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________________ जीतसंग्रह प्रकाशिका) थोड़ेही क्षेत्रोंके विषे प्रकाशित है (परं) परंतु (आत्मनः ज्योतिः) जो आत्मज्योतिका प्रकाश अध्यात्मविचार है वहतो (लोकालोकप्रकाशक) लोकालोकके विषे प्रकाशित है अर्थात् आत्मज्योतिका जो प्रकाश है वह तो लोकालोककेविषे है ॥१०॥ भावार्थः-चंद्रसूर्यादिकोंकी ज्योतिका जो प्रकाश है वह तो केवल थोडेही क्षेत्रोके विसे प्रकाशित हैं परंतु जो आत्मज्योतिका प्रकाश हैं वहतो लोकालोकके विषे प्रकाशित हैं अर्थात् जो आत्मज्योतिका प्रकाश हैं वहतो लोकालोकमयी हैं ॥ १० ॥ पुनः आत्मज्योतिका स्वरुप कैसा है सो कहते हैं यथामू०-निरालम्बं निराकारं । निर्विकल्पं निरामयम् ॥ आत्मनः परमं ज्योति-निरुपाधिनिरञ्जनम् ॥११॥ शब्दार्थः-(निरालंब) निरालंब अर्थात् आलंबनसे रहित स्वरूप हैं जीस आत्मज्योतिका पुनः(निराकार) आकारसें | रहित हैं याने वहां पर कोइभी तरहका आकार आकृति नहीं हैं तैसेंही आत्मज्योतिके विषे कोईतरहका रूप रस गंध और | स्पर्श नहीं हैं पुनः आत्मज्योतिका स्वरूप कैसा हैं (निर्विकल्प) निर्विकल्प आत्मज्योतिकेविषे कोइभी तरहका विकल्प JE अर्थात् मनादि योग संबंधी विकल्पवर्जित निर्विकल्पसमाधिमय स्वरूप हैं, जिस आत्मज्योतिका पुनः (निरामयं) रोगा दिक उपद्रवोंसे रहित हैं (निरूपाधिः) वहां कोइभी तरहकी उपधी नहीं हैं फिर (निरञ्जनम) निरंजन निराकार स्वरूप हैं जिस (आत्मज्योतिका)११ भावार्थ:-पुनः आत्मज्योतिका स्वरूप कैसा है निरालंब याने आलंबसेरहित इति भावार्थः -दीपादिपुदगलापेक्षं। समलंज्योतिरक्षजम् ॥ निर्मलं केवलंज्योति-निरपेक्षमतीन्द्रियम् ॥१२॥ sani म. Jain Education n ational For Personal & Private Use Only I l anelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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