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________________ जीतसंग्रह अब सम्यक्के अष्टलक्षण गुण बतलाते हैं अध्यात्म-136 दोहा-करुणावात्सल्यसज्जनता । आत्मनिंदापाठ ॥ समताभक्तिवैरागता । धर्मरागगुणआठ ॥१॥ विचार भावार्थ:-सर्वजंतु करुणा सर्वजीवोंके साथ मित्रता गुणानुराग अपनी निन्दा अपनीभूलके लिये पूर्ण पश्चासाप सर्वजीवोंपे समभाव तत्वज्ञानकी पूर्ण श्रद्धा संसारी पुद्गलीक विषयसुखोंसे उदासीनता रागद्वेष रहित और धर्म तथा धर्मी सच्चा प्रेम यह अष्ट गुण समकितके कहै अर्थात् यह अष्टगुण समकितवान जीवमें पावै । ___ गाथा-चित्तप्रभावनाभावयुत । हेय उपादेयवाणी । धिरजहर्षप्रवीणता । भूषगपंचवखाणी ॥१॥ भावार्थ:--स्व और परके लिये तत्व आत्मज्ञानकी वृद्धिरूप प्रभावना करनी शास्त्र के अनुसारे विवेक सहित सत्य और सबको प्रिये हितार्थ बोलना और अतिदुःख आनेपरभी धैर्य रखके सत्यधर्मकों नही छोडना और सदैव आत्मज्ञान ध्यान संतोषमें रहकर तत्वज्ञान में प्रविणहोना और जो समकितको मलीन करनेवाले अष्टमदहैं उनकोभी दूरकरना चाहिये जातिमद१ लाभमदर कुलमद३ रूपमद४ तपमद५ बलमद६ विद्यामद७ राजमद८ यह अष्टमद सम्यक्के मल हैं वास्ते इनकोभी दूरकरना चाहिये तेसेंही सत्य धर्ममें संशय रखना विषय भोगकी बांच्छा देहादिक पुद्गलीक भोगोमें ममत्वभाव और प्रतिकूल चीजमें घृणा याने अरुचि गुणीजन अरुचि होना और दूसरेकेदोषोंकों प्रकाशित करना ज्ञानमें वृद्धि नही करना और शुद्धगुरु देवधर्मकी तथा सत्यासत्य शास्त्र सिद्धान्तकी परीक्षा नहीं करके गतानुगति चलना यह सर्व उपरोक्त दोषों समकितको मलीन करनेवाले जानके भव्य जीवों को त्याग करना Jin Education For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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