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________________ अध्यात्मविचार ॥ ४८ ॥ देते है भावार्थ:- भव्य जीवोंको अवश्यही आत्म ध्यान करना चाहिये जिस ध्यानसें सर्व कर्म भस्मीभूत होकर उड जावे अर्थात् आत्मध्यान करनेसे सर्वथा कर्म नाश होकर परम पदकी प्राप्ति होवे और अपने चित्तमें भी भारी चमत्कार उत्पन्न होवे उसी समे शुद्धात्म दर्शनकी प्राप्ति हो सके ॥१०॥ मूल - ये धर्मशिला मुनियः प्रधाना । ते दुःखहीना नियमं भवंति ॥ संप्राप्य शीघ्र परमार्थ तत्वं । व्रजन्ति मोक्षं क्षणमेकमध्ये ॥ ११ ॥ श० -- ( ये ) जो [ धर्मशिला] आतम धर्मके आचरनेवाले महामुनि याने आत्म स्वरूपमें रमण करनेवाले मुनिही [प्रधाना] प्रधान है इसलिये सबसे उत्तम महापुरुष (मुनियः ] एक मुनिही है [ते] वह [नियम ] निश्चय कर [दुःखहीना ] दुःखसे रहित (भवन्ति) होते है [ परमार्थ तत्वं ] ऐसे मुनियो परमार्थ तत्वको [संगप्य) प्राप्त करके ( चिदमेकमेव) अनंत सुखमय एसे [मोक्षं] मोक्षको (शीघ्रं ) शीघेही [ व्रजन्ति] प्राप्तकर लहते है. भावार्थ - जिस मुनिराजाका चित्त सदा आत्मज्ञान तथा समाधि ध्यानके विषे लेलीन हो रहा है उन्होंके लिये मोक्ष सुख अपनी गोयमें ही रहाहुआ हैं एक रूप अभ्याससे शिवसुख है तसु गोद, ऐसे योगीराज परमार्थरूपी तत्वज्ञानको प्राप्त करके अनंत सुख मय मोक्ष सुखको शीनही प्राप्त करलेते है ।। ११ । मूल - आनंद रूपंपरमात्मतत्वं । समस्तसंकल्प विकल्पमुक्तं ॥ Jain Educational For Personal & Private Use Only जीतसंग्रह 11 82 11 www.jainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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