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________________ अध्यात्मविचार होशके क्योंकि शब्दरूपी पदों शब्दमें बनेहुयेहै लेकिन आत्मस्वरूपतो पदातीत है और अनुभवगम्य है फेर E| अकथ है विशेष देखनेकी जिसको इच्छाहुवेतो श्रीआचारांगजीसूत्रके पाचवे अध्ययन के छठे उद्देशेसें देखो आत्मा- ||JE|जीतसंग्रह काशुद्धस्वरूप शब्दरूपी जडसें सदा भिन्नहै क्योंकि शुद्धात्मद्रव्यका लक्षण जडरुपी शब्दसे कहाजावै ऐसा नहीं है उपचारसें और व्यबहारनयसें कहा गया है गाथा-अकथकथतेरी कौनजाने चतुरसनेहीनयवादी नयपक्षग्रहीने झूठाझगडाठाने ॥१॥ इतिचिदानंदवचनात् गाथा-शुध्यानएमआपनो तुझसमापति औषधसकल पापनुं द्रव्य अनुयोगसम्मति प्रमुखथीलही भक्तिवैराग्यज्ञान धरिये सही। भावार्थ:-जो निजशुद्धात्म स्वरूपमें स्थिरीभूत रहनाहै वही धर्मध्यान है वहीसब पापोंसे मुक्तहोनेके लिये परम सिद्धऔषधि है और जहांपर शुद्ध आत्म उपयोग है वहां परही शुद्ध आत्मधर्महै वही शुद्ध मोक्षका रस्ता है भक्ति वैराग्य और ज्ञान यह तीनोंही मोक्षमार्गके | साधन है और जो सम्यक्दर्शन है वहांपर भक्तिरागका मुख्यपनाहै श्रेणिकराजाकी तरह इस कलिकालके विषे भक्तिरागका स्वरूप बहुतही स्वल्प देखलाताहै देवगुरुकी भक्ति करनेसें अवश्य ज्ञानकी प्राप्ति होतीहै श्रेणिकराजाका वीर परमात्मायें भक्तिरागका कितना पूर्ण प्रेमथा और भक्तिरागसेंही श्रेणिकराजाका कार्यसिद्धहुवा है देशव्रती और सर्वव्रतीवालोंके लियेभी ज्ञानवैराग्यताकी मुख्यताहै जिसमें भी ज्ञानकीतो पूर्णमुख्यताहै क्योंकि ज्ञानविना वैराग्य नहीं ठहर शकता है गाथा-ज्ञानदशाजेआकरी तेचरण विचारो निर्विकल्पउपयोगमें नहीकर्मनोचारो॥१॥ ज्ञानरहित जडजीवों पडिलेहना प्रतिक्रमण जपतप व्रतं पञ्चख्खान तीर्थयात्रादि करतेहै वह सर्वपुण्यरूपी आश्रवहीहै Pladaoकामकाज 15 JainEducations For Personal & Private Use Only H elibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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