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अध्यात्म
संसारे सोइ ॥६॥ गाया-
विचार
ज्ञान अज्ञानी जीवांकाला होनेपर कुछ दुक्कर नहीं रूपही
अंकरें । दशमे नव अभेदछ । यह युक्तिजाणे कोई सन्तरे ॥४॥दोहा-रतनत्रयविनसाधना। निष्फल कहीसदीव ॥ भावचरणनिधानकों विरला जाणे जीव ॥६॥ गुणस्थानकफरस्या विना । समकिनलहेन कोइ ।। समकित विन
26 जीतसंग्रह जगजीवडा । रूलेसंसारे सोइ ॥६॥ गाथा-आत्गगुणरक्षणाते धर्म । स्वगुणविध्वंसना ते अधर्म ॥
आत्मा पूज्यहैं कि शरीर पूज्य हैं एसा भेद ज्ञान अज्ञानी जीवोंको नही होते आत्मका और शरीरका भेद ज्ञान होना अति दुक्कर है तोभी गुरुकृपा होनेपर और तत्वस्वरूपकी पूर्ण श्रद्धा होनेपर कुछ दुक्कर नही है आत्मज्ञानियों महापुरुषों इस शरीर संबंधी क्रियामें धर्म नही मानते हैं किंतु मनवचकाया योगसे भिन्न आत्मस्वरूपमेंही धर्म मानते है अर्थात् ज्ञानध्यानसें कर्मरूपी काष्ठको जलाके सिद्धपदकों प्राप्त करके परमानंद सुखके भोगी होना वही आत्मिक शुद्ध धर्म हैं लेकिन अज्ञानी बालजीवो क्या जाने आत्माको धर्म क्या है अर्थात् आत्मा चीजही क्याहै शरीर है वही आत्मा है आत्मा है वही शरीर है परन्तु आत्मा भिन्न हैं और शरीर भिन्न है ऐसा जिसको भेदज्ञान नहींहै लेकिन योगीमहापुरुषों इस शरीररूपी जडसें सदैव भिन्न मानके सुद्धात्मस्वरूपमें रहकर परमानंद सुख भोगते है सहज समाधिरूपी दरियावकी लहरीमें ऐसे योगीराजके समाधिरूपी सुखका वर्णन एकमुखस कैसें कहाजावै गाथा-जिनहीपाया तिनहीछुपाया न कहेकाफूके कानमें ताली लगी जब ध्यानकी तब जाने | JE कहु शानमें क्योंकि । वह समाधिरूपी सुख योगीराजका बचनात्तीत होनेपर अलौकिकहै योगीराजके समाधीरूप सुखके आगे इन्द्रादिक देवोंके सुख एकविन्दुमात्रभी नहीहै ऐसा आत्मिक सत्यसुखका भोगी योगीराज इन्द्रादिकके
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