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________________ अध्यात्म विचार ॥ ३३ ॥ Jain Education श्लोकः - महाव्रतसहस्रेषु । वरमेकोहितात्विकः ॥ तचात्विकसमः पात्रं । न भूतो न भविष्यति ॥ १ ॥ भावार्थ:- हे कृपासिंधो इन्द्रियजनित विषय सुखमें लम्पट होकर मेने अनेक कुकर्म कमाये हैं इसलिये मेरेको धिक्कार हैं है दीreat बातबात में क्रोध मान माया लोभ और छल भेद मैं करताहुं इसलिये मुझे धिक्कार है है कृपा सिंधो विकथामें परनिंदा में परइर्षामें मेरा सर्व जन्म वरतीत होगया, परंतु देवगुरुभक्ति में मेरा एक समयमात्र भी नही गया इसलिये मुझे धिक्कार है है नाथ मैंने यश कीर्ति दुनियामें बढानेके लिये भोली जनताको भोलाके धर्मके खूप धामधूम कराये इसलिये धिक्कार है 'धामधूमे धमाधम चली ज्ञान मार्ग रह्या दूररे' हे नाथ मैं पापके स्थानक सेवनेके लिये बडाही शूरवीर हुं लेकिन धर्मकार्य के लिये पूरा २ कायर हुं इसलिये मुझे वारंवार धिक्कार हे जगद्वत्सल प्रभो ! मोहके वशीभूत होकर नाना प्रकारकी विधवा सधवा बाल कुमारिका सुन्दर स्त्रियोंके साथ मैं भोग विलास कर चुका हूं ओर अब मेरा शरीरभी जरजरीभूत होगया है तो भी हे नाथ मुझे धिक्कार हो हे त्रिभुवनस्वामी मेरी आयु गल गई लेकिन मेरी पापवृद्धि नहीं गली ईसलिये मेरेको धिक्कार है हे स्वामीनाथ मेरेमें संयम चारित्रका गुण एक लेशमात्र भी नही होनेपर मुनियोंकि तरह दृष्टिरागी बनियों के पास याने नाम मात्र श्रावकोंके पास सेवा भक्ति वंदन करारहा हूं इसलिये मेरेकों पुनःपुनः धिक्कार हो फेर अनुकूल प्रतिकूल खानेपीनेकी चीजमें मेने हर्षशोक किये इसलिये मेरेको धिक्कार है हे नाथ मेरेको सदैव विषय भोगकी ईच्छा बनी रहती हैं लेकिन योग समाधिकी इच्छातो स्वप्ने में भी For Personal & Private Use Only जीतसंग्रह ।। ३३ ।। www.jainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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