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________________ अध्यात्म विचार ॥ ४६ ॥ का Jain Education International ऐसा परमात्मा इस स्थूल देहमें रहनेपर भी ध्यान से रहित पुरुषों नहीं देख सक्ते ॥ २॥ पुनः आत्मस्वरूप कैसा है मानु मूल--निर्विकारं निराधारं । सर्वसंग विवर्वितं ॥ परमानंद सम्पन्नं । शुद्ध चैतन्य लक्षणं ॥३॥ शब्दार्थ : - (निर्विकारं ) सब तरह के विकारोंसे रहित और (निराधारं) सर्व तरहसे आधारसे वर्जित स्वरूप है जिस शुद्धात्माका पुनः कैसा है मानु कि (सर्वसंग विवर्जितं ) सर्व संगसे वर्जित और (परमानंद संपन्न) सदा परम आनंद भये स्वरूप है जिस परमात्माका पुनः (शुद्ध चैतन्य लक्षणं) ऐसा शुद्ध लक्षण है शुद्ध चैतन्यका भावर्थ शुद्ध आत्मस्वरूपके विषे काम क्रोध मदमोह माया लोभ आदिका कोई भी तरहका विकार नही हैं तैसेही वह आत्मा किसी के आधारसेंभी रहाहुआ नही हैं किंतु वह सदा स्वतंत्रही फेर बाह्य और अभ्यन्तर सर्व तरहके बंधन और संग रहित और परम आनंद मयी हैं ऐसा शुद्ध लक्षण शुद्ध आत्माका है ॥ ३ ॥ मूल- उत्तमाह्यात्मचिन्ता च । मोहचिन्ता च मध्यमा ॥ अधमाकामचिन्ता च । परचिन्ता घमाघमा ॥ ४ ॥ शब्दार्थः - [उत्तम ] उत्तम जीवोंको सदा (अध्यात्मचिन्ताच ) अपने आत्मकल्याण के लियेही चिंता बनी रहति है [मोहचिताच] और जो मोहसे सदा चिन्ता रहती वै वह (मध्यमा) मध्यम पुरुषको होती है और जो (अधमा ) अधम पुरुष होते है उन्होंको (कामचिन्ताच ) केवल काम इसलिये इन्द्रियोंके काम भोग विषयकी चिंता बनी रहती है ( परचिताच) और जो जिसको सदा परकी चिन्ता रहती है वह (अधमाधमा ) अधमसें भी अधम चिंता रहती है For Personal & Private Use Only जीतसंग्रह ।। ४६ । www.jainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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