हो सके जैसे सूर्य अपनी किरणो द्वारा सर्व व्यापक प्रतीत हो रहा है लेकिन घट कंदरादिकके विषे यथार्थ प्रतीत नहीं होता लेकिन जलादिक के विषे प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है तैसे इस देहरूपी मठके विषे आत्मा प्रत्यक्ष ही प्रतीत हो रहा है | ज्ञान कर के और व्यवहारसे देह इंद्रियोके साथ रहनेपरभी आत्मा वर्तमानकालमें भी देहसे भिन्न है नेत्रादिक इंद्रि-र योंके विषे पेरना करने पर आत्मा प्रतीत होता है ऐसा कहना ज्ञानहीन मूर्ख जनोका है लेकिन तत्त्वज्ञाता नहीं कहते नहीं मानते देह आश्रित इन्द्रियों अपने अपनें अर्थके लिये व्यवहार क्रिया कर रही है तोभी उसमें आत्मता नहीं संभवती (शंका) जब आत्मा इन्द्रियादिकसे भिन्न और ज्ञानमय है तब कहो भला मैं यौवन हुँ मैं वृद्ध हुँ मैं यालक हूं वे अंधा है वह काणा है वे शेठ है वे राजा है वह रंकजन है मैं सब कर सकता हूँ मैं सब सुन रहा हूँ इत्यादिक व्यवहार आत्माके विषे प्रतीत हो रहा है इस लिये आत्मा राजा रंक शेठ जन्म मृत्युवाला अवश्य ही
UPDADOOK.
COcra
in Education
a l
For Personal & Private Use Only
2
lainelibrary.org
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
अध्यात्म- होना चाहिये (समाधान) राव रंक जन्म जरादिक जो उपरोक्त कह आये है वह केवल देह इंन्द्रियोंके धर्म है लेकिन विचार
अज्ञानपनेसे मूर्ख जनो आत्माके विषे मिथ्यात्वपनेसे आरोप किये है वस्तु गते देहादिक धर्मसे आत्मा सदा | रहित हैं क्योंकि इंद्रियादि देह के जोजो विषय और अंध बधिरादिक धर्म और मन वचनादि जो योग है वहतो केवल || जडरूप है और आत्मा सदाज्ञानानंदमय है ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूपके विषे अज्ञानी लोग अविवेक पनेसे खोटा मिथ्या आरोप करते है लेकिन निश्चयनयसे आत्माके विषे जन्मजरादिक धर्म कुछभी नही हैं जैसे आकाशके विषे अज्ञानी लोग नील पीतादिक रंगका आरोप करते हैं वह कल्पित हैं तत्वदृष्टिसे देखा जावे तो कुछभी नहीं हैं। (शंका) बहुत अच्छा जो देह इंद्रियादिक और जन्मादिक धर्म आत्माके विषे नही हैं सो तो ठीक है लेकिन मैं करता | हरता हुं अमूक तब कहो भला पुण्यवान महा धर्मी है अमुक महा अधम पापी हैं ऐसातो सदैव देखलाता है ताते यह आत्मा का भोक्त अवश्यही होना चाहिये समाधान कर्ता भोक्तादिक जो धर्म है वह तो शरीर आश्रित कहा गया है लेकिन आत्मा आश्रित नहीं है केवल भ्रम करके आत्माके विषे कल्पितपनसें आरोप करते है और जो रागादिक है वह तो केवल मोहराजाका धर्म हैं वह अनादिकालसे आत्मायें अज्ञानरूपी पडदा डालके कल्पना करते हैं राग इसलिये पुद्गलीक विषय सुख तीव्र अभीलाषा कराते है परन्तु आत्मराजा जागृत होनेपर मोहराजा आपसे
आप पलायन कर जाते है [शंका जय रागादिक आत्माका स्वभाव ही नहीं है तब आत्माका स्वभाव कैसा है समाAE धान] आत्माका शुद्ध स्वभाव दृष्टांत करके बतलाता हुं जरा एकग्रह चित्तसे सुनिये जैसे स्फटिक रत्न महानिर्मल और |
in Education
For Personal & Private Use Only
