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________________ DET अज्ञानतासे सरे देवोंकी ऋद्धि अपनेसें अधिक समझके ईर्षा द्वेष तृष्णाके वशीभूत होकर महादुखसे पीडित अध्यात्म-८ होकर अर्तध्यानसे मरके तीर्यश्च योनिमें उत्पन्न होकर विष्टाभक्षण करते हैं ऐसा समझके सम्यक्वान जीवकों विचार | दुख ने रभी सम्यक्सें चलित नहि होना चाहिये क्योंकि सुखदुःख आत्मिक धर्म नहीं हैं शारीरीक धर्म है | ऐसी भावना जो भव्यजीव छ महीना तक अखण्डधारासें हृदयमें रखेतो उसजीवको अवश्यही सम्यगर्श नकी प्राप्ति हो शकेन संदेह और सम्यकगुणकी प्राप्ति होने पर अवश्यही सिद्ध पदकी प्राप्ति है अर्थात् सम्यग्दर्शनकी | प्राप्ति होनेपरमोक्षसुखकी प्राप्तिस्वयं सिद्धहीहै ऐसी कल्याणकारी भावन.ऐं ज्ञानीने भव्य जीवोंके कल्याणके लिये देख | लाइहैं अनंते जन्मजर मरणादिकके दुःखोंसे मुक्त होनेके लिये ज्ञानीने कही है इसलिये इस भावनाएं को वारंवार विचारना वारंवार मनन करना पठन पाठन करना जो व्यवहार सम्यक हैं वह निश्चय समकितका कारण हैं और निश्चयमें देवगुरु | अरु धर्म अपनी आत्माही है आत्मा स्वयं सिद्धरूपही है क्योंकि आत्मा शरीरादि सर्व जड पदार्थोंसे सदा भिन्नरूही हैं जैसे सिद्धोमें अनन्तगुण रहे हुये हैं वैसेही गुण मेरी आत्माके विषे रहें हुए हैं तुं और नही मैं ओर नही ऐसा समझके और रागद्वेष रहित होकर जो आत्मज्ञान ध्यानमें लीन रहना वही चारित्र वही तपश्चर्या और वही योग हैं आत्मस्वरू पकी जो पूर्ण श्रद्धा होना बह निश्चय समकिन दर्शन है और आत्म स्वसरूपमें रम ग करणा है वह निश्चय चारित्र Bहै और जो इच्छाका रोध करना है वह निश्चय तपश्चर्या है मेरा स्वरूप सदा ज्ञान दर्शन और चारित्रनय अरूपी है और जो मेरे स्वरूपसे सदा भिन्न जड पदार्थ है जिसको अपना समझना हैं वही मिथ्यात्व हैं गाथा-वहिरात्मताको Inn Education For Personal & Private Use Only AFMainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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