________________
अध्यात्म
नहीं होतीती ईसका क्या कारण होगा हे कृपासिन्धो अति हिंसक कार्यमें अति राग द्वेष विषयी विचार
विकारमें अंध हुआ मैं गुणीजनोंकी निन्दा आदि महा मोहनी बन्धके हेतु मेने काम किये हैं ईसलिये मुझे धिक्कार हों अब श्रावकके तीन मनोरथ कहेंगे श्रावक सदैव ऐसा मनोरथ करेकि मैं हिन्सा असत्य अदत्त अब्रह्मचर्य सब तरहका आरंभ परिग्रह आदि यह सब मुझे दुर्गतिमें लेजानेवाले है महादुःखदाइ कर्मबन्धके | हेतु है चारों गतिमें रूलानेवाले यह सब आरंभ परिग्रह आदि मनवचकायासे त्याग करके जिस दिन सम्य
क्सहित संयम लेकर आत्मकल्याण करुंगा वो दिन मेरा सफल होगा १-२ मैं अंत समय मनवचन और कायासे किये कगये अनुमोदे हुये पापोंका पश्चाताप करके शुद्ध मनसे सदगुरुके पास प्रायश्चित आलोयगा लुंगा
और च्यार तरहके आहार अगर तरहतरहके पापस्थानकका प्रत्याख्यान करके और राग द्वेष रहित होकर पंडित Jeमरण करुंगा वोदिन सफल मानुंगा ॥३॥' अव भव्यजीवोंके कल्याणकेलिये बारहभावनायें कहुंगा.
गाथा -नविसुहीदेवतादेवलोए । नविसुहीपुढचीपइराया॥ नविसुहीसेठसेगावइय । एगन्तसुहीमुणिवीयरागा १
भावार्थः-नहीकोइ सुख है देवलोके देवताओंको नहिकोइ सुख हैं पृथ्वीके रायराणोंको नही कोइसुखही है सेठ सेनापनिकों परंतु वीतरागी मुनिकों एकान्त सुखही है दुःखको नहि लवलेश ॥१॥ शरीर धन भोग स्त्री पुत्र | पति माता पिता परिवार ऋद्धि सिद्धि चौदह रत्न अश्व हस्ति वस्त्र पात्र घर हवेली दुकान बाग बाडी गाडी आदि सर्व पदार्थो नाशवान है । हे चैतन्य इसमें तेरा सगा सम्बन्धी कोइभी नही है नाहक ममत्व करके क्यों कर्म बांधता हैं
Jain Education
For Personal & Private Use Only
--Towar.janelibrary.org