Edwainelibrary.org
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
विचार
२६ कांतिमय स्वप्रकाशवाला महा स्वच्छ होता है तैसेही आत्माका स्वभाव सदैव केवल प्रकाशमय महा स्वच्छ अध्यात्म
महा निर्मल हैं गाथा-जेम निर्मलतारे स्फटिक रत्न तणी। तेम ते जीव स्वभाव । तेजिनवीरे धर्म प्रकाशियो। प्रबल कषाय अभाव॥१॥
राते कूलेरे रातडो श्याम फूलथीरे । श्याम पुण्य पापथीरे । तेम जगजीवने रागद्वेष परिणाम ॥२॥
शंका-मैं दाता हु मैं सुरवीर हुं मैं सब जानता हुं अब में जाताहुं अभी में आता हुं ऐसे व्यवहार करके Jआत्माकी प्रतीति हो रही हैं तब आप निर्विकार सिद्ध के समान आत्माको कैसे कहते हो ? समाधान में सुखी हुँ
दुःखी हं इत्यादिक कहना बहिरात्म वृनिवाले अज्ञानियोंका हैं लेकिन आत्मा सदैव असंग निर्मल बंधनसे मुक्तही हैं निश्चय नयसे आत्मशुद्धस्वरूपके विषे कोइभी तरहका विकार है नहीं है क्योंकि आत्माका स्वरूप अरूपी और निष्क्रियते अर्थात् क्रियासे रहित है सदैव तैसेही वाणीसे जिसका स्वरूप नहीं कहा जाचे शंका-जब आत्माका स्वरूप मन बुद्धिसे नहीं कहा जावे तब आत्म स्वरूप जानने के लिये और कोई दूसरा ज्ञानभी होना चाहिये ?
समाधान-आत्मा आपही ज्ञानमय है ईसलिये आत्माको दूसरे ज्ञानकी जरूरतही नहीं रहती वह दृष्टांतसे सिद्ध करके बतलाते है जैसे सूर्यको तथा दीपकको अपने प्रकाशके लिये दूसरे प्रकाशकी सहायता लेनीकी कुछभी जरुरतही नहीं रहती क्योंकि आपही प्रकाशमय है तैसे आत्माको दूसरे ज्ञानकी कुछ जमरतही नहीं पड़ती देखो महात्मा पुरुषने क्या कहा है जरा सुनिये
in Education International
For Personal & Private Use Only
www.janelibrary.org
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म-ISE
गाथा-आप अपने रूपको । जो जाने सो शिव होय ।। परमें अपनी कल्पना । करे भ्रमें जग सोय ॥१॥ | जीतसंग्रह विचार
शंका-जब आत्मा आपही प्रकाशमय ज्ञानरूपही है और जन्म जरा मरणादिक दुःखोंसे सदा मुक्त है तब कहो | भला सर्व जीब कर्मोंसे मुक्त क्युं नहीं होते (समाधान) निश्चय करके आत्मा तो सदैव कर्मोसे मुक्तरूपही है लेकिन | अनादिकालसे अज्ञानरूपी अविधाके वशीभूत हुआ यह आत्मा अजसिंह दृष्टांते भूला हुआ जन्मजरा मरणादिक दुःख भोग रहा है परन्तु अजर्वासी सिंहकी तरह संपूर्ण याने सर्वथा भूल निकलनेपर यही आत्मा परमात्मा है इसमें एक लेशमात्रभी संशे नहीं है क्योंकि यही आत्मा केवल ज्ञानमय संपूर्ण हैं परन्तु आत्माको केवल ज्ञान देने वाला दूसरा कोईभी साहेक नहीं है किन्तु मन बुद्धि और वाणीसे भाष नही हो सक्ता क्योंकि वह तो अनुभव गम्य है और जो मन बुद्धि है वह तो जड है इस लिये आत्मा मन बुद्धिसे कैसे भाष हो सके लेकिन अनुभवसे अवश्यही भाष होता है वही अध्यात्म तत्वज्ञान है जिस अनुभव ज्ञानके प्रभावसे यह जीव कोसे मुक्त होकर सिद्ध पद वरता है
गाथा-अनुभवसंगेरेरंगेप्रभुमिल्या, सफलफल्याराविकाज । निजपदसंपद सहिजे अनुभवे, आनंदघनमहाराज १ शंका-कभी शरीरादिक उपाधिका त्याग नही करतो आत्माकी हानि क्या है?
