Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 108
________________ जीतसंग्रह अध्यात्मविचार الاناكانی هه وتقيان في اللي فيه الفالفا نفالستالار असल कहोगे तो असत्यता जगतकी उत्पतिका संभवही नहीं होता ते अनादिसे यह संसार उत्सतिसे रहित परति हो रहा है और औदारिक वैक्रिय आहारक तेजस और कार्मण उत्पन्न होने का मुख्य कारण केवल अज्ञानता कहाहै इस लिये आत्म अनुभव ज्ञानसे निश्चय करना चाहिये कि मेरा आत्मस्वरूप देहादिक जड पदार्थोसें सदा भिन्न और मलसे रहीत महा निर्मल है सदा अविनाशी सुखमय अकथ्य है कथनीमें आ सके वैसा नही है (शंका) आत्माको आप सदा सच्चिदानंद ज्ञानमय कहते हो तो वह सबमे प्रतीत होना चाहिये (समाधान) निश्चय दृष्टिसे देखा जावे ती आत्मा सर्व चराचर जीवोंके विषे व्यापक प्रतीत हो रहा है लेकिन ज्ञान विना कैसे प्रतीत हो सके जैसे सूर्य अपनी किरणो द्वारा सर्व व्यापक प्रतीत हो रहा है लेकिन घट कंदरादिकके विषे यथार्थ प्रतीत नहीं होता लेकिन जलादिक के विषे प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है तैसे इस देहरूपी मठके विषे आत्मा प्रत्यक्ष ही प्रतीत हो रहा है | ज्ञान कर के और व्यवहारसे देह इंद्रियोके साथ रहनेपरभी आत्मा वर्तमानकालमें भी देहसे भिन्न है नेत्रादिक इंद्रि-र योंके विषे पेरना करने पर आत्मा प्रतीत होता है ऐसा कहना ज्ञानहीन मूर्ख जनोका है लेकिन तत्त्वज्ञाता नहीं कहते नहीं मानते देह आश्रित इन्द्रियों अपने अपनें अर्थके लिये व्यवहार क्रिया कर रही है तोभी उसमें आत्मता नहीं संभवती (शंका) जब आत्मा इन्द्रियादिकसे भिन्न और ज्ञानमय है तब कहो भला मैं यौवन हुँ मैं वृद्ध हुँ मैं यालक हूं वे अंधा है वह काणा है वे शेठ है वे राजा है वह रंकजन है मैं सब कर सकता हूँ मैं सब सुन रहा हूँ इत्यादिक व्यवहार आत्माके विषे प्रतीत हो रहा है इस लिये आत्मा राजा रंक शेठ जन्म मृत्युवाला अवश्य ही UPDADOOK. COcra in Education a l For Personal & Private Use Only 2 lainelibrary.org

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