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अध्यात्म
विचार
॥२०॥
उदयसे सदा असत्य जडधर्मके विषे आनंद मानता है और समकित मोहनी कर्मके उदयसें जीव सत्यधर्मके विषेभी कुछकुछ मनमें मलीनता लाता है यह सातोंही प्रकृतिका जब क्षय होता है तब व्यवहार समकितकी प्रासि होती है.
5 जीतसंग्रह दोहा-प्रक्रतिसात्तोमोहनी । कहंजिनागमजोय ॥ जिनकाउदयनिवारके । सम्यक्दर्शनहोय ॥१॥
॥ २० ॥ - भावार्थ-मिथ्यात्वका सर्वथा नाश होनेपरही समकित दर्शनकी प्राप्ति होती है. ईत्यर्थःअथ आत्मविषे दोहा-निजस्वरूप समझे विना। पाम्यो दुःख अनंत ॥समझाया ते पदनमूं। श्रीसद्गुरुभगवंत ॥१॥
वर्तमान ईन कालमें । मोक्षमार्ग बहु लोप ॥ विचारवो आत्मार्थीने । कुगुरुये किगे गोप ।।२।। कोइक्रियाजड होये रख्या । केइ शु ज्ञानमें जोइ ।। माने मार्ग मोक्षनो । करुणा आवै मोय ॥३॥ बाहेर क्रिया राचते । अंतर भेदेन कोय ।। ज्ञानमार्ग निषेधते । जे जडक्रिया जग मोय ॥४॥ बंधमोक्षनी कल्पना । जे भाषे जगमांहि ॥ वर्ते मोह दशामें । शुक ज्ञानी तेंहि ।।५।। त्यागनती सफल तब ही-जब लहै आत्मज्ञान ।। ज्ञानरहित क्रियाजड । लहै न माक्षस्थान ॥६॥ त्याग वैराग्य नही चिनमें । थाय न तेह न ज्ञान ।। ज्ञानविना जग जीवडा । भमे च्यारे खान ॥७॥ सेवे सद्गुरु चरणने । त्याग करी निज पक्ष ॥ ते जाणे निज आतमा । बीजा जाणन लक्ष । ८॥ प्रत्यक्ष सद्गुरुसम को नही-करै जगत उपकार ।। बलिहारी गुरुदेवकी-पल पल सो सो वार ॥९॥ सदगुरुकी किरपा बिना । जाणे नहि निजरूप ॥ निजस्वरूप समझे बिना । डूबे भव जल कृप ॥१०॥
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