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अध्यात्मविचार
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भावार्थ - आत्माकुं जो दोष हैं वह पर परिणती पर पुल पर पर्यायको ग्रहण करने परही हैं अर्थात् पर पुगलादिकके कर्त्ता भोक्ता होनेपर संकल्पसे ही दोष हैं परन्तु पर पुगलकी रक्षणता आदि सब छोडके केवल एक शुद्ध आत्म तत्वको ग्रहण करने पर यही आत्मा अनंत गुणोंकी खानी हैं परन्तु पर पुद्गलादिक पर संग करने पर निज आत्मगुणकी हानी हो रही है इस लिये हे मुनि परसंग परपुद्गलकी ममत छोडके अब तो शुद्ध आत्मभावमें रमन| कर हे महाभाग्य यही सुखकी खानी हैं यही स्वतंत्रा हैं परन्तु जब तकपर जडपदार्थको याने शुभाशुभ कर्म दलको तुं ग्रहण कररहा है तब तुं चोर ही हैं जब तुं शुभाशुभ पर पदार्थ पर धन आदिका त्याग करके अपने स्वरमें रहकर अनंत ज्ञानदर्शन और चारित्रकी रक्षा करेगा तबही तु शाहुकार कहलावेगा इस लिये हे मुनि एक पनेमेंही सुख है परसंगे सदा उपाधि हैं सुख नहीं हैं जेजे असे निउपाधिनो तेते जानोरे सुख ॥ १० ॥
पर संयोगथी बंध छेरे । पर वियोगथी मोक्ष || तणे तजी पर मेलावडोरे । एक पणो निज पोषरे ।। प्रा० ११ ॥ भावार्थ-जब तक आत्म. को पर पुद्गलका संयोग है तब तकही आत्माको चर्तुगतिमें रुलनैका बंधन हैं और पर संयोग छोडके निज स्वरूपमें रहनेपर मोक्ष है इस लिये हे चैतन्य अब तु पर संगपर मेलावडा छोडके अकेला ही विचर और निज गुणकी पुष्टि कर ॥। ११ ॥
जन्म न पाम्यो साथे कोरे । साथ न मरसे कोय || दुःख वाटको नहीरे । क्षणभंगुर सह लोयरे ॥ प्रा० १२ ॥ भावार्थ- हे चैतन्य तेरे साथ सलाह करके किसीने जन्म लीया नहीं हैं तैसे ही यहांसे सलाह करके तेरे साथ
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जीतसंग्रह ॥ ५८ ॥
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