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________________ । अध्यात्मविचार लियेही अर्थात् च्यारगतिरूपी बंधिखानेसें भव्यजीवोंको मुक्तहोनेके लिये वही सुगमसे सुगम रास्ता ज्ञानीने बतलायाहै एकसल आत्मज्ञान और दूसरा शुद्ध व्यवहार यही शुद्धमोक्षका रास्ताहै (ज्ञानक्रियाभ्योमोक्षः) JE जीतसंग्रह क्रियाकष्टभी नालहै भेदज्ञानसुखवंत याविनबहुविधतरकरे तोभीनहिभव अंत॥१॥भेदज्ञानसेंही सबदुःखोसें ॥ १५ ॥ जीवमुक्तहोशक्ताहै इसलिये दरेक भव्ययाणीकों विचारना चाहिये कि मेरा सत्यस्वरूप और सत्यधर्म क्या है | और मेरा कर्तव्य क्याहै ऐसीसत्यस्वरूपमय भावना होने पर अवश्यही आत्माका सत्यस्वरूप प्रगट होता है जैसा बीज बोते है वैसाही वृक्ष उत्पन्नहोतेहै इसतरेसें जैसे जैसे जीवोंके परिणाम होतेहै वैसेंही पुण्य पापरूपी फल लगतेहै इसलिये सर्वतरहके शुभाशुभ विचारोंको छोडकर एक शुद्धात्म स्वरूपकाही ध्यान करना चाहिये जो शुद्धात्मका ध्यान है वही व्रत पच्चख्वान है वह शुद्धचारित्र है वही सम्यक्त्वदर्शन है दोहा-अशुद्ध भावसें बंध है। शुद्धभावसे मुक्ति ॥ जो जानेगतिभावकी । यहीजसाचीयुक्ति ॥१॥ अब कहते है कि पुरुषार्थहीनपनेका विचार करनेपर क्याहोनी होती है जो मनुष्य सदैव ऐसा विचार करते JE है कि मैं पूरापूरादुःखी हुं मैं रोगी वेमार हुं मैं अशक्त हुं अबतो मेरी अवस्था वृद्ध होगई है अब में क्याकलं अवतो मैं परवश हो गयाहुं अब मेरा साहेक कौन है इत्यादिक पुरुषार्थ हीन पनेका विचार करनेपर वह पुरुष हीनबायेला बनके नानाप्रकारसे मानसीक दुःख भोगते है परन्तु जो वीर पुरुष होते है वह ऐसा विचार करते है कि में सदा सुखी हुँ मेरा शरीर नीरोगी है में अनंत शक्तिवालाहूं मेरे पास ज्ञानरूपी धनका. अखूट खजाना भराहुआ है JODCDDDDDDDDINDw For Personal Price Only
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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