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जीतसंग्रह
इसलिये सर्व तरहकी उपाधिके त्यागबिन आत्म स्वरूपका निश्चय अनुभव नहीं होता इसलिये संसारकी सर्व अध्यात्म
उपाधिका त्याग करनाही चाहिये अब जो मनका धर्म है वह आत्म शुद्ध स्वरूप के विषे निषेध करके दिखलाते है विचार
कि ईस दुनियांकेविषे अज्ञानी जीवोंको भारी दुःखही क्या है कि अपने निज स्वरूपको छोडकर इन्द्रियोंके विषय सुखमें आसक्त रहना याने विषयभोगके विषे राग प्रेन प्रीति करना अर्थात् रागद्वेषसे एक राग दुसरे द्वेष राग आनेसे सुख उत्पन्न होता है और द्वेषसे दुःख होता है वह रागद्वेष केवल मनही कराता है क्षणेरुष्टा क्षणेतुष्टा फेर उदासीन वृति शोक वृति भय हास्य सहतासुख दुःख वियोग संयोग ईत्यादिक यह सर्व मनके धर्म है मेरे नहीं है मेरा धर्म और मेरा स्वरूपतो मनसे रहित सदा भिन्न है मैंतो केवल मन इन्द्रियोका सोक्षीभूत हु और देह अश्रित क्षुधा विपासादिक है वहतो केवल प्राणोके धर्म है लेकिन मेरे विषे नहीं है क्योंकि मेरा स्वरूप और मेरा धर्म द्रव्य प्राणोंसे सदा रहित द्रष्टा ज्ञाता है इस लिये क्षुधा तृषा आदि धर्म मेरे विषे नहीं है स्वरूप सर्व प्राणोसे
भिन्न है और मन वर्गणासे भी भिन्न है इस वास्ते रागद्वेषादिक धर्म मेरे विषे नहीं है मेरा स्वरूप और मेरा धर्म JE | अनादिकालसे अनंतज्ञान अनंत दर्शन और अनंत चारित्रमय है इस लिये जन्मजरादिक धर्म मेरे विषे नहीं है मेरा
स्वरूप सदैव निर्विकार निराकार शुद्ध केवलज्ञान मय है वह नित्यहें ही भूत भविष्य और वर्तमान तीनोंही कालमें sal एक रूप हुँ सर्व तरहके विकारोंसे रहित हूं आकाशवत् स्वतंत्र और सदा निर्भय हे नित्य कर्मोसे मुक्त हुं जो अज्ञानी
जीवोंने स्वआत्म धर्ममे विपरीत मिथ्या कल्पित धर्म माने है उसका आत्मा अधिष्टान है और यह जो संसार जड
حيث تم الشلالاتكالات استقالته فكلنا
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