समाधान-शरीरादिक क्योंकि आत्मा तो सदा अपने स्वरूपमें उपाधिसे भिन्न है सर्व संसारकी उपाधिके Jel| त्यागविना स्वआत्म स्वरूपको जानना अति कठिन है क्योंकि महात्माओने कहा है.
गाथा-जेजेसेनिरउपाधिपणो । तेतेजाणोरेधर्म ॥ सम्यष्टिगुणगणथकी। जावलहैशिवसरम ॥१॥
For Personal & Private Use Only
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
इसलिये सर्व तरहकी उपाधिके त्यागबिन आत्म स्वरूपका निश्चय अनुभव नहीं होता इसलिये संसारकी सर्व अध्यात्म
उपाधिका त्याग करनाही चाहिये अब जो मनका धर्म है वह आत्म शुद्ध स्वरूप के विषे निषेध करके दिखलाते है विचार
कि ईस दुनियांकेविषे अज्ञानी जीवोंको भारी दुःखही क्या है कि अपने निज स्वरूपको छोडकर इन्द्रियोंके विषय सुखमें आसक्त रहना याने विषयभोगके विषे राग प्रेन प्रीति करना अर्थात् रागद्वेषसे एक राग दुसरे द्वेष राग आनेसे सुख उत्पन्न होता है और द्वेषसे दुःख होता है वह रागद्वेष केवल मनही कराता है क्षणेरुष्टा क्षणेतुष्टा फेर उदासीन वृति शोक वृति भय हास्य सहतासुख दुःख वियोग संयोग ईत्यादिक यह सर्व मनके धर्म है मेरे नहीं है मेरा धर्म और मेरा स्वरूपतो मनसे रहित सदा भिन्न है मैंतो केवल मन इन्द्रियोका सोक्षीभूत हु और देह अश्रित क्षुधा विपासादिक है वहतो केवल प्राणोके धर्म है लेकिन मेरे विषे नहीं है क्योंकि मेरा स्वरूप और मेरा धर्म द्रव्य प्राणोंसे सदा रहित द्रष्टा ज्ञाता है इस लिये क्षुधा तृषा आदि धर्म मेरे विषे नहीं है स्वरूप सर्व प्राणोसे
भिन्न है और मन वर्गणासे भी भिन्न है इस वास्ते रागद्वेषादिक धर्म मेरे विषे नहीं है मेरा स्वरूप और मेरा धर्म JE | अनादिकालसे अनंतज्ञान अनंत दर्शन और अनंत चारित्रमय है इस लिये जन्मजरादिक धर्म मेरे विषे नहीं है मेरा
स्वरूप सदैव निर्विकार निराकार शुद्ध केवलज्ञान मय है वह नित्यहें ही भूत भविष्य और वर्तमान तीनोंही कालमें sal एक रूप हुँ सर्व तरहके विकारोंसे रहित हूं आकाशवत् स्वतंत्र और सदा निर्भय हे नित्य कर्मोसे मुक्त हुं जो अज्ञानी
जीवोंने स्वआत्म धर्ममे विपरीत मिथ्या कल्पित धर्म माने है उसका आत्मा अधिष्टान है और यह जो संसार जड
حيث تم الشلالاتكالات استقالته فكلنا
Join Education in
For Personal & Private Use Only
www.elbord
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
रूपसे दृश्य है उसके विषे अकाशवत् ज्ञान करके व्यापक हैं तो भी सबसे भिन्न अलिप्त हैं वे मंही हुं
