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________________ अध्यात्म विचार मुखसें जपुं न करसें जपुं । जपुं न हृदय उचार ॥ मूरख नर समुझे नही । जपुं अजप्पा एकतार ||६४ || भावार्थः— लोकोंकी तरह करमें जपमाला लेके नही जपुं तैसेंही मुखमेंभी नही जपुं इसका भेद अज्ञानी लोको नही जाण शक्ते मैंतो जपुं अजपा जाप ||३४|| अथ साधुवेषविषे दोहा कैसे क्या विगाडियो । सोमुंडे वारंवार ॥ मनकों क्यों न मुंडाइये । जामें विषय विकार ॥६५॥ मनमुंडा सुख होत हैं । केशमुंडया क्या होय || जो किया मो मन किया । केश किया नहि कछु जोय ||३३|| भावार्थ:- हे लिंगी वेषधारी मुनि वालोने तेरा क्या गुनेह किया है जिसमें तुं शत्रुता लाकर वारंवार उखाड़ता है उस तरेसे काटके उनका टुकडा २ कराके फेंक देता है उसवालोनें तेरा गुना क्या किया हैं जो कुछ गुना किया हैं तो मन किया है उनको क्युं नहि मुंडतो जिसमें नाना प्रकार के विषय विकार भरे हुवे हैं ॥ ६६ ॥ दोहा - माला फेरे क्यागुण । काती मनके हाथ || मनमालाहि राखिये। घटमें मिले तुझ नाथ ||३७|| भावार्थ:- मनकी स्थिरताबिन जपमाला फेरनेसें क्या लाभ क्योंकि कातीतो मन हाथ हैं इसलिये मनकी मोला बना परमात्मा की भक्तिमें लय होजाना यही सबसे श्रेष्ठ जपमाला है ||३७|| दोहा - मनको चेला बनाके । कामक्रोध कर वश ॥ चक्कर पहरके रगकों जीते । तो चेला सब देश || ६८|| भावार्थ:- कितनेक विचारे वेषधारियो चेलाचेली बनानेके लिये बहुतही प्रयास करते फिरते हैं लेकिन महा| त्मा कहते है कि हे भाई ऐसे प्रयास करनेसें तो मात्र २-४ वेलाचेली की प्राप्ति होगी परंतु हे महाभाग्य जातं सर्व Jain Education International For Personal & Private Use Only 毛毛孔美美美 जी संग्रह jainelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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