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अध्यात्मविचार ॥ २४ ॥
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यौवन नररूपनो । गरब करे ते गमार ॥ कृष्ण बलभद्र द्वारका | जातां न लागी बार ॥ ५० ॥ अष्टपहर तु चितवे । धन मिले कौण उपाय || सोधन मेल्यां ताहेरो । खावै औरही आय ॥५१॥ माया सुख संसारमे । ते सुख सही असार । धर्म पसाय जे सुख मिले । तेसुखनो आवे न पार ||२२|| पापकी या जीवते बहु । धर्म न कियो लिगार || नरक पड्यो यम कर चढ्यो । पडयो करें पोकार ||२३|| कोइदिन रांगोराजियो । कोईदिन नहि कोइपास || कोइदिन रोटीकारणे । फिखोघरघरवास ||५४॥ कोइदिन कोडी वरवर्यो, कोइदिन नहि कोइ पास।। कोइ दिनझुंड तु अवतर्यो, खातो भीष्टा खास | ५५ | कोइदिन भूमिसातमी । करतो भोगविलास ॥ एकदीन ओही आवसे । रहणो हैं वनवास ॥ ५६ ॥ रूपे देवकुमारसम | देख मोहै नरनार ।। ते नर क्षण एकमें । जल बल होगए छार ||२७|| जेवि नघडी सरतो नही । जीव न प्राण आधार ॥ तेवि न वर्ष बहे गये । शुद्ध नही समाचार | ५८ | उपदेष विषे - ज्यौं औषध अंजन किया । तिमिररोग मिटजाय ॥ त्युं सद्गुरु उपदेशमे । शंसय बेग विलाय ॥५९॥ जैसें सरवर सदा भरे । जल आवै चहुं और ॥ तैसें आश्रव द्वारते । कर्मजल आवै जार ||३०|| ज्युं जल आवत मंदिये । सके सरवर आप ॥ त्थं आत्मज्ञानतें | आश्रवरूके पाप ||३१|| अथ समण विषे — अंतरसूरति लगायके । मुखसें बोले न बोल || बाहिर दृष्टि छोड़के। अंतरके पट खोल ||६२ || अंतर सूरति लगायके । जपे अजप्पा जाप | कंड होठ हालै नही । सहजै सनग होवे आप ॥ ६३ ॥
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जीतसंग्रह ।। २४ ।।
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