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जीतसंग्रह
अध्यात्म- होना चाहिये (समाधान) राव रंक जन्म जरादिक जो उपरोक्त कह आये है वह केवल देह इंन्द्रियोंके धर्म है लेकिन विचार
अज्ञानपनेसे मूर्ख जनो आत्माके विषे मिथ्यात्वपनेसे आरोप किये है वस्तु गते देहादिक धर्मसे आत्मा सदा | रहित हैं क्योंकि इंद्रियादि देह के जोजो विषय और अंध बधिरादिक धर्म और मन वचनादि जो योग है वहतो केवल || जडरूप है और आत्मा सदाज्ञानानंदमय है ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूपके विषे अज्ञानी लोग अविवेक पनेसे खोटा मिथ्या आरोप करते है लेकिन निश्चयनयसे आत्माके विषे जन्मजरादिक धर्म कुछभी नही हैं जैसे आकाशके विषे अज्ञानी लोग नील पीतादिक रंगका आरोप करते हैं वह कल्पित हैं तत्वदृष्टिसे देखा जावे तो कुछभी नहीं हैं। (शंका) बहुत अच्छा जो देह इंद्रियादिक और जन्मादिक धर्म आत्माके विषे नही हैं सो तो ठीक है लेकिन मैं करता | हरता हुं अमूक तब कहो भला पुण्यवान महा धर्मी है अमुक महा अधम पापी हैं ऐसातो सदैव देखलाता है ताते यह आत्मा का भोक्त अवश्यही होना चाहिये समाधान कर्ता भोक्तादिक जो धर्म है वह तो शरीर आश्रित कहा गया है लेकिन आत्मा आश्रित नहीं है केवल भ्रम करके आत्माके विषे कल्पितपनसें आरोप करते है और जो रागादिक है वह तो केवल मोहराजाका धर्म हैं वह अनादिकालसे आत्मायें अज्ञानरूपी पडदा डालके कल्पना करते हैं राग इसलिये पुद्गलीक विषय सुख तीव्र अभीलाषा कराते है परन्तु आत्मराजा जागृत होनेपर मोहराजा आपसे
आप पलायन कर जाते है [शंका जय रागादिक आत्माका स्वभाव ही नहीं है तब आत्माका स्वभाव कैसा है समाAE धान] आत्माका शुद्ध स्वभाव दृष्टांत करके बतलाता हुं जरा एकग्रह चित्तसे सुनिये जैसे स्फटिक रत्न महानिर्मल और |
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