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________________ अध्यात्म विचार ॥५॥ Jain Education 1 उत्तम और सर्वकलाओ संयुक्त (परमात्मप्रकाशः) ऐसा परमज्योतिर्मय प्रकाश मेरे घटविषे प्रकाशित होउं. मृ०-यांविनानिष्फलाः सर्वाः । कलागुणबलाधिकाः ॥ आत्मधामकलामेकां । तांवयंसमुपास्महे ॥१८॥ शब्दार्थः– (यांविना ) इस आत्मकलाविना अर्थात् आत्मज्ञान और आत्मज्योतिके प्रकाशहुयेविना (गुणबलाधिकाः कलाः ) नानाप्रकारके वीर्यबलादिक जिसमें अधिकहो (हो) ऐसी पुरुषकी बहोतर कला और स्त्रीकी चौसठ कला वह (सर्वाः) सब कलाओं (निष्फलाः ) निष्फलही है इसवास्ते हे भव्य ! अर्थात् आत्मज्ञान ध्यानविना सर्वतरहकी कलाओं फलरहित निष्फलही है इसलिये हे भव्य ! (एकांतां) एक ( आत्मधामकलां ) आत्मज्ञानरूपीकलाकी ( वयं ) हम ( समुपास्महे ) उपासना करते हैं क्योंकि आत्मज्ञानकलाविना नानाप्रकारके गुण और नाना प्रकारकेवीर्य याने बलादिक जिसमें अधिकहो ऐसी पुरुषकी बहोत्तरकला और स्त्रीकी चौसठ कलाओं वह सर्वेपि याने वह सर्व कलाओं निष्फल हैं अर्थात् आत्मज्ञानकलाविना सर्वतरहकी कलाओं और सर्वतरहकी विद्याओं फलरहित निष्फलही हैं कहा भी है कि गाथा — कलाबहुभर जे भण्या, पण्डित नाम घराय, आत्मकला आवी नही, तेतो मूर्खना राय ॥ १ ॥ अवर सर्वे विकल कला, आत्मकलासिरदार, आत्मकलाविन मानवी पशुतणेअवतार ॥ २ ॥ आत्मखरूप जाण्यो नही, जाण्यो नही सुखवास, पशुहुवा ते बापडा, पडिया खावे घास || ३ || इसलिये हे भव्य ! हम सर्वतरके विकल्पोंको छोडकर एक आत्मज्ञानरूपी कलाकी उपासना करते हैं क्योंकि आत्मज्ञानकलाविना जितनींकलाओं हैं वहसब निष्फल हैं जनताकों ठगनेकेलियेही हैं १८ For Personal & Private Use Only जीतसंग्रह ॥ ५॥ www.jainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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