शंका- तब तो जगत् के नाश होनेपर आत्माका नाश होना चाहिये (समाधान) कल्पित सब जगत् के नाश होनेपर मेरा नाश कभी नहीं होनेवाला क्योंकि मैंतो सबके अधिष्टन रूप हूं इस लिये मेरा विनाश तीनुं कालमें नही हो सकता क्योंकि मेरा स्वरूप पुण्य पापरूपी बंधन से वर्जित और अचल इस लिये सर्व जगत् के चलाचल धर्मसे रहित स्वरूप है मेरा ऐसा आत्मस्वरूपका जिसको दृढ श्रद्धा न होजाता है वह भव्य थोडेही कालमें निर्वाण पदका अवश्य ही भोक्ता होजाता है जैसे उत्तम रसायन औधिका सेवन करनेपर बहुत कालका रोगी पुरुष आरोग्यताको प्राप्त हो जाता है अब आत्मा और परमात्मा की एकता के लिये साधन बतलाते है निरुपाधि एकांत स्थान जेहां होवे आत्मध्यान उपाधि रहित एकांत प्रदेस में सुख पूर्वक पद्मासन या सिद्धासन लगाके वैराग्यमय चित्तको वालके और शब्द स्पर्शादिक विषयोंसे मनको वालके गरुगम्यसे अष्टांग योग विधान यथार्थ स्वरूप समक्षके शनैः शनैः अभ्यास करे मोक्षार्थी और चार भावनामें अपने मनःको दृढ रखे मैत्री प्रमोद करुणा और मध्वस्था यह चार भावनाएं है और इस देह से अपना स्वरूप सदा भिन्न विचारे अर्थात् आत्माकी ऐसी दृढ भावना होनी चाहिये कि स्वप्न में भी में साधु हुं में मनुष्य हुं में पुरुष हुं मैं स्त्री हुं में सुखी हूं में दुःखी हुं ऐसा विचार नही आना चाहिये (शंका) इस संसारादि प्रपंच जालके विषे आत्माकी एकत्व भावना कैसे हो सके (समाधान) तत्व दृष्टिसे अथवा अध्यात्म ग्रंथोसे आत्माका स्वरूप यथार्थ समझ के और सर्व जगत् के प्रपंच छोड़के अन्तर वृतिसे जगत् के साक्षीभूत शुद्ध अत्म
INS
For Personal & Private Use Only
1981
毛毛毛美睫美挑
"जीमगं
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह
Jह स्वरूपका ध्यान करनेपर आपही अपने स्वरूपमय स्थिरीभूत हो जाता है स्वरूपमें स्थिरीभूत होने पर कर्म रूपी काष्ट अध्यात्म
आपसे आप भस्मीभूत होकर उड जाते है एक छनमें विचार
गाथा-ज्यु दारुके गंजको । नर नसके उठाय || तनक आगसयाते । छन एकमें उड जाय ॥१॥
- तत्त्व दृष्टिसे देखा जावे तो शरीररूपी आत्मा नहीं है जैसे शिशु अपनी छाया देखनेसे वे तालकी भ्रांतिसे २ डरते है वह डरना मिथ्या है तैसे अनादिकालसे अविद्यारूपी विषमग्रहकी भ्रांतिसे इस शरीरके विषे जीवका आरा
पन करते है वह मिथ्या आरोप करते है ज्ञान दृष्टिसे देखा जावे तो यह आत्मा तीर्नुकालमें देह जड नहीं हो सका बच्चा बडा होनेपर अपनी छायामें जो वे तालका भ्रम था वह ज्ञान होनेपर आपसे आप दूर हो जाता है ऐसे ही पूर्ण ज्ञानका प्रकाश होनेपर यही आत्मा भ्रमरीकी टवत् प्रत्यक्ष ही परमात्मा रूप हो जाते है इसमें एक लेशमात्रभी संशय नहीं है जैसे आकाश धूलीसे लिप्त नहीं होते तैसे ज्ञानी महापुरुष पुद्गलीक विषय सुखमें लिप्त नहीं होते
