________________
अध्यात्म
विचार
॥ ५२ ॥
है केवल अज्ञानता के लिये कितनेक द्रव्यलिंगीयों कहते हैकि हम मुनि है हम श्रावक है इत्यादिक जो कल्पना करते हैं वह केवल अज्ञानतासेंही करते है अज्ञानका पडल दूर होनेपर यही आत्मा परमात्मरूप हो जाता है.
शङ्का — जब आत्मा परमात्म रूपही हैं तब यह आत्मा अनादिकालसें जन्म जरा और मृत्यु करके पुनः पुनः लक्ष चौरासी योनि के विषे वयुं भ्रमण कर रहा है ? समाधान - यह आत्मा अज्ञानके वशीभूत हुआ अनादिकाल से जन्म जरा और मृत्युके संकट में आकर कष्ट भागते है लेकिन (तत्त्वमसि) जब आत्माको आत्म और परमात्मकी एकताका ज्ञान होजाता है तब अज्ञानरूपी मिथ्यात्वका जो अनादि कालसे आरों था यह आपसेआप नाश होनेपर यही आत्मा परमात्मा है इसलिये आत्मस्वरूप सदा शुद्ध निर्मलही हैं.
श्लोक – अज्ञान कलुषं जीवं । ज्ञानाभ्यासाचिर्निमलम् ॥ कृत्वाज्ञानं स्वयं नश्ये । जलंकतक रेणुवत् ॥१॥
निश्चयकरके यह आत्मा सदैव सत्य सच्चिदानंदमय परब्रह्म है लेकीन अज्ञानताके लीये अपना स्वरुप भूल कर | अज कुलवासा केसरी सिंहकी तरह मैं कर्ता हुं मैं भोक्ता हुं मैं राव हुं मैं रंक हुं मैं शेठ हुं इत्यादि पुल पर्यायके भ्रमसे देहको हुं माननेपर अनादि कालसे (कलुषं) यह आत्मा कमेसें मलिन हो रहा है वही मैं अकर्ता अभोक्ता सत्य सच्चिदानंदमयी साक्षीरूप परिब्रह्म हुं ऐसा व्र स्वरूप समझके बहुत समयतक अभ्यास करनेपर आपसे आपही स्वप्रकासमय निर्मल होकर याने मायारूपी मलसे रहित होकर अपने स्वरूपमें स्वतेंही स्थिरीभूत होजाता है याने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
जीतसंग्रह ॥ ५२ ॥
www.jainelibrary.org