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जीतसंग्रह
अध्यात्म
॥ अथ श्रीअध्यात्मविचारजीतसंग्रह प्रारभ्यते ॥ विचार J श्लोक-प्रणम्य परमात्मानं । सद्गुरो पादपंकजम् ॥ नेकग्रन्थान् विलोक्यन्ते । क्रियतेऽध्यात्मसंग्रहः ॥१॥
शब्दार्थः-(परमात्मानं ) परमात्माको (प्रणम्य ) नमस्कार करके तथा (सदगुरोः) श्रीसद्गुरु महाराजके (पादपङ्कजम् ) चरणकमलकों नमस्कार करके और (नेकग्रन्थान् ) अनेक ग्रन्थोंका (विलोक्यन्ते) अवलोकन करके (अध्यात्मसंग्रहः) अध्यात्म आत्मविचार नाम ग्रन्थको (क्रियते) मैं करताहूँ. ॥१॥ श्लोक-अध्यात्मशास्त्रसंभूत । संतोषःसुखशालिनः ॥ गणयन्ति न राजानं । न श्रीदं नापि वासवम् ॥२॥
शब्दार्थः-(अध्यात्मशास्त्रसंभूत) जिसपुरुषको अध्यात्मशास्त्रो अर्थात् आत्मज्ञान ध्यानसे (संतोषसुख शालिनः) मनोहर संतोषरूप सुख प्रगट हुवा है जिसको वह पुरुष (गणयंति न राजानं) बडे बडे राजामहाराजाओंको तथा धनकों अर्थात् अष्टसिद्धि नवनिधि चौदहरत्न कामकुंभ और चित्रावेल आदिकों तैसेंही (श्रीदं न वासवम् ) इन्द्रचन्द्र आदिकोंभी (न गणयन्ति ) नही गिणते हैं तब अन्यकीतो कथा ही क्या है. ॥ २॥
दोहा-संतोषी सदा सुखी सदा सुधारस लीन । इन्द्रादिकजिस आगले दीसे दुखीया दीन ॥१॥ उदासीनतामगन हुइ अध्यात्मरसकूप । देखेनहि कछु ओरको तब देखे निजरूप ।२। पुनः अध्यात्मज्ञानकैसा हैं
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