ज्ञानी महापुरुष सर्व करते है देखते है और भाषते भी है विचारते भी है तद्यपी कमलकी तरह संसारमे अलिप्त ही || रहते है वायुकी तरह अप्रतिबंध अपने स्वरूपमें अकेले ही विचरते है. अथ एकत्व भावना.-ज्ञान ध्यान चारित्रनेरे, जो दृढ करवा चाह । तो एकाको विहरतारे
जिन कल्पा दिसायरे प्राणी ॥ एकल भावना भाव, शिवमार्ग साधन दावरे प्राणी ॥१॥ भावार्थ:-हे मुनि जो तेरेको ज्ञान ध्यान तथा चारित्रको दृढ करनेकी पूर्ण इच्छा होवेतो अकेलो जिनकल्पीकी
انا للافلامی خاندان اوائل التتار کرد: این مجتمع
memarimrosacramerica
JninEducatioltimilsinal
For Personal & Private Use Only
www.janelibrary.org
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म विचार
तरह विचर एकल भावना भाव यही मोक्षमार्ग साधनेके लिये हे मुनि यही पुरा दाव है.
HE जीतसंग्रह साधु भणी गहवा सनीरे । छुटी ममता तहै । तोपण गच्छवासी पणोरे । गण गुरुपर छे नेह प्रा० ॥२॥ ... भावार्थ:-हे मुनि संयम लेनेपर घरकी ममतातो तेने सर्व छोडदि तोभी तेरेको हाल गच्छका ममत्व नही छुटा क्योंकि हाल तेरेकोगच्छ समुदाय पर स्नेह रहा हुआ है इसलिये हे मुनि तेने घरवार माया ममता स्त्री पुत्रादिकको छोडके दिक्षा लियातो क्या और नहीं लियातो क्या धोबीके कुत्तेकी तरह नहीं घरके नहिं घाटके रहे तब क्या करना चाहिये वह देखलाते है
- वनमृगनी परेतेहथीरे । छोडी सकल प्रतिबंध ॥ एकाकी अनादिनारे । किण था तुझ प्रतिबंधरे मा० ॥३॥
भावार्थ:-इसलिये हे मुनि अब वन मृगकी तरह सर्व तरहसे गच्छादिकका प्रतिबंध छोडकर अकेला विचर यही श्रेष्ट है क्योंकि तुं अनादिसें चतुर्गतिके विषे अकेलाही विचर रहा है इसलिये हे मुनि तु विचारके देख कि संसारमें तेरा साहेक कौन है और तेरेको किसके साथ प्रतिबन्ध रहा है क्योंकि तु एक एक योनीके विषे अनंती २ वेर जाके आया हुआ है इसलिये संसारमें तेरा कोइभी सगा सम्बन्धि नहीं है तैसेही तुभी किसीका सगा सम्बधि नही है ऐसा समझके हे महा भाग्य अब तुं गच्छादिकका तथा चेला चेलीको प्रतिबंधन छोडके अकेला विचरके अपना कल्याण करकरले ॥३॥
ये पण खटपट थायरे । चुडीनी परेरे । विचरु अकेलो । एम वुझ्या नमी रायरे ॥१॥
Jain Education
For Personal & Private Use Only
Wowww.ininelibrary.org
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
॥ ५७ ॥
Jain Education
शत्रु मित्रता सर्वधीरे । पामी वार अनंत ॥ कौन सयण दुश्मण किस्यारे । काले सहुनो अंतरे प्रा० ||४|
भावार्थ:- इस संसारकेविषे प्राय करके सर्व जीवोंके साथ शत्रु मित्रता अनंती वेर हो चुके है इस वास्ते है | चैतन्य अब तु विचारके देखेकि इसमें कौन तो तेरा मित्र है और कौन तेरा शत्रु दुस्मी हैं क्योंकि (काले) काले | करके सबका अंत है इसलिये संसारमें नहीं कोइ तेरा मित्र है नहीं कोइ तेरा शत्रु है. ॥४॥
