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विचार
श-तीर्थकरागणधरा तीर्थकरो गणधरो[च और (लब्धिसिद्धाः साधवः) नानाप्रकारकी लब्धियोंसे सिद्ध अध्यात्मसाधुमहात्माओ आदि [परंज्योतिः प्रकाशतः] सर्वेपी परमआत्मज्योतिके प्रकाशहोनेपरभी हुये है इतनाही नहीं
Jeजीतसंग्रह ३|| लेकिन वह महापुरुषों (त्रिजगद्वन्याः संजाताः) तीनही लोकके विसे महापूजनीक वन्दनीक होगये है वह केवल |
आत्मज्योतिके प्रकाश होनेपरही हये है ३१ भावार्थ-तीर्थकरो व गणधरो नानाप्रकारकी लब्धियोंसे सिद्ध हुए है साधु महात्माओ तथा भरतादिक वह सर्व परम आत्मज्योतिके प्रकाश होनेपरही सिद्धहुए है इतनाही नही लेकिन वह महापुरुषों तीनलोकके विषे वन्दनीक प्रातःस्मरणीय होगये है सो आत्मज्योतिके प्रकाश होनेपर हुये है ॥३१॥ मू०-नरागंनापिचद्वेषं । विषमेषुयदानजेत ॥ औदासीन्यनिमग्नात्मा। तदाप्नोतिपरंमहः ॥३२॥
शब्दार्थ:-ऐसे सिद्धहए महापुरुषोंको (नरागं) नहीतों किसी रागहैं (नद्वेष) नहीकिसी द्वेषहै इसलिये [विषमेषु] अतिविषम घोरपरीषह आनेपरभी (व्रजेत्) दुःखकों नहीं लाकर समभावमें अपने आनंदसमाधिमें रहकर सहन करतेथे और औदासीन्यनिमग्नात्मा] सदैव उदासवृत्तिमें मगनरहते है [नदा तयही परंमहः] परमात्मपदकी (आप्नोति) प्राप्ति होतीथी ॥३३॥ भावार्थ:-ऐसे सिद्धहए महापुरुषोंको नहीतो किसी रागरहताहै
नही किसी द्वेष रहताहै इसलिये अतिअघोर परीषह आनेपरभी समचितसं अपने आनंद समाधिमेंही रहतेथे st सदा उदासवृत्तिमें आत्मध्यानके विसे मग्न रहतेथे तवही परमात्मपदकी प्राप्तिहोतीथी आजकल कलीकालके विसे |
मेरे जैसे (पुद्गलानंदीयो मोजमजा और नानाप्रकारमें मालताल उडानेमें और बनियोंको पत्थरोंसे शिरफाडानेमें
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