Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 103
________________ अध्यात्मविचार मूल - आकाररहितशुद्धं । स्वस्वरूपे व्यवस्थितं ॥ सिद्धमष्टगुणापेतं । निर्विकारं निरजनं ॥२१॥ श० - (आकाररहितं) आकार से रहित और [शुद्धं] शुद्ध (स्वस्वरूपे व्यवस्थितं) अपने स्वस्वरूपके विषे स्थिरिभूत रहा हुआ (निर्विकार) सर्व तरहके विषय विकारोंसे वर्जित स्वरूप है जिसका और (अष्टगुणोपेतं सिद्धोके अष्ट गुण सहित स्वरूप है जिस शुद्ध आत्माका पुनः (सिद्धं) इस लिये वही आत्मा सिद्ध स्वरूपी है ॥२१॥ मूल -- तत् समंतु निजात्मानं । रागद्वेष विवर्जितं ॥ सहजानंद चैतन्यं । प्रकाशयति महायशे ॥ २२॥ श० - [ तत्समंतु] यह आत्मा सिद्धके समान है और [ रागद्वेषविवर्जितं ] रागद्वेषसे सदा वर्जित और (सहजानंदचैतन्यं] सहज ही परम आनंदमय चैतन्य स्वरूपी (निजात्मानं ) अपने स्वआत्म स्वरूपको ( महायश ) महा पुरुष [प्रकाशयति ] प्रकाश कर गये है भावार्थ:- निराकार शुद्ध स्वरूपमें विकार रहित और कर्मरूपी रजसे वर्जितस्व रूप है जिस परमात्माका फेर अष्टगुण संयुक्त जैसा सिद्ध परमात्मा वैसाही में हुं, अर्थात् सिद्ध परमात्मा के समान ही यह आत्मा है रागद्वेष रहित होनेपर सहजसे ही परम आनंद सुखमय चैतन्य स्वरुपी यही शुद्ध आत्मा है ऐसा आत्माका शुद्ध स्वरुप महायश महापुरुष प्रगट करके भव्य जीवोंको देखलाके मोक्ष वधारे है ||२२|| अब कहते है कि सिद्धू के समान आत्मा है वह ईस शरीरमें कैसें समा रहा है वह सिद्ध करके देखलाते है. मूल - पाषाणेषुयथाहेमं । दुग्धमध्येयथावृतं ॥ तिलमध्येयथातैलं । देहमध्ये तथा शिवं ॥ २२ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only जीनसंग्रह www.jainlibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122