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अध्यात्म
विचार
रूपसे दृश्य है उसके विषे अकाशवत् ज्ञान करके व्यापक हैं तो भी सबसे भिन्न अलिप्त हैं वे मंही हुं
शंका- तब तो जगत् के नाश होनेपर आत्माका नाश होना चाहिये (समाधान) कल्पित सब जगत् के नाश होनेपर मेरा नाश कभी नहीं होनेवाला क्योंकि मैंतो सबके अधिष्टन रूप हूं इस लिये मेरा विनाश तीनुं कालमें नही हो सकता क्योंकि मेरा स्वरूप पुण्य पापरूपी बंधन से वर्जित और अचल इस लिये सर्व जगत् के चलाचल धर्मसे रहित स्वरूप है मेरा ऐसा आत्मस्वरूपका जिसको दृढ श्रद्धा न होजाता है वह भव्य थोडेही कालमें निर्वाण पदका अवश्य ही भोक्ता होजाता है जैसे उत्तम रसायन औधिका सेवन करनेपर बहुत कालका रोगी पुरुष आरोग्यताको प्राप्त हो जाता है अब आत्मा और परमात्मा की एकता के लिये साधन बतलाते है निरुपाधि एकांत स्थान जेहां होवे आत्मध्यान उपाधि रहित एकांत प्रदेस में सुख पूर्वक पद्मासन या सिद्धासन लगाके वैराग्यमय चित्तको वालके और शब्द स्पर्शादिक विषयोंसे मनको वालके गरुगम्यसे अष्टांग योग विधान यथार्थ स्वरूप समक्षके शनैः शनैः अभ्यास करे मोक्षार्थी और चार भावनामें अपने मनःको दृढ रखे मैत्री प्रमोद करुणा और मध्वस्था यह चार भावनाएं है और इस देह से अपना स्वरूप सदा भिन्न विचारे अर्थात् आत्माकी ऐसी दृढ भावना होनी चाहिये कि स्वप्न में भी में साधु हुं में मनुष्य हुं में पुरुष हुं मैं स्त्री हुं में सुखी हूं में दुःखी हुं ऐसा विचार नही आना चाहिये (शंका) इस संसारादि प्रपंच जालके विषे आत्माकी एकत्व भावना कैसे हो सके (समाधान) तत्व दृष्टिसे अथवा अध्यात्म ग्रंथोसे आत्माका स्वरूप यथार्थ समझ के और सर्व जगत् के प्रपंच छोड़के अन्तर वृतिसे जगत् के साक्षीभूत शुद्ध अत्म
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1981
毛毛毛美睫美挑
"जीमगं
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