Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 110
________________ जीतसंग्रह विचार २६ कांतिमय स्वप्रकाशवाला महा स्वच्छ होता है तैसेही आत्माका स्वभाव सदैव केवल प्रकाशमय महा स्वच्छ अध्यात्म महा निर्मल हैं गाथा-जेम निर्मलतारे स्फटिक रत्न तणी। तेम ते जीव स्वभाव । तेजिनवीरे धर्म प्रकाशियो। प्रबल कषाय अभाव॥१॥ राते कूलेरे रातडो श्याम फूलथीरे । श्याम पुण्य पापथीरे । तेम जगजीवने रागद्वेष परिणाम ॥२॥ शंका-मैं दाता हु मैं सुरवीर हुं मैं सब जानता हुं अब में जाताहुं अभी में आता हुं ऐसे व्यवहार करके Jआत्माकी प्रतीति हो रही हैं तब आप निर्विकार सिद्ध के समान आत्माको कैसे कहते हो ? समाधान में सुखी हुँ दुःखी हं इत्यादिक कहना बहिरात्म वृनिवाले अज्ञानियोंका हैं लेकिन आत्मा सदैव असंग निर्मल बंधनसे मुक्तही हैं निश्चय नयसे आत्मशुद्धस्वरूपके विषे कोइभी तरहका विकार है नहीं है क्योंकि आत्माका स्वरूप अरूपी और निष्क्रियते अर्थात् क्रियासे रहित है सदैव तैसेही वाणीसे जिसका स्वरूप नहीं कहा जाचे शंका-जब आत्माका स्वरूप मन बुद्धिसे नहीं कहा जावे तब आत्म स्वरूप जानने के लिये और कोई दूसरा ज्ञानभी होना चाहिये ? समाधान-आत्मा आपही ज्ञानमय है ईसलिये आत्माको दूसरे ज्ञानकी जरूरतही नहीं रहती वह दृष्टांतसे सिद्ध करके बतलाते है जैसे सूर्यको तथा दीपकको अपने प्रकाशके लिये दूसरे प्रकाशकी सहायता लेनीकी कुछभी जरुरतही नहीं रहती क्योंकि आपही प्रकाशमय है तैसे आत्माको दूसरे ज्ञानकी कुछ जमरतही नहीं पड़ती देखो महात्मा पुरुषने क्या कहा है जरा सुनिये in Education International For Personal & Private Use Only www.janelibrary.org

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