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अध्यात्मविचार
जीतसंग्रह
अब कहते हैं इस देहके विषे परमात्मा विराजमान हैं तद्यपि अज्ञानी जीवो नहीं देख सकते मुल-परमानंद सम्पन्नं । निर्विकारं निरामयं ॥ ध्यानदीनापश्यन्ति । निजदेह व्यवस्थितं ॥१॥ श० (परमात्मनः) परमात्माका (दर्शन) दर्शन (परमानंद सपन्नं) परम आनंद मयी है पुनः कैसा है कि (निर्विकार) विकार रहित स्वरूप है जिस परमात्माका अर्थात् शुद्ध परमात्माके विषे कोईभी तरहका विषय विकार नहीं हैं पुन: कैसा है कि (निरामयं) रोग उपद्रवसे रहित स्वरूप हैं जिस परमात्माका ऐसा परिपूर्ण शुद्ध परमात्मा (निजदेह व्यवस्थितं) इस स्थूल देहमें स्थिरीभूत रहनेपरभी (ध्यानहीना) जो आत्मध्यानसे हिन है वे (नपश्यन्ति ) नही देख सक्ते १ पुनः शुद्धात्म स्वरूप कैसा है मानु
मूल-अनन्तसुखसंपन्नं । ज्ञानामृतयोधरं ॥ अनंतवीर्य संपन्नं । दर्शनं परमात्मनः ॥२॥ श० (अनन्त सुखसंपन्न) अनन्त सुख संयुक्त स्वरूप हैं जिस परमात्माका और (ज्ञानामृतं पयोधरं) ज्ञानरूपी अमृतके धारने वाले फेर (अनन्त वीर्यसम्पन्नं) अनंत वीर्य संयुक्त स्वरूप है जिस परमात्माका (दर्शनं परमात्मनः) ऐसा दर्शन हैं शुद्ध परमात्म देवका ॥२॥ भावार्थ-शुद्ध परमात्माका शुद्ध स्वरूप सदा परम आनंदमयी और अनंत ज्ञान मयी हैं फेर सर्व तरहके विषय विकारसे और सर्व तरहके रोगोसे वार्जत अनंत सुखसम्पन भये है स्वरूप जिस परमात्माका और ज्ञानरूपी अमृतके धारक और अनंत शक्ति वीर्यके धारक अर्थात् ज्ञानरूपी अमृतके धारक
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