Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 100
________________ जीतसंग्रह अध्यात्मविचार ॥४९॥ - - मूल-लोकमात्र प्रमाणोहि । निश्चयेन संशय ॥ व्यवहारा देहमानं । कथयन्ति मुनिश्वराः ॥ १४ ॥ श०-(निश्चयेनणो) निश्चय करके (लोक मात्र प्रमा) आत्म प्रदेश लोक प्रमाणे है (नसंशयं) इसमें कोईभी तरहका संशय नहीं है और (व्यवहारेण) व्यवहारसे आत्मप्रदेश केवल देहके प्रमाणही रहते है ऐसा [मुनिश्वरा] मुनिययोंके इस तीर्थकरोने [कथयन्ति कहाहै भावार्थ आत्माके प्रदेश निश्चयसे लोकप्रमाण है इसमें कोई तरहका संदेह नहीं है और व्यवहारसें देखाजावेतो आत्मप्रदेश देहके प्रमाणही है ऐसा मुनिश्वरोंके इसने कहाहै ॥१४॥ मूल-यत्क्षणं दृष्यते शुद्धं । क्षणं गतविभ्रमः ॥ युस्थचित्तं स्थिरीभूतं । निर्विकल्पं समाधये ॥१५॥ श-(स्वस्थ) आत्मस्वरूपके विषे (चित्तं स्थिरिभूत) जब योगीराजका चित्त स्थिरीभूत होजाता हैं तय निर्वि कल्पसमाधये निर्विकल्प समाधिको प्राप्त कर सकता हैं निर्विकल्प समाधि योगीराजको प्राप्त होने पर (यत्क्षण) उसी क्षण उसी समयमें (दृश्यते शुद्ध) शुद्ध आत्मस्वरूपका दर्शन योगीराजको दिखलाइ देते हैं (तत्क्षणं) उसी क्षणमें तय योगीराजका चित्त (गतविभ्रम) भ्रान्ति रहित स्थिर समाधिमे लये हो जाता हैं तब निर्विकल्प समाधिको योगी राज कर सक्ता हैं कोरी बातोसें समाधि प्राप्त नहीं होती निर्विकल्प समाधिके विषे जब चित्त स्थिरीभूत होता हैं तबही शुद्ध स्वरूपका भाष होता हैं शुद्ध स्वरूपका भाष होनेपर आत्मा भ्रांति रहित हो जाता हैं तय यही आत्मा परमात्म है ।। १५ ।। UCED.-- DOJPURIDDA D Jan Education International For Personal & Private Use Only www.janeiro

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