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________________ विचार आत्मामें लय होजाता है तब सर्व प्रकारके संकल्प आपसे आप विलाय जाते है तब आत्मस्वरुपका यथार्थ अध्यात्म- | भास होजाताहैं यहतो हरेक जीवकी इच्छा रहती है कि इस संसाररूपी बंधीखानेसें छूटनेके लिये उद्यम | जीतसंग्रह ३ कोई विरलेही करते है. गाथा-बांछे मोक्ष करेनही करनी, डोलतममतावायुमें। अंधपुरुषजेमजलनिधितरवो, बैठोकानी नाऊमें ॥१॥ जीवलागरह्यो परभावमें लेकिन आत्मज्ञानसें कितनेक मेरे जैसें वक्ताओं श्रोताओं दोनोंहा शून्यही मालुम होते हे प्रायकरके क्योंकि वक्ता और श्रोता दोंनोंके अन्तःकरण विषयमें मलीन हुओड़े मालुम देते है क्योंकि उन्होंको आत्मज्ञानकी तथा आत्मसुखकी सूझही नहिं पडति इन्द्रियोंके विषय सुखमें अमूल्य नरभव पाकर विचारे यहि हारजाते है लेकिन च्यार गतिरूपी बंधीखानेतें छूटनेकेलिये कुछ उद्यमही नहीं करते केवल अपना सर्वआयु विषय भोगमेंही हारजाते हैं पशुकी तरह धर्म ध्यान बिना हे भव्य एक | थोडी देरके लिये अपने चिनको इन्द्रियोंके विषयसुखकों छोडते संसारकी असारताकी ओर देखोकि तेरा | कौन है भ्राता माता पिता भार्या और कुटुम्यादि सबका जो संयोग मिला, लेकिन जो तत्वदृष्टिसे देखा जावेतो यह सर्व प्रपञ्च मोहजनित जुटा है ईसमें एकभी तेरे अंत समय साथ चलनेवाला नही देखलाता इस बातको यद्यपि सबही जानते है परन्तु मोहराजाके वशीभूत हुए अपने कल्याणके लिये विचारही नही करते किन्तु धन्यतो उस महापुरुषकों है कि विषयसुखकों विषतुल्य असार जाणके अपने कल्याणके Jan Education International For Personal & Private Use Only MIndinelibrary.org
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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