बांधे कर्म जीव एकलोरे। भोगवे प्रण तें एक || किन उपर किण वातनीरे । राग द्वेषनी टेकरे प्रा० ॥५॥
भावार्थ :- हे भव्य यह आत्मा अकेला अशुद्ध प्रणति और अशुद्ध उपयोग परपरिणति योगसे कम से बंधिजता है वह कर्त उदे आनेंपर जीव अकेलाही भोगते हैं तब कहो भला अन्य अर्थात् दूसरोपें रागद्वेष क्यों करना चाहिये वहतो पूर्व कृत्य शुभाशुभ कर्मकि फल हैं ईसलिये तेरा कोई भी शत्रु नहीं कोइभी मित्र नही है केवल कर्मही शत्रुभूत है अन्यतो केवल निमित्त मात्रही है ॥५॥
जो निज एक पशुं ग्रहेरे । छांडी सकल परभाव । शुद्धात्म ज्ञानादि सुरे । एक स्वरूपे भावेरे प्रा० ||६||
भावार्थ - अनंत ज्ञान गुण संयुक्त और शुद्ध लक्षण केवल ज्ञानमयी मेही हुं अन्य सर्व पौङ्गलकी पर्याय है ऐसा अपने शुद्धात्म स्वरूपको समझके और सर्व विभाव दशाको छोडके सदा अयाधित्म मेरा स्वरूप शुद्ध गुण पर्यायका में पिंडही हुं ऐसे एकत्वभानाभानेसे अन्य जो द्रव्य गुण पर्यायके विकल्प आते हैं वे आपसे आप विलाये जाते हैं। अर्थात् सर्व संकल्प जानेपर निर्विकल्प समाधिकी प्राप्ति आपसे आप हो जाती है इस लिये हे मुनि अब तु सर्व
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ॥ ५७ ॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म
विचार
तरहके विकल्प छोडके एक शुद्धात्मका ही
अनुभव करले हे महाभाग्य यही मोक्षका सुगम उपाय है ॥ ६ ॥ आयो पण तु एकलोरे। जाईस पण एक ॥ तोए सर्व कुटुंबधीरे । प्रोति कैसी अविवेकरे ॥ प्रा० ७ ॥ भावार्थ- हे चैतन्यतुं यहांपर अकेला आया है और यहांसें पीछा अकेलाही जावेगा तब हे चैतन्य यह सर्व अस्थिर कुटंब परिवार के साथ तथा अन्य सर्व पदार्थों के साथ क्या प्रेम क्या मोह रखता हैं है अविवेकी ॥ ७ ॥ वनमांहे गजसिंहादि धीरे । विहरता न ले जेह ॥ जिण आसन रवि आथमेरे । तिण आसन निशि छेहरे | प्रा० ८ || भावार्थ-मुनि वनके विषे विचरते हुए गज सिंहादिकको देखके भयभीत होकर पीछा हटते नहीं तैसेही सूर्य अस्त होनेपर अर्थात् जिस आसन रवि अस्त होनेपर वह आसन छोडके आगे चलते नहीं तहांपर ही निर्भय होकर एक चित्तसे ध्यान में अडग रहकर रात्रीको वहां ही पूरण कर देते है ॥ ८ ॥
आहार ग्रहे तप पारण रे । कर्मा लेप विहीण । एकवार पाणी पीवतां रे । वन चारी चित्त अदीन रे || प्रा०९ || ऐसे वनचारि मुनि तपके पारनेके समय स्वादयनेकी लोलूपता मूर्छादिक रहित होकर याने कर्मरूपी लेपसे रहित केवल संयमी रक्षा के लिये दिनमें एक दफेही निर्दोष आहारको ग्रहण करे और एक दफेही जलपान करे और बनचारी मृग आदिकी तरह अदिन पनसे अकेलाही विचरे यह प्रवृत्ति प्राय करके जिन कल्पि साधुके लिये संभहोती है फेर केवली गम्य ॥ ९ ॥
