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________________ विचार अध्यात्म-3 गाथा--भारी पीलो चीकणो । कनक अनेक तरंग ॥ पर्याय दृष्टि न दीजिये । एकज कनक अभंग ॥१॥ दर्शन ज्ञान जीतसंग्रह all चरण थकी । अलखस्वरूप अनेक ॥ निर्विकल्प रस पीजिये । शुद्ध निरंजन एक ॥२॥ इतियोग्रीन्द्र आनंदघनवचनात् २३ | इसलिए हे आत्मभाइयों प्रथमसेंही आत्मस्वरूपकी और परमात्मरूपकी पहिचान यथार्थ करके कदाग्रहको | छोड कर आत्म तर्फ देखो गाथा-निज शुद्ध स्वभावमें । नहीं विभाव लव लेश ॥ भ्रम अरोपित लक्षथी प्यारे । हंसा सहत कलेश॥१॥ क्योंकि तत्वकी पहिचान विना जितना व्रत पञ्चखान हैं वह गिनतीमें नहीं आते देखो भगवतीसूत्र अर्थात् आत्मस्वरूपकी पहिचान विना चाहै जितनी यग शान्ति और मौन रखो वह सब तरहका कपट जनताको ठगनेके लियेही हैं कारण कि ज्ञान विना केवल एकेली वाझ क्रियाकाण्डसें जो बाल जीवोंको अपना आडंबर ढुंग देखाना है | वह अपनी आत्मा काली करनी है कहाभी है कि गाथा-ज्ञान सकलमय साधन साधो। क्रिया ज्ञानकी दासी॥ क्रिया करत धरतुहैं। ममता आई गलेमे पाशी॥१२॥ पर परिणति अपनी कर मानै । क्रिया गरवै महलो ।। उनकों जैनीक्युं कहिये । सो मूर्खमे पहलो ॥२॥ स्वस्वरूपकी पहिचान विना जितनी २ कष्ट क्रियों करते है वह तो केवल अंक विनाकी शन्यकी तरह मिष्फलही हैं सम्यकविन नवपूर्वी अज्ञानी कहवाय पुनः सम्यक्ना लहेरी तातें रूले चतुर्गतिमांय इस लिये सम्य ज्ञान विना | केवल क्रियाकांडसें जो मोक्षकी इच्छा रखते है वह तो भ्रमही हैं फेर कितनेक ज्ञानहीन भोले भक्तों परमात्माकी in Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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