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________________ अध्यात्म विचार जीतसंग्रह ॥ ४ ॥ ॥४॥ ॥१४॥ भावार्थ:-इसतरहसें आत्मज्ञान तथा आत्मज्योतिके लेशमात्र स्पर्श याने लेशमात्र प्रकाश होनेपर आत्माका | तेज दिन २ वृद्धिको प्राप्त होता है जैसे सूर्यकांतमणिके विसे रहा हुआ अग्निका तेज वृद्धिको प्राप्त होता है ॥१४॥ मु०-पश्चन्नपरमंज्योति-विवेकानेः पतत्यधः ॥ परमंज्योतिरन्धिच्छन् । न विवेके निमजति ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-(पश्यन्नपरम ज्योतिः) परन्तु परमआत्मज्योतिके स्वरुपकों नहीं जाननेवाले मुग्धपुरुष (विवेकाद्रेः पतत्यधः) विवेक रहित आत्मज्ञान और आत्मज्योतिसें अवश्यही अंधपुरुषकी तरह अधोगतिमें पतित होते हैं अर्थात् विवेकहीन अज्ञानी पुरुष आत्मज्योति आत्मज्ञानसें नीचा गिरके दूरगतियोमें गमन करते हैं (परमज्योतिः) केवल अविवेकपनेसें परम आत्मज्योतिके स्वरुपकों नही जाननेसें अर्थात् (अविवेके) केवल अविवेकपनेसें आत्मज्ञा|नसे रहितहुए सर्वजीव (निमज्जति) इसभवसागरमे आत्मज्ञानबिना डूब रहे है १५ दोहा-ज्ञानी ज्ञान मगनरहै, रागादिकमलखोय; चित्तनुदास करनीकरे कर्मबंध नवि होय. भावार्थ:-ऐसे विवेकहिन परमआत्मज्योतिके स्वरुपको नही जाननेवाले मुग्धपुरुष विवेकहीन अज्ञानी पुरुष आत्मज्योतिसें नीचे गीरके अधोगतिमें गमन करते हैं तथा विवेकहीन आत्मस्वरुपसें अंधपुरुषकी तरह संसाररुपीकूपमे पतित होते है क्योंकि परमआत्मज्योतिकेस्वरुपकों नहि जाननेपर अविवेकपनेसें आत्मज्ञानरहितजीवों इसभवसागररुपी कूपमें कालीधर डूब रहे है ॥१५॥ मु०-तस्मविश्वप्रकाशाय । परमज्योतिषेनमः ॥ केवलं नैव तमस । प्रकाशादपियत्परम् ॥१६ ।। لالالالالالالالالالالا لان لعل عون الرجل مع و Jan Education International For Personal & Private Use Only ujainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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