एह दोष पर ग्रहणधीरे । परसंगे गुण हाण | परधन ग्राही चोरतेरे । एक पण सुख गणरे || १० ॥
For Personal & Private Use Only
醃兆羌张无現出
जी संग्रह
winelibrary.org
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
।। ५८ ।।
Jain Education
भावार्थ - आत्माकुं जो दोष हैं वह पर परिणती पर पुल पर पर्यायको ग्रहण करने परही हैं अर्थात् पर पुगलादिकके कर्त्ता भोक्ता होनेपर संकल्पसे ही दोष हैं परन्तु पर पुगलकी रक्षणता आदि सब छोडके केवल एक शुद्ध आत्म तत्वको ग्रहण करने पर यही आत्मा अनंत गुणोंकी खानी हैं परन्तु पर पुद्गलादिक पर संग करने पर निज आत्मगुणकी हानी हो रही है इस लिये हे मुनि परसंग परपुद्गलकी ममत छोडके अब तो शुद्ध आत्मभावमें रमन| कर हे महाभाग्य यही सुखकी खानी हैं यही स्वतंत्रा हैं परन्तु जब तकपर जडपदार्थको याने शुभाशुभ कर्म दलको तुं ग्रहण कररहा है तब तुं चोर ही हैं जब तुं शुभाशुभ पर पदार्थ पर धन आदिका त्याग करके अपने स्वरमें रहकर अनंत ज्ञानदर्शन और चारित्रकी रक्षा करेगा तबही तु शाहुकार कहलावेगा इस लिये हे मुनि एक पनेमेंही सुख है परसंगे सदा उपाधि हैं सुख नहीं हैं जेजे असे निउपाधिनो तेते जानोरे सुख ॥ १० ॥
पर संयोगथी बंध छेरे । पर वियोगथी मोक्ष || तणे तजी पर मेलावडोरे । एक पणो निज पोषरे ।। प्रा० ११ ॥ भावार्थ-जब तक आत्म. को पर पुद्गलका संयोग है तब तकही आत्माको चर्तुगतिमें रुलनैका बंधन हैं और पर संयोग छोडके निज स्वरूपमें रहनेपर मोक्ष है इस लिये हे चैतन्य अब तु पर संगपर मेलावडा छोडके अकेला ही विचर और निज गुणकी पुष्टि कर ॥। ११ ॥
जन्म न पाम्यो साथे कोरे । साथ न मरसे कोय || दुःख वाटको नहीरे । क्षणभंगुर सह लोयरे ॥ प्रा० १२ ॥ भावार्थ- हे चैतन्य तेरे साथ सलाह करके किसीने जन्म लीया नहीं हैं तैसे ही यहांसे सलाह करके तेरे साथ
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ॥ ५८ ॥
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
| परलोक चलने वाले नहीं है तेसे ही तेरा कोई दुःख वाटके लेने वाले भी नहीं हैं इस लिये हे महाभाग्य यह संसारीक विषय भोगविलास सर्व सुख क्षणभंगुर हैं ॥ १२ ॥ परिजन मरतो देखीनेरे । शोग करे जन मूढ ।। अवसरे वारो आपणोरे । सह जननी ए रूढ रे ॥ प्रा० १३ ॥
