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________________ Com अध्यात्मविचार कारणभूत होते हैं (पाण्डित्यहप्तानां) में आत्मज्ञानवर्जित बहिरात्मअभिमानी पंडितकों अर्थात (शास्त्रमध्यात्मवर्जि- जीतसंग्रह तम् ) अध्यात्मशास्त्रसें वजितहोनेपर सर्वशास्त्रका और पंडिताईका अभिमान केवल संसारवृद्धिके लिये ही हैं ॥५॥ श्लोक-अध्येतद्यंतदध्यात्म शास्त्रं भाव्यं पुनः पुनः ॥ अनुष्ठेयस्तदर्थश्च । देयोयोग्यस्यकस्यचित् ॥ ६॥ ___शब्दार्थः-इसलिये हे भव्य (अध्येतव्यंतध्यात्मशास्त्रभाव्यम् ) अध्यात्मशास्त्रका ही पठनपाठन करना or चाहिये और उनकाही (पुनः पुनः) वारंवार विचार करना चाहिये और उनकाही मनन करके अशुद्धप्रणतिसे हटकर शुद्ध आत्म प्रणतिमें रहना चाहिये और (अनुष्ठेयस्तदर्थश्च ) अध्यात्मग्रंथोंके अर्थका विचार पुनः पुनः करना चाहिये और अध्यात्मशास्त्रके योग्य पुरुष होवे ( देयोयोग्यस्यकस्यचित् ) उनकोही सीखाना और उनकोंही अध्यात्मग्रंथ देना चाहिये किन्तु अयोग्यपुरुषको नहीं देना सीखाना और उनकों ही अध्यात्मशास्त्र पढाना क्योंकि सिंहनीका दूध कांसेके पात्रमें नहीं ठहर सक्ता ॥६॥ शिष्य प्रश्न-भगवन् किं तदध्यात्मं । यदित्थमुपवर्ण्यते॥श्रृणु वत्स यथाशास्त्रं । वर्णयामि पुरस्तव ॥७॥ शब्दार्थः-(भगवन् ) हे भगवान् (किंतदध्यात्म ) अध्यात्म इसलिये क्या (यदित्यमुपवर्ण्यते) जिसका | आपने इतना वर्णन किया (शृणुवत्सयथाशास्त्रं ) हे वत्स तूं एकाग्रचित्तसें श्रवणकर मैं तेरेको शास्त्र अनुसारे t (वर्णयामि) कहता हु ॥ ७॥ श्लोक-गतमोहाधिकाराणां । मात्मानमधिकृत्य या ॥ प्रवर्त्तते क्रिया शुद्धा । तदभ्यात्म जगुर्जिनाः ॥८॥ JainEducation al For Personal & Private Use Only
SR No.600209
Book TitleAdhyatmavichar Jeet Sangraha
Original Sutra AuthorJitmuni
Author
PublisherPannibai Upashray Aradhak Bikaner
Publication Year1935
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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