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जीतसंग्रह
Jह स्वरूपका ध्यान करनेपर आपही अपने स्वरूपमय स्थिरीभूत हो जाता है स्वरूपमें स्थिरीभूत होने पर कर्म रूपी काष्ट अध्यात्म
आपसे आप भस्मीभूत होकर उड जाते है एक छनमें विचार
गाथा-ज्यु दारुके गंजको । नर नसके उठाय || तनक आगसयाते । छन एकमें उड जाय ॥१॥
- तत्त्व दृष्टिसे देखा जावे तो शरीररूपी आत्मा नहीं है जैसे शिशु अपनी छाया देखनेसे वे तालकी भ्रांतिसे २ डरते है वह डरना मिथ्या है तैसे अनादिकालसे अविद्यारूपी विषमग्रहकी भ्रांतिसे इस शरीरके विषे जीवका आरा
पन करते है वह मिथ्या आरोप करते है ज्ञान दृष्टिसे देखा जावे तो यह आत्मा तीर्नुकालमें देह जड नहीं हो सका बच्चा बडा होनेपर अपनी छायामें जो वे तालका भ्रम था वह ज्ञान होनेपर आपसे आप दूर हो जाता है ऐसे ही पूर्ण ज्ञानका प्रकाश होनेपर यही आत्मा भ्रमरीकी टवत् प्रत्यक्ष ही परमात्मा रूप हो जाते है इसमें एक लेशमात्रभी संशय नहीं है जैसे आकाश धूलीसे लिप्त नहीं होते तैसे ज्ञानी महापुरुष पुद्गलीक विषय सुखमें लिप्त नहीं होते
ज्ञानी महापुरुष सर्व करते है देखते है और भाषते भी है विचारते भी है तद्यपी कमलकी तरह संसारमे अलिप्त ही || रहते है वायुकी तरह अप्रतिबंध अपने स्वरूपमें अकेले ही विचरते है. अथ एकत्व भावना.-ज्ञान ध्यान चारित्रनेरे, जो दृढ करवा चाह । तो एकाको विहरतारे
जिन कल्पा दिसायरे प्राणी ॥ एकल भावना भाव, शिवमार्ग साधन दावरे प्राणी ॥१॥ भावार्थ:-हे मुनि जो तेरेको ज्ञान ध्यान तथा चारित्रको दृढ करनेकी पूर्ण इच्छा होवेतो अकेलो जिनकल्पीकी
انا للافلامی خاندان اوائل التتار کرد: این مجتمع
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