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________________ अध्यात्मविचार बन्दीखानेसे छात्मा संसाररूपी मिक ईन्द्रिय कदैखोरकनोयोग्यमिल्योतोसंतन न होय उरें ॥ जोमिलेसर्वसंयोगतब शरीर तुरतही छुटै ॥१॥ जीतसंग्रह न संसारे कश्चित सकलसुखभोक्ता क्योंकि अनादिकालसें मैराजीव जन्म जरा और मृत्युरूपी दुःख इस संसार सागरमें भोग रही है इसका मूलकारण अज्ञान ही है अज्ञान और मोहके वशीभूत हुआ यह आत्मा संसाररूपी | कैदखाने में दुःखही दुःख भोगरहा है इसलिये जिसदिन मैं संसाररूपी बन्दीखानेसे छुटुंगा वो दिन धन्य मानुंगा अर्थात् बन्धीखानेसे छुटके अनन्त अव्यावाध आत्मिक ईन्द्रिय रहित पूर्ण सुखमय मोक्षसुख पाउंगा वो दिन मेरा सफल होगा मुझे इस संसार चक्रमें परिभ्रमण करतेको अनन्ते कालचक्र होगये है जिसमें सर्व तरहके मेवे मिष्टानादिकके भोजन करचूका हुं और अच्छेसे अच्छे वस्त्र आभुषण मान सत्कारादि अच्छे अच्छे राज्यभुवन देवलोकके विमान आदिके सुख अनन्तीबेर भोग आयाहं तैसेंही नरक तीर्यश्च योनिके विषे भूख प्यास छेदन भेदन ताडण | मारण आदि क्षेत्रवेदना अनन्ती अनन्तीबेर मारखाके आयाहुं तोभी ईसजीवकुं नहीतो संतोष आता न तृषणा बुझती हैं जसे आगमें धृतकी आहुती देनेपर अग्नि शांत नहीं होती लेकिन उलटी वृद्धिको प्राप्ति होती है ऐसे विचारके सर्व संसारके बन्धन छोडके शालिभद्रकी तरह दीक्षा लेकर साधन करै वहजीव सुखी होवे. दोहा-धनविनतो निरधन दुखी । तृष्णावंत धनवान ॥ कोउ न सुखी संसारमें । सब जग देख्या छान ॥१॥ होय न तृप्ती भोगसें । यही अनादी रीत ॥ जो संयम गुण आदरे । रहे सकल दुख जीत ॥२॥ पर द्रव्य पर त्रिया विषे । माता रहै दिन रात ॥ यही संसारका बीज है । अलग रहो सब मित ॥३॥ انها تلك الحالات الاعلان الثالث: لا المنا JninEducation the For Personal & Private Use Only A lainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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