भावार्थ-अपने कुटंब परिवार में से किसीको मरता देखके अज्ञानी मूढ चिंता करता है और नाना प्रकारसे विलाप करता हैं हा हा भारी जुल्लम हो गया अरे अरे छोटीसी वयमें चला गया ऐसा विचार करके बहुत बहुत दुःख विलाप करते हैं परन्तु दुसरेका मरण देखके ऐसा विचार नहीं करते कि आज इसकी वारी आइ है कल मेरी याने अवसर आनेपर सबका यही हाल होगा ऐसा मृढ मति अज्ञानी नही सोचते परन्तु जो ज्ञानी पुरुष होते है वह तो सर्व परिवारका तथा शरीरादिक पर द्रव्यका ममत्व छोडके सिद्ध समान अपना स्वरूप सइ.के सदा निर्भय होकर विचरते है सुरपति चक्री हरी पलीरे । एकला परभव जाय ॥ तन धन परिजन सहुमेलिरे । कोई सखाइन थायरे ॥ १४ ॥
भावार्थ:-हे चैतन्य सुरपति इन्द्र चक्रवरती वासुदेव और बलदेव आदि लेकर बडेबडे ऋधिवान और बडेबडे बलवान वह भी अपना सर्व वैभव याने सर्व रिद्धि सिद्धिको छोडकर अकेलेही परभव चले गये है लेकिन तन धन और अपने परिवारमेंसे कोईभी अपना सहाएक नही हुए ऐसे अशरण इस जीवको एक धर्मही शरण और साहेक है ईसलिये हे चैतन्य शुद्ध आत्म धर्मसे चलीत होके विषय पुद्गलीक सुखमें फसना ना चाहिये यही श्रिये है ॥१४॥
ज्ञायकरूप हुं एकछरे । ज्ञानादिक गुणवंत ॥ बाहेर जोग सहु अवर छेरे । पाम्यो वार अनंतरे प्रा० ॥१५॥
Join Education
For Personal & Private Use Only
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीतसंग्रह ॥ ५९ ॥
भावार्थ:-सर्वका ज्ञायकरूप और अनंत सक्तिका नायक में ही हूं और ज्ञानादिक अनंत गुणोके स्वामी मेंही हूँ! अध्यात्मविचार
JE और जो बाहेरके स्त्री पुत्र धन आदि जो पुद्गलीक संयोग मिला है वह सर्व मेरेसे सदा भिन्नरुप है और अनंतिवेर ॥ ५९॥ | मिलभी चुके है इससे मेरा क्या कल्याण होने वाला है ।।१५।।
__करकंडूने मिने माइयेरे । दुम्मुहप्रमुख ऋषिराय ।। मृगापुत्र हरिकेशीनारें । वंदु हुं नित पायरे प्रा० ॥१६॥
भावार्थ-करकंड मुनि नमिराज ऋषिको तथा दुम्मइ आदि महा ऋषिओंको तथा मृगापुत्र हरिकेशी मुनि आदिकों में सदा वारंवार वन्दन करता हूं. ॥१६॥
फेर-साधूचिलाती सुत भलोरे। वली अनाथी तेम ॥ एम मुनि गुण अनुमोदतारे । देवचन्द्र सुखखेमरे प्रा० ॥१७॥
पुनः महापुरुष चेलाति पुत्र मुनिको तैसेही अनाथी आदि निग्रंथ मुनियोंके गुणकी पुनः पुनः अनुमादना करनेपर देवचन्द्र मुनि कहता है कि अवश्यही कुशलतासे शिवपदकी प्राप्ति होती है. ॥१७॥
॥ॐ परम सुखंधिमही॥ ॥ इति श्रीअध्यात्मविचारजोत संग्रह समाप्तम् ॥
de
For Personal & Private Use Only
dainelibrary.org
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
For Personal & Private Use Only
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________ 021881982909089200020 Sର ssssssssssssssssssssssssss 5454545 ते श्रीअध्यात्मविचारजीत संग्रह समाप्तम्. // // sssssss$ ssssssssssssssssssssssss Jain Education n ational For Personal & Private Use Only www.n yong