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अध्यात्म
विचार
॥ १२ ॥
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पुलीक सुखकी कभी इच्छाकरे सही नही नही प्रत्यक्षतो क्या लेकिन स्वप्नमेंभी नही करे क्योंकि योगीराजके ध्यानरूपी समाधिसुखके आगे वह पुद्गलीक सुख चीजही क्या है योगीराजको समाधिरूपी सुखके आगे वार तिथी मासका भी ख्याल नही रहते कि अमुक मास वार तिथी जारही है क्योंकि समाधिरूपी सुखके आगे कुछ | ख्यालही नहि रहता जब योगीराजको अपने शरीरकाभी ख्याल नही है तब बार तिथी मास आदिका ख्याल कैसें रहै कभी प्रारब्धयोगसे कोई उपाधी आ जाये तोभी शुद्ध अंतर दृष्टिसें आत्मभावनाकी उच्च कोटिका त्याग करके पुलीक विषयसुखमें लिप्त नही होते (गाथा) लाभालाभे सुखेदुःखे जीवितेमरणे तथा स्तुतिनिंदाविधाने च साधवः समचेतसः ॥ १॥ भावार्थ - लाभमें अलाभमें सुखमें और दुःखमें तैसेही जीने और मरणमें तथा स्तुति और निंदामे जिस महापुरुषका सम चित्तपनाहै वही ज्ञानी महापुरुष है ॥ १॥ अथध्यानसमाधिपद || मेरी सुरती अन्तरमें लागीरे तेहांतो झगमग ज्योति जागीरे मेरी एटेक झिरमर झिरमर मेहला वर्षे चेहु दिश दामनी चमकेरे मेरी ॥१॥ धान न भावे निंद न आवे सुखनी सुमारी नेत्रे छाइरे मेरी ॥२॥ जेहांतेहां देखें एकज भाषे बीजो नजर न आवेरे मेरी | ३ | आत्म अनुभवनी छायामांही हुंतो भूले गयो काया मायारे मेरी ॥ ४ ॥ सुमति प्रियापासे जो खेले कुमति कुबजा भागीरे मेरी ||५|| सोहंसोहं रटमा लागी तेहांतो अनहद मुरली वाजीरे मेरी ||६|| आनंद घन कहै विरला योगी ध्यान समाधि काई देख्यारे मेरी ॥७॥ शुद्ध आत्मदृष्टिवाले महायोगी पुरुष शुद्धात्मस्वरूपमें प्रवेश करके अन्तर समाधिसुखरूपी आनंदसें वाणीद्वारा कभीकभी मधुर गायनभी करते है योगीराज के मुखद्वारसें निकले हुये
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जीतसंग्रह ॥ १२ ॥
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