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________________ अध्यात्मविचार ॥९॥ रहतेहै क्योंकि वह चक्षुही न होनेपर नही देख शकता तैसें परम आत्मज्योतिके प्रकाशकों अज्ञानी पुरुष कभी हजारोंही ग्रंथ पढलेवे और औरोंको उपदेश देवेतो भी कुछ नही मिलता-बैठसभामेंबहुउपदेशे आपभयापरबीना जीतसंग्रह ममतादोरी तोरीनही उत्तमतेभयेहीना १ बडीवडी सभामेंबैठके वैश्याकी नाई खुसकरलेतेहै लेकिन आत्मज्ञान विना अंधाहीहै. दोहा-पण्डितऔरमसालची दोनोसमझतनाहि, दूजांको करैप्रकाश आपअंधेरामांहि १ गईवस्तुशोचेनहीं आयांहपनहोय शत्रुमित्रसमगिणे पंडित कहियेसोय २ कहनेका तात्पर्य यहीहै कि आत्मअनुभवज्ञानविना सब थोथेही है कि-पूर्वलेखलिखेलेई मसीकागलनेकांठो अपूर्वभावकहतहेपंडित बहुबोलेनोवांठो ३ इतिउपाध्यायजीयचनात् मु०-समतामृतमन्नानां । समाधिधूतपाप्मनाम् ॥ रत्नत्रयमयंशुई । परज्योतिप्रकाशतः ॥३०॥ शः-(समतामृतमग्नानां) समतारूपी अमृतकेविसें मग्नहुए योगीराज (समाधिधूतपाप्मनां) और समाधि ध्यानकर्के पापसे मुक्तहुआहै अंतःकरण जिसका और (रत्नत्रयमय) ज्ञान दर्शन और चारित्रमय (शुद्ध) शुद्धहुआ ऐसा महा पुरुषही ( परज्योतिः) परमउत्कृष्ट आत्मज्योतिको (प्रकाशतः) प्रकाशित करशक्तेहै, अन्यमेरे जैसे पुदलानंदीयो विचारे क्या करसकेगें ३१ भावार्थः-समतारूपी अमृत के विसे मगनहुआ योगीराज आत्मसमाधियोगसे अवश्यही पापसे मुक्त होकर रत्नत्रयमें लीनहुआ ऐसा महापुरुष अवश्यही परम उत्कृष्ट आत्मज्योतिको प्रकट करके Of निर्वाणपदको प्राप्तकरलेताहै ३०. मु०-तीर्थकरागणधरा । लब्धिसिद्धाश्चसाधवः ॥ संजातास्त्रिजगद्वन्द्याः । पर ज्योतिप्रकाशतः ॥३१॥ JainEducaticle For Personal & Private Use Only inneby.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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