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________________ शब्दार्थः-(दीपादिपुद्गलापेक्ष) दीपकआदि पुद्गलीक धूम्रमय अल्पज्योति जैसा स्वरूपनही है तेज प्रकाश जिस अध्यात्म Ind जीतसंग्रह विचार आत्मज्योतिका (समलं ) लेकिन सब जगतको प्रकाश करने के लिये आत्मज्योतिका प्रकाश परिपूर्ण लोकालोकके ३ ॥३॥ ॥३॥ विषे प्रकाशित हैं क्योंकि जो आत्मज्योतिका स्वरुप हैं वह स्वप्रकाशमय हैं लेकिन जिसका [अक्षणं] इंद्रियो जनित नहीं है किन्तु (निर्मलं ) महानिर्मल मलरहित स्वच्छ और (केवलंज्योतिः) केवलआत्मज्योतिमय स्वरुप हैं जिसका फिर (निरपेक्ष) पक्षपातसें वर्जित और [ अतीन्द्रियं ] इंन्द्रियोंसेभी जिसकास्वरूप अगोचर हैं अर्थात् | इन्द्रियोदारा नहीं जाना जावे जिसका स्वरुप ऐसी आत्मपरमज्योति हैं भावार्थः-दीपक आदि पुद्गली अल्प Me तेज ज्योतिके प्रकाश समान नहीं प्रकाश हैं जिस आत्मज्योतिका लेकिन वहतो सर्व जगतको प्रकाशमय करनेकेलिये आत्मज्योतिका तेज प्रकाश परिपूर्ण हैं अर्थात् लोकालोकविषे प्रकाशित हैं क्योंकि आत्म परमज्योतिका प्रकाश स्वभाविक है लेकिन दीपक ज्योतिकी तरह कृत्रिमीक नही है तैसेंही जिस आत्मज्योतिका तेज प्रकाश इन्द्रियों जनीत नहीं है इन्द्रियोंसे अगोचर हैं महानिर्मल स्फटिक रत्नकी तरह स्वच्छ केवल परमज्योतिमय स्वरूप हैं जिस आत्मज्योतिका फेर पक्षपातसेंभी रहित है स्वरूप जिसका १२ | मू०-कर्मनो कर्मभावेषु । जागरूकेश्वपिप्रभुः ॥ तमसानावृतःसाक्षी । स्फुरति ज्योतिषास्वयम् ॥१३॥ __शब्दार्थः-(कर्मनो कर्मभावेषु) द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म नोकर्म इसलिये उदारिक वैक्रीय आहारिक तैजस और कार्मण ऐसें पञ्चशरीर तथा भावकर्म वेरागद्वेष इन सबसे रहित स्वरूप है जिस आत्मज्योतिका वह Jan Education For Personal & Private Use Only GEMriainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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