Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 104
________________ S जीतसंग्रह विचार श०-यथा जैसे (पाषाणेषु) पाषाण के विषे [हेमं] हेम रहा हुआ है तथा [दुग्धमध्ये] धके अंदर [यथाअध्यात्म घृतं] जैसे घृत रहाहुआ है और (तिलमध्ये) तिलोकी अन्दर (यथातैलं) जैसे तेल रहा हुआ है तथा देहमध्ये] देहके | विषे (शिव) शव याने मोक्ष स्वरूपी आत्मा समा रहा हुआ है ॥२२॥ मूल-काष्टमध्ये यथावन्हिः । शक्तिरूपेणतिष्टतिः ॥ अयमात्माशरीरेषु ! यो जानाति स पंडितः ॥ २४ ॥ श०-(यथाकाष्टमध्ये) जैसे काष्टके विषे (वन्हिः) अग्नि (क्तिरुपेण) अपनी शक्तिसे (तिष्टति) समा रहि हुइ हैं (अयमात्मा शरीरेषु) तैसे इस देहके विषे अर्थात् देहरूपी कोटके अंदर आत्मा अपनी शक्तिसे समा रहा है JE [योजानाति] ऐसा जो महापुरुष जानता है [स पंडित] वही महाभाग्य सर्व शास्त्रके जान तत्त्वज्ञानी है वहीं पंडित SE | वही आत्मज्ञानी वही महापुरुष योगी ध्यानी है ॥२४॥ इस लिये आत्मज्ञानकी प्राप्ति विना चावे जितने जप तप संयम व्रत और नेम पच्चखानादिक क्यु न करलेवे लेकिन आत्मज्ञान विना तीर्नुकालमे मोक्ष नही हो सके इस लिये भव्य जीवोंको चाहिये कि मोक्ष सिद्धिके लिये आत्मज्ञान प्रथमसेंही होनेकी जरुरत हैं दोहा-स्वात्मके जाने विना । करे पुण्य बहुदान ॥ तदपो भ्रमे संसारमें । मुक्ति न होय निदान ॥१॥ जैसे भोजनकी सिद्धिके लिये जल अन्नादिक सर्व सामग्री तैयार हैं लेकिन अग्नि विना केवल जलादिक साम ASRHARS AmruarumpRGUARDAGAUR a ndeshSPAISAUNDLALULAas PRONOURE JainEducation For Personal & Private Use Only D www.jainelibrary.org

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