Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 116
________________ अध्यात्म विचार ॥ ५७ ॥ Jain Education शत्रु मित्रता सर्वधीरे । पामी वार अनंत ॥ कौन सयण दुश्मण किस्यारे । काले सहुनो अंतरे प्रा० ||४| भावार्थ:- इस संसारकेविषे प्राय करके सर्व जीवोंके साथ शत्रु मित्रता अनंती वेर हो चुके है इस वास्ते है | चैतन्य अब तु विचारके देखेकि इसमें कौन तो तेरा मित्र है और कौन तेरा शत्रु दुस्मी हैं क्योंकि (काले) काले | करके सबका अंत है इसलिये संसारमें नहीं कोइ तेरा मित्र है नहीं कोइ तेरा शत्रु है. ॥४॥ बांधे कर्म जीव एकलोरे। भोगवे प्रण तें एक || किन उपर किण वातनीरे । राग द्वेषनी टेकरे प्रा० ॥५॥ भावार्थ :- हे भव्य यह आत्मा अकेला अशुद्ध प्रणति और अशुद्ध उपयोग परपरिणति योगसे कम से बंधिजता है वह कर्त उदे आनेंपर जीव अकेलाही भोगते हैं तब कहो भला अन्य अर्थात् दूसरोपें रागद्वेष क्यों करना चाहिये वहतो पूर्व कृत्य शुभाशुभ कर्मकि फल हैं ईसलिये तेरा कोई भी शत्रु नहीं कोइभी मित्र नही है केवल कर्मही शत्रुभूत है अन्यतो केवल निमित्त मात्रही है ॥५॥ जो निज एक पशुं ग्रहेरे । छांडी सकल परभाव । शुद्धात्म ज्ञानादि सुरे । एक स्वरूपे भावेरे प्रा० ||६|| भावार्थ - अनंत ज्ञान गुण संयुक्त और शुद्ध लक्षण केवल ज्ञानमयी मेही हुं अन्य सर्व पौङ्गलकी पर्याय है ऐसा अपने शुद्धात्म स्वरूपको समझके और सर्व विभाव दशाको छोडके सदा अयाधित्म मेरा स्वरूप शुद्ध गुण पर्यायका में पिंडही हुं ऐसे एकत्वभानाभानेसे अन्य जो द्रव्य गुण पर्यायके विकल्प आते हैं वे आपसे आप विलाये जाते हैं। अर्थात् सर्व संकल्प जानेपर निर्विकल्प समाधिकी प्राप्ति आपसे आप हो जाती है इस लिये हे मुनि अब तु सर्व For Personal & Private Use Only जीतसंग्रह ॥ ५७ ॥ www.jainelibrary.org

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