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जीतसंग्रह
पुनः आत्मज्योतिका तेज प्रकाश कैसा है मानुकिअध्यात्मविचार Ind| मु०-निधिभिनवभीरत्ने । श्चतुर्दशभिरप्पहो ॥ ने तेजश्चक्रियायत्स्या । तदात्माधीन मे वनः ॥ १९ ॥
शब्दार्थ:-( नवभिनिधिभिः) नवनिधि और (चतुर्दशभिः रत्नैः) चौदहरत्नोंमे ( अपि) औरभी (अहो) अहों इति आश्चर्ये ( यत्तेजः) इतनातेज प्रकाश नहीं हैं अर्थात् [ नक्रिया ] इतना तेज प्रकाश नहीं करशक्ते [ तत् ] क्योंकि वह (नः ) हमारी [ आत्माधीनं] आत्मज्योतिके तेज प्रकाशसें [अधिकंन ] अधिक नहीं हैं ॥ १९ ।। भावार्थः-नवनिधि और चौदहरत्नोमें इतना तेज प्रकाश नही हैं हमारी आत्मज्योतिके
तेज प्रकाशसें अधिक ॥ १९ ॥ 5 मु०-दंभपर्वतदंभोलि । निध्यानधनाः सदा ॥ मुनयो वासवेभ्योपि । विशिष्टं धाम बिभ्रति ॥ २० ॥
__ शब्दार्थः-(दंभपर्वतदंभोलिः) दंभ याने कपटरूपी पर्वतके छेदनेकेलिये अध्यात्मज्ञानके समान दूसरा कोईभी शस्त्र नहीं है तैसेंही मोहरायकों गिरानेकेलिये दूसरा कोईभी शस्त्र नहीं है इसलिये (सदा ) सदैव [ ज्ञानध्यानधनाः] ज्ञानध्यानरूपी धनवाले [ मुनयः ] मुनियोंकों ( वासवेभ्योपि) इन्द्रसे भी अधिक [ विशिष्टं | | धाम ] अर्थात् इन्द्रसें विशेषधामकी याने स्थानसुखकी [विभ्रति ] प्राप्तिहोती हैं आत्मज्ञानध्यानकेविसे गाथा-इंद्रतणां सुख भोगतां, जे तृप्ति नहि थाय, ते सुख सुण इक पलकमें, मिले ध्यानमें आय ॥१॥ जे सुख
ا ليونان تور وارنا ونحن سواری
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