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अध्यात्म(स एव शुद्ध चिद्रपं) यही आत्मा शुद्ध चिद् घन केवल ज्ञानमयी है (स एव परमं शिव) वही आत्मा परम शिवरूप
जीतसंग्रह विचार है भावार्थ-आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रगट होनेपर यही कल्याणरूप है और सर्व सुखका स्थानभी यही आत्मा है॥१८॥ ॥५०॥
मूल-स एव सुखदायकः । स एव परमानंद ॥ स एव परचेतन्यं । स एव गुणसागरः ॥१९॥
श-(सएवपरमानंद) यही आत्मा परम आनंदमय है (सएवसुखदायकः) यही आत्मा परम मोक्ष सुख देने वाला दाता है (स एव परमचैतन्यं) यही आत्मा उत्कृष्ट परम चैतन्य है (स एव गुणसागरः) यही आत्मा सर्व गुणोके सागर अठाविस लब्धि तथा केवल ज्ञानमयी अनंत सुखका धनी हैं ॥१०॥ मूल-परमाल्हादसंपन्नं । रागद्वेषविवर्जितं ॥ सोहंतु देह मध्येतु । योजानाति स पंडितः ॥२०॥
श-(परमाल्हादसंपन्नं) परम अल्हाद इसलिये परम आनंद संयुक्त मयी स्वरूप है जिसका पुनः कैसा है REI (रागद्वेषविवर्जितं) रागद्वेषसे सदा वर्जित स्वरूप है जिसका ऐसा परमात्मा (देहमध्येस्थ) इस देहमें स्थिरिभूत रहा ||
हुआ है (सोहंतु) वेमेंही हुँ (योजानाति) ऐसा जो महापुरुष जानता है (सपंडित) वही पंडित है भावार्थ:-महा उत्तमसे उत्तम और सर्व गुण संपन्न और सदा आनंदमयी रागद्वेष वर्जित ऐसा शुद्ध आत्मा इस देहरूपी किलेमें जो रहा हुआ है वे मेंही लेकिन दूसरा नहीं है ऐसा जो निश्चय करके जानता है वही पंडित विचक्षण सर्व शास्त्रके | ज्ञाता है ॥२०॥ पुनः शुद्धात्म स्वरूप कैसा है